Tuesday, July 14, 2015

दूध असल में अत्‍यधिक कामोत्तेजक

दूध असल में अत्‍यधिक कामोत्तेजक आहार है और मनुष्‍य को छोड़कर पृथ्‍वी पर कोई पशु इतना कामवासना से भरा हुआ नहीं है। और उसका एक कारण दूध है। क्‍योंकि कोई पशु बचपन के कुछ समय के बाद दूध नहीं पीता, सिर्फ आदमी को छोड़ कर। पशु को जरूरत भी नहीं है। शरीर का काम पूरा हो जाता है। सभी पशु दूध पीते है अपनी मां का, लेकिन दूसरों की माताओं का दूध सिर्फ आदमी पीता है और वह भी आदमी की माताओं का नहीं जानवरों की माताओं का भी पीता है।

दूध बड़ी अदभुत बात है, और आदमी की संस्‍कृति में दूध ने न मालूम क्‍या-क्‍या किया है, इसका हिसाब लगाना कठिन है। बच्‍चा एक उम्र तक दूध पिये,ये नैसर्गिक है। इसके बाद दूध समाप्‍त हो जाना चाहिए। सच तो यह है, जब तक मां का स्‍तन से बच्‍चे को दूध मिल सके, बस तब तक ठीक हे। उसके बाद दूध की आवश्‍यकता नैसर्गिक नहीं है। बच्‍चे का शरीर बन गया। निर्माण हो गया—दूध की जरूरत थी, हड्डी थी, खून था, मांस बनाने के लिए—स्‍ट्रक्‍चर पूरा हो गया, ढांचा तैयार हो गया। अब सामान्‍य भोजन काफी है। अब भी अगर दूध दिया जाता है तो यह सार दूध कामवासना का निर्माण करता है। अतिरिक्‍त है। इसलिए वात्‍सायन ने काम सूत्र में कहा है कि हर संभोग के बाद पत्‍नी को अपने पति को दूध पिलाना चाहिए। ठीक कहा है।

दूध जिस बड़ी मात्रा में वीर्य बनाता है, और कोई चीज नहीं बनाती। क्‍योंकि दूध जिस बड़ी मात्रा में खून बनाता है और कोई चीज नहीं बनाती। खून बनता है, फिर खून से वीर्य बनता है। तो दूध से निर्मित जो भी है, वह कामोतेजक है। इसलिए महावीर ने कहा है,वह उपयोगी नहीं है। खतरनाक है, कम से कम ब्रह्मचर्य के साधक के लिए खतरनाक है। ठीक से,काम सुत्र में और महावीर की बात में कोई विरोध नहीं है। भोग के साधक के लिए सहयोगी है, तो योग के साधक के लिए अवरोध है। फिर पशुओं का दूध है वह, निश्‍चित ही पशुओं के लिए,उनके शरीर के लिए, उनकी वीर्य ऊर्जा के लिए जितना शक्‍ति शाली दूध चाहिए। उतना पशु मादाएं पैदा करती है।

जब एक गाए दूध पैदा करती है तो आदमी के बच्‍चे के लिए पैदा नहीं करती, सांड के लिए पैदा करती है। ओर जब आदमी का बच्‍चा पिये उस दूध को और उसके भीतर सांड जैसी कामवासना पैदा हो जाए, तो इसमें कुछ आश्‍चर्य नहीं है। वह आदमी का आहार नहीं है। इस पर अब वैज्ञानिक भी काम करते है। और आज नहीं कल हमें समझना पड़ेगा कि अगर आदमी में बहुत सी पशु प्रवृतियां है तो कहीं उनका कारण पशुओं का दूध तो नहीं है। अगर उसकी पशु प्रवृतियों को बहुत बल मिलता है तो उसका करण पशुओं का आहार तो नहीं है।

आदमी का क्‍या आहार है, यह अभी तक ठीक से तय नहीं हो पाया है, लेकिन वैज्ञानिक हिसाब से अगर आदमी के पेट की हम जांच करें, जैसाकि वैज्ञानिक किये है। तो वह कहते है , आदमी का आहार शाकाहारी ही हो सकता है। क्‍योंकि शाकाहारी पशुओं के पेट में जितना बड़ा इंटेस्‍टाइन की जरूरत होती है, उतनी बड़ी इंटेस्टाइन आदमी के भीतर है। मांसाहारी जानवरों की इंटेस्‍टाइन छोटी और मोटी होती है। जैसे शेर, बहुत छोटी होती है। क्‍योंकि मांस पचा हुआ आहार है, अब बड़ी इंटेस्‍टाइन की जरूरत नहीं है। पचा-पचाया है, तैयार है। भोजन। उसने ले लिया, वह सीधा का सीधा शरीर में लीन हो जायेगा। बहुत छोटी पाचन यंत्र की जरूरत है।

इसलिए बड़े मजे की बात है कि शेर चौबीस घंटे में एक बार भोजन करता है। काफी है। बंदर शाकाहारी है, देखा आपने उसको। दिन भर चबाता रहता है। उसका इंटेस्‍टाइन बहुत लंबी है। और उसको दिन भर भोजन चाहिए। इसलिए वह दिन भर चबाता रहता है।

आदमी की भी बहुत मात्रा में एक बार एक बार खाने की बजाएं, छोटी-छोटी मात्रा में बहुत बार खाना उचित है। वह बंदर का वंशज है। और जितना शाकाहारी हो भोजन उतना कम उतना कम कामोतेजक हे। जितना मांसाहारी हो उतना कामोतेजक होता जाएगा।

दूध मांसाहार का हिस्‍सा है। दूध मांसाहारी है, क्‍योंकि मां के खून और मांस से निर्मित होता है। शुद्धतम मांसाहार है। इसलिए जैनी, जो अपने को कहते है हम गैर-मांसाहारी है, कहना नहीं चाहिए, जब तक वे दूध न छोड़ दे।

केव्‍कर ज्‍यादा शुद्ध शाकाहारी है क्‍योंकि वे दूध नहीं लेते। वे कहते है, दूध एनिमल फूड हे। वह नहीं लिया जा सकता। लेकिन दूध तो हमारे लिए पवित्रतम है, पूर्ण आहार है। सब उससे मिल जाता है, लेकिन बच्‍चे के लिए, और वह भी उसकी अपनी मां का। दूसरे की मां का दूध खतरनाक है। और बाद की उम्र में तो फिर दूध-मलाई और धी और ये सब और उपद्रव है। दूध से निकले हुए। मतलब दूध को हम और भी कठिन करते चले जाते है, जब मलाई बना लेते है। फिर मक्खन बना लेते है। फिर घी बना लेते है। तो घी शुद्धतम कामवासना हो जाती है। और यह सब अप्राकृतिक है और इनको आदमी लिए चला जाता है। निश्‍चित ही, उसका आहार फिर उसके आचरण को प्रभावित करता है।

तो महावीर ने कहा है, सम्‍यक आहार,शाकाहारी,बहुत पौष्‍टिक नहीं केवल उतना जितना शरीर को चलाता है। ये सम्‍यक रूप से सहयोगी है उस साधक के लिए, जो अपनी तरफ आना शुरू हुआ।

शक्‍ति की जरूरत है, दूसरे की तरफ जाने के लिए शांति की जरूरत है, स्‍वयं की तरफ आने के लिए। अब्रह्मचारी,कामुक शक्‍ति के उपाय खोजेगा। कैसे शक्‍ति बढ़ जाये। शक्‍ति वर्द्धक दवाइयां लेता रहेगा। कैसे शक्‍ति बढ़ जाये। ब्रह्मचारी का साधक कैसे शक्‍ति शांत बन जाए,इसकी चेष्‍टा करता रहेगा। जब शक्‍ति शांत बनती है तो भीतर बहती है। और जब शांति भी शक्‍ति बन जाती है तो बाहर बहनी शुरू हो जाती है।

Monday, July 13, 2015

------जीवन ही है प्रभु---------

ओशो कहते हैं कि आदमी बहुत अजीब है, वह इंसान की बनाई चीजों को तो मानता व पूजता है लेकिन स्वयं को, ईश्वर की बनाई सृष्टि और उसमें मौजूद प्रकृति की तरफ कभी भी आंख उठाकर नहीं देखता। सच यह है कि परमात्मा को मानने का मतलब ही हर चीज के लिए ‘हां’, पूर्ण स्वीकार भाव और यह जन्म जीवन उसका जीता-जागता सबूत है|

-------सहें नहीं, स्वीकारें-------

बचपन से ही हमें सहना सिखाया जाता है। सहने को एक अच्छा गुण कहा जाता है। बरसों से यही दोहराया जाता रहा है कि यदि हर कोई सहनशील हो जाए तो न केवल व्यक्तिगत तौर पर बल्कि वैश्विक तौर पर धरती पर शांति हो सकती है, लेकिन आज परिणाम सामने है। ओशो बोध के पक्ष में हैं।

---------धर्म नहीं, धार्मिकता---------


मनुष्य ने अपनी पहचान को धर्म की पहचान से व्यक्त कर रखा है। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान, कोई सिख तो कोई ईसाई। धर्म के नाम पर आपसी भेदभाव ही बढ़े हैं। नतीजा यह है कि आज धर्म पहले है मनुष्य और उसकी मनुष्यता बाद में। वह कहते हैं, आनंद मनुष्य का स्वभाव है और आनंद की कोई जाति नहीं उसका कोई धर्म नहीं।

------अतिक्रमण नहीं, संतुलन-------

अति हर चीज की बुरी होती है। यह बात जानते हुए भी मनुष्य हर चीज की अति सुख को पाने या बनाए रखने के लिए करता है। ओशो कहते हैं सुख की चाह ही दुख की जड़ है। सुख अपने साथ दुख भी लाता है। ओशो कहते हैं न पाने का सुख हो, न खोने का दुख, यही अवस्था संन्यास की अवस्था है।

------दूसरे को नहीं, खुद को बदलें--------


देखा जाए तो परोक्ष रूप से मनुष्य के तमाम दुखों और तकलीफों का आधार यह सोच रही है कि मेरे दुख का कारण सामने वाला है। हम परिस्थितियों या किस्मत के साथ भी यही रवैया रखते हैं कि वह बदलें हम नहीं।

------ध्यान एकमात्र समाधान--------


अपनी इच्छाओं के पूरा होने के लिए लोग हमेशा से प्रार्थना, पूजा व कर्मकांड आदि को प्राथमिकता देते रहे हैं। ध्यान तो लोगों के लिए एक नीरस या उदास कर देने वाला काम है, तभी तो लोग पूछते हैं कि ध्यान करने से होगा क्या? ओशो ने ध्यान को जीवन में सबसे जरूरी बताया,यहां तक कि ध्यान को जीवन का आधार भी माना।

--------शिकायत नहीं, धन्यवाद-------

ऐसा कौन है, जिसका मन शिकायतों से नहीं भरा! घर हो या दफ्तर, भगवान हो या संबंध, हम हमेशा सबसे शिकायत ही करते हैं। हमारी नजर हमेशा इस बात पर होती है कि हमें हमारे अनुसार क्या नहीं मिला। ओशो कहते हैं कि हमारी नजर सदा उस पर होनी चाहिए जो हमको मिला है।

-------दमन, नहीं सृजन--------

मनुष्य सदा तनाव में रहता है। कभी ईर्ष्या से तो कभी क्रोध से भरा ही रहता है। उसमें भटकने और आक्रामक होने की संभावना हमेशा छुपी रहती है। वह चाहकर भी आनंदित और सुखी नहीं रह पाता। ओशो कहते हैं कि मनुष्य एक ऊर्जा है। हम यदि उस ऊर्जा को दबाएंगे तो वह कहीं न कहीं किसी और विराट रूप में प्रकट होगी ही।

------मैं नहीं, साक्षी भाव------

मनुष्य के दुख का एक कारण यह भी है कि वह किसी भी चीज को, फिर वह इंसान हो या परिस्थिति, ज्यों का त्यों नहीं स्वीकारता। वह उसमें अपनी सोच अवश्य जोड़ देता है, जिसके कारण वह उसका हिस्सा बनने से चूक जाता है और दुखी हो जाता है। ओशो कहते हैं कि जो हो रहा है, उसे होने देना चाहिए, कोई अवरोध नहीं बनना चाहिए।

------भागो नहीं, जागो-------

हम हमेशा अपने दुखों और जिम्मेदारियों से भागते रहते हैं, उनसे बचने के बहाने खोजते रहते हैं। अपनी गलतियों और कमियों के लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहराते रहते हैं, लेकिन ऐसा करके भी हम खुश नहीं रह पाते। ओशो कहते हैं कि परिस्थितियों से भागना नहीं चाहिए।

------अभी और यहीं-------


मनुष्य या तो अपने बीते हुए पलों में खोया रहता है या फिर अपने भविष्य की चिंताओं में डूबा रहता है। दोनों सूरतों में वह दुखी रहता है। ओशो कहते हैं कि वास्तविक जीवन वर्तमान में है। उसका संबंध किसी बीते हुए या आने वाले कल से नहीं है। जो वर्तमान में जीता है वही हमेशा खुश रहता है।

कबीर : पूर्णिमा का चाँद

संत तो हजारों हुए हैं, पर
कबीर ऐसे है जैसे पूर्णिमा
का चाँद—अतुलनीय,
अद्वितीय, जैसे अंधेरे में
कोई अचानक दीया जला
दे, ऐसा यह नाम है। जैसे
मरुस्थल में कोई अचानक
मरूद्यान प्रकट हो जाए,
ऐसों अद्भुत और प्यारे
उनके गीत हे।
कबीर के शब्दों का अर्थ
नहीं करूंगा। शब्द तो
सीधे-सादे है। कबीर को
तो पुनरुज्जीवित करना
होगा। व्याख्या नहीं हो
सकती उनकी। उन्हें
पुनरुज्जीवन दिया जा
सकता है। उन्हें अवसर
दिया जा सकता है। वे
मुझसे बोल सकें। तुम ऐसे ही
सुनना जैसे यह कोई
व्याख्या नहीं है। जैसे
बीसवीं सदी की भाषा में,
पुनर्जन्म है। जैसे कबीर का
फिर आगमन है। और बुद्धि
से मत सुनना। कबीर का
कोई नाता बुद्धि से नहीं।
कबीर तो दीवाने है। और
दीवाने ही केवल उन्हें
समझ पाए और दीवाने ही
केवल समझ पा सकते है।
कबीर मस्तिष्क से नहीं
बोलते है। यह तो ह्रदय
की वीणा की अनुगूँज है।
और तुम्हारे ह्रदय के तारे
भी छू जाएं,तुम भी बज
उठो, तो ही कबीर समझे
जा सकते है।
यह कोई शास्त्रीय,
बौद्धिक आयोजन नहीं है।
कबीर को पीना होता है,
चुस्की-चुस्की। जैसे कोई
शराब पीए, और डूबना
होता है। भूलना होता है
अपने को, मदमस्त होना
होता है। भाषा पर
अटकोगे, चुकोगे; भाव पर
जाओगे तो पहुंच जाओगे।
भाषा तो कबीर की टूटी-
फूटी है। वे पढ़े-लिखे थे।
लेकिन भाव अनूठे है, कि
उपनिषद फीके पड़ें,कि
गीता, कुरान और
बाईबिल भी साथ खड़े
होने की हिम्मत न जुटा
पाएँ। भव पर जाओगे तो….।
भाषा पर अटकोगे तो
कबीर साधारण मालूम
होंगे। कबीर ने कहा भी—
लिखा-लिखी की है नहीं,
देखा-देखी बात। नहीं पढ़
कर कह रहे हे। देखा है आंखों
से। जो नहीं देखा जा
सकता उसे देखा है। और जो
नहीं कहा जा सकता उसे
कहने की कोशिश की है।
बहुत श्रद्धा से ही कबीर
समझे जा सकते है।
शंकराचार्य को समझना
हो, श्रद्धा की ऐसी कोई
जरूरत नहीं। शंकराचार्य
का तर्क प्रबल हे।
नागार्जुन का समझना हो
श्रद्धा की क्या
आवश्यकता, उनके प्रमाण,
उनके विचार,उनके विचार
की अद्भुत तर्क सरणी—
वह प्रभावित करेगी।
कबीर के पास न तर्क है, न
विचार है, न
दर्शनशास्त्र है। शास्त्र
से कबीर का क्या लेना
देना।
कहा कबीर ने—‘’मसि
कागद छुओ नहीं।‘’
कभी छुआ ही नहीं जीवन में
कागज, स्याही से कोई
नाता ही नहीं बनाया।
सीधी-साधी अनुभूति है;
अंगारे है, राख नहीं। राख
को तो तू सम्हाल कर रख
सकते हो। अंगारे को
सम्हालना हो तो श्रद्धा
चाहिए। तो ही पी सकोगे
यह आग। और एक घूंट भी पी
ली तो तुम्हारे भीतर भी
—अग्नि भभक उठे—सोयी
अग्नि जन्मों–जन्मों की।
तुम भी दीए बनों। तुम्हारे
भीतर भी सूरज ऊगे। और
ऐसा हो, तो ही समझना
कि कबीर को समझा, ऐसा
न हो तो समझना कि
कबीर के शब्द पकड़े, शब्दों
की व्याख्या की, शब्दों के
अर्थ जाने; पर वह सब
ऊपर-ऊपर का काम है। जैसे
कोई जमीन को इंच दो इंच
खोदे और सोचे कि कुआँ हो
गया। गहरा खोदना
होगा कंकड़-पत्थर आएँगे।
कुडा-कचरा आएगा।
मिट्टी हटानी होगी।
धीरे-धीरे जल स्त्रोत के
निकट पहुंचोगे।

प्रतिपल होश

प्रेम अंकुरित होगा, तो घृणा भी साथ
—साथ खड़ी है। अब थोड़े सावधान
रहना। पहले तो जब
प्रेम अंकुरित न हुआ था, तब तो तुम घृणा
को ही प्रेम
समझकर जीए थे। अब जब प्रेम अंकुरित हुआ है,
तभी तुम्हें
पहली दफे बोध भी आया है कि घृणा
क्या है। और अब
तुम गिरोगे, तो बहुत पीड़ा होगी।
अहोभाव की थोड़ी बूंदा—बांदी
होगी, तो
शिकायत भी बढ़ने लगेगी। क्योंकि जब
परमात्मा से
मिलने लगेगा, तो तुम और भी मांगने की
आकांक्षा से
भर जाओगे। आज मिलेगा, तो अहोभाव।
कल नहीं
मिलेगा, तो शिकायत शुरू हो जाएगी।
अहोभाव के
साथ—साथ शिकायत की खाई भी
जुड़ी है। सावधान
रहना। अहोभाव को बढ़ने देना और
शिकायत से
सावधान रहना। शिकायत तो बढ़ेगी,
लेकिन तुम उस
खाई में गिरना मत।
खाई के होने का मतलब यह नहीं है कि
गिरना जरूरी है।
शिखर ऊंचा होता जाता है, खाई गहरी
होती जाती
है, इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम्हें खाई में
गिरना ही
पड़ेगा। सिर्फ सावधानी बढ़ानी पड़ेगी।
भिखमंगा
निश्चित सोता है। सम्राट नहीं सो
सकता। भिखमंगे
के पास कुछ चोरी जाने को नहीं है।
सम्राट के पास
बहुत कुछ है। सम्राट को सावधान होकर
सोना पड़ेगा।
थोड़ी सावधानी बरतनी पड़ेगी। तो ही
बचा पाएगा
जो संपदा है, अन्यथा खो जाएगी।
जैसे—जैसे तुम गहरे उतरोगे, वैसे—वैसे तुम्हारी
संपदा
बढ़ती है। उसके खोने का डर भी बढ़ता है;
खोने की
संभावना बढ़ती है।
उसके चोरी जाने का, लुट जाने का अवसर
आएगा।
जरूरी नहीं है कि तुम उसे लुट जाने दो। तुम
उसे बचाना,
तुम सावधान रहना। अड़चन इसलिए आती है
कि तुम तो
सोचते हो कि एक दफा ध्यान उपलब्ध हो
गया,
समाधि उपलब्ध हो गई, तो यह
सावधानी, जागरूकता,
ये सब झंझटें मिटी। फिर निश्चित चादर
ओढ़कर सोएंगे।
इस भूल में मत पड़ना। निश्चित तो हो
जाओगे, लेकिन
असावधान होने की सुविधा कभी भी
नहीं है।
सावधान तो रहना ही पड़ेगा।
सावधानी को स्वभाव
बना लेना है। वह इतनी तुम्हारी जीवन—
दशा हो जाए
कि तुम्हें करना भी न पड़े, वह होती रहे।
सावधान
होना तुम्हारा स्वभाव—सहज प्रक्रिया
हो जाए।
नहीं तो यह अड़चन आएगी। मुझे सुनोगे,
समझ बढ़ेगी,
समझ के साथ—साथ अहंकार भी बढेगा
कि हम समझने
लगे। उससे बचना। उस फंदे में मत पड़ना। पड़े,
समझ कम हो
जाएगी।
बड़ा सूक्ष्म खेल है, बारीक जगत है, नाजुक
यात्रा है।
स्वभावत:, जब समझ आती है, तो मन कहता
है, समझ गए।
तुमने कहा, समझ गए, कि गई समझ, गिरे
खाई में।
क्योंकि समझ गए, यह तो। अहंकार हो
गया। अहंकार
नासमझी का हिस्सा है। जान लिया,
अकड़ आ गई;
अकड़ तो अज्ञान का हिस्सा है। अगर
अकड़ आ गई, तो
जानना उसी वक्त खो गया। बस, तुम्हें
खयाल रह गया
जानने का। जानना खो गया।
ज्ञान तो निरअहंकार है। जहां अहंकार है,
वहां शान
खो जाता है। इसलिए प्रतिपल होश
रखना पड़ेगा।.

Tuesday, July 7, 2015

बच्चों को अंतर्मुखी कैसे बनाया जाए?

Master says....
पहली तो बात यह है कि बच्चों को कैसा बनाया जाए, इसकी बजाय हमेशा यह सोचना चाहिए, खुद को कैसा बनाया जाए। हमेशा हम यह सोचते हैं कि दूसरों को कैसा बनाया जाए। और मैं यह भी आपसे कहूं कि वही व्यक्ति यह पूछता है कि दूसरों को कैसा बनाया जाए, जो खुद ठीक से बनने में असमर्थ रहा है। अगर उसके खुद के व्यक्तित्व का ठीक-ठीक निर्माण हुआ हो, तो जीवन के जिन सूत्रों से उसने खुद को निर्मित किया है, खुद के जीवन में शांति को, स्वयं को पाने की दिशा खोजी है, खुद के जीवन में संगीत पाया है, उन्हीं सूत्रों से, उन्हीं सूत्रों के आधार पर, वह दूसरों के निर्माण के लिए भी अनायास अवसर बन जाता है।

लेकिन हम पूछते हैं कि बच्चों को कैसे बनाया जाए?
इसके पीछे पहली तो बात यह समझ लें कि आपकी बनावट कमजोर होगी, ठीक न होगी। और यह भी समझ लें कि किसी दूसरे को बनाना डायरेक्टली सीधे-सीधे असंभव है। हम जो भी कर पाते हैं दूसरों के लिए, वह बहुत इनडायरेक्ट, बहुत परोक्ष, बहुत पीछे के रास्ते से होता है, सामने के रास्ते से नहीं।

कोई मां अपने बच्चों को बनाना चाहे किसी खास ढंग का-अंतर्मुखी बनाना चाहे, सत्यवादी बनाना चाहे, चरित्रवान बनाना चाहे, परमात्मा की दिशा में ले जाना चाहे-तो इस भूल में कभी न पड़े कि वह सीधे-सीधे बच्चे को परमात्मा की दिशा में ले जा सकती है। क्योंकि जब भी हम किसी व्यक्ति को किसी दिशा में ले जाने लगते हैं, उसका अहंकार, उस व्यक्ति का अहंकार-चाहे वह छोटा बच्चा ही क्यों न हो-हमारे विरोध में खड़ा हो जाता है। क्योंकि दुनिया में कोई भी घसीटा जाना पसंद नहीं करता, छोटा बच्चा भी नहीं करता। जब हम उसे ले जाने लगते हैं कहीं और, कुछ बनाने लगते हैं, तब उसके भीतर उसकी अहंता, उसका अहंकार, उसका अभिमान हमारे विरोध में खड़ा हो जाता है। वह सख्ती से इस बात का विरोध करने लगता है। क्योंकि यह बात उसे आक्रामक, एग्रेसिव मालूम पड़ती है। इसमें आक्रमण है। और इस आक्रमण का वह विरोध करने लगता है। छोटा बच्चा है, जैसे उससे बनता है वह विरोध करता है। जिस-जिस बात के लिए इनकार किया जाता है, वही-वही करने को उत्सुक होता है। जिस-जिस बात से निषेध किया जाता है, वहीं-वहीं जाता है। जिन-जिन रास्तों पर रुकावट डाली जाती है, वे ही रास्ते उसके लिए आकर्षक हो जाते हैं।

फ़्रायड एक बड़ा मनोवैज्ञानिक हुआ। अपनी पत्नी और अपने बच्चे के साथ एक दिन बगीचे में घूमने गया था। जब सांझ को वापस लौटने लगा, अंधेरा घिर गया, तो देखा दोनों ने कि बच्चा कहीं नदारद है। फ़्रायड की पत्नी घबड़ाई, उसने कहा कि बच्चा तो साथ नहीं है, कहां गया? बड़ा बगीचा था मीलों लंबा, अब रात को उसे कहां खोजेंगे?

फ़्रायड ने क्या कहा?

उसने कहा, तुमने उसे कहीं जाने को वर्जित तो नहीं किया था? कहीं जाने को मना तो नहीं किया था?

उसकी स्त्री ने कहा, हां, मैंने मना किया था, फव्वारे पर मत जाना!

तो उसने कहा, सबसे पहले फव्वारे पर चल कर देख लें। सौ में निन्यानबे मौके तो ये हैं कि वह वहीं मिल जाए, एक ही मौका है कि कहीं और हो।

उसकी पत्नी चुप रही। जाकर देखा, वह फव्वारे पर पैर लटकाए हुए बैठा हुआ था। उसकी पत्नी ने पूछा कि यह आपने कैसे जाना?

उसने कहा, यह तो सीधा गणित है। मां-बाप जिन बातों की तरफ जाने से रोकते हैं, वे बातें आकर्षक हो जाती हैं। बच्चा उन बातों को जानने के लिए उत्सुकता से भर जाता है कि जाने। जिन बातों की तरफ मां-बाप ले जाना चाहते हैं, बच्चे की उत्सुकता समाप्त हो जाती है, उसका अहंकार जग जाता है, वह रुकावट डालता है, वह जाना नहीं चाहता। आप यह बात जान कर हैरान होंगी कि इस तथ्य ने आज तक मनुष्य के समाज को जितना नुकसान पहुंचाया है, किसी और ने नहीं। क्योंकि मां-बाप अच्छी बातों की तरफ ले जाना चाहते हैं, बच्चे का अहंकार अच्छी बातों के विरोध में हो जाता है। मां-बाप बुरी बातों से रोकते हैं, बच्चे की जिज्ञासा बुरी बातों की तरफ बढ़ जाती है। मां-बाप इस भांति अपने ही हाथों अपने बच्चों के शत्रु सिद्ध होते हैं।

इसलिए शायद कभी आपको यह खयाल न आया हो कि बहुत अच्छे घरों में बहुत अच्छे बच्चे पैदा नहीं होते। कभी नहीं होते। बहुत बड़े-बड़े लोगों के बच्चे तो बहुत निकम्मे साबित होते हैं। गांधी जैसे बड़े व्यक्ति का एक लड़का शराब पीया, मांस खाया, धर्म परिवर्तित किया। आश्चर्यजनक है! क्या हुआ यह? गांधी ने बहुत कोशिश की उसको अच्छा बनाने की, वह कोशिश दुश्मन बन गई।

तो एक बात तो यह समझ लें कि जिसको भी परिवर्तित करने का खयाल उठे, पहले तो स्वयं का जीवन उस दिशा में परिवर्तित हो जाना चाहिए। तो आपके जीवन की छाया, आपके जीवन का प्रभाव, बहुत अनजान रूप से बच्चे को प्रभावित करता है। आपकी बातें नहीं, आपके उपदेश नहीं। आपके जीवन की छाया बच्चे को परोक्ष रूप से प्रभावित करती है और उसके जीवन में परिवर्तन की बुनियाद बन जाती है।

और दूसरी बात, बच्चे को कभी भी दबाव डाल कर, आग्रह करके किसी अच्छी दिशा में ले जाने की कोशिश मत करना। वही बात अच्छी दिशा में जाने के लिए सबसे बड़ी दीवाल हो जाएगी। और हो भी सकता है, जब तक वह छोटा रहे, आपकी बात मान ले; क्योंकि कमजोर है और आप ताकतवर हैं, आप डरा सकते हैं, धमका सकते हैं, आप हिंसा कर सकते हैं उसके साथ। और यह मत सोचना कभी कि मां-बाप अपने बच्चों के साथ कैसे हिंसा करेंगे! मां-बाप ने इतनी हिंसा की है बच्चों के साथ जिसका कोई हिसाब नहीं है। दिखाई नहीं पड़ती। जब भी हम किसी को दबाते हैं तब हम हिंसा करते हैं। बच्चे के अहंकार को चोट लगती है। लेकिन वह कमजोर है, सहता है। आज नहीं कल जब वह बड़ा हो जाएगा और ताकत उसके हाथ में आएगी, तब तक आप बूढ़े हो जाएंगे, तब आप कमजोर हो जाएंगे, तब वह बदला लेगा। बूढ़े मां-बाप के साथ बच्चों का जो दुर्व्यवहार है उसका कारण मां-बाप ही हैं। बचपन में उन्होंने बच्चों के साथ जो किया है, बुढ़ापे में बच्चे उनके साथ करेंगे।

इसलिए भूल कर भी दबाव मत डालना, भूल कर भी जबरदस्ती मत करना, भूल कर भी हिंसा मत करना। बहुत प्रेम से, अपने जीवन के परिवर्तन से, बहुत शांति से, बहुत सरलता से बच्चे को सुझाना। आदेश मत देना, यह मत कहना कि ऐसा करो। क्योंकि जब भी कोई ऐसा कहता है, ऐसा करो! तभी भीतर यह ध्वनि पैदा होती है सुनने वाले के कि नहीं करेंगे। यह बिलकुल सहज है। उससे यह मत कहना कि ऐसा करो। उससे यही कहना कि मैंने ऐसा किया और आनंद पाया; अगर तुम्हें आनंद पाना हो तो इस दिशा में सोचना। उसे समझाना, उसे सुझाव देना; आदेश नहीं, उपदेश नहीं। उपदेश और आदेश बड़े खतरनाक सिद्ध होते हैं। उपदेश और आदेश बड़े अपमानजनक सिद्ध होते हैं।

छोटे बच्चे का बहुत आदर करना। क्योंकि जिसका हम आदर करते हैं उसको ही केवल हम अपने हृदय के निकट ला पाते हैं। यह हैरानी की बात मालूम पड़ेगी। हम तो चाहते हैं कि छोटे बच्चे बड़ों का आदर करें। हम उनका कैसे आदर करें! लेकिन अगर हम चाहते हैं कि छोटे बच्चे आदर करें मां-बाप का, तो आदर देना पड़ेगा। यह असंभव है कि मां-बाप अनादर दें और बच्चों से आदर पा लें, यह असंभव है। बच्चों को आदर देना जरूरी है और बहुत आदर देना जरूरी है। उगते हुए अंकुर हैं, उगता हुआ सूरज हैं। हम तो व्यर्थ हो गए, हम तो चुक गए। अभी उसमें जीवन का विकास होने को है। वह परमात्मा ने एक नये व्यक्तित्व को भेजा है, वह उभर रहा है। उसके प्रति बहुत सम्मान, बहुत आदर जरूरी है। आदरपूर्वक, प्रेमपूर्वक, खुद के व्यक्तित्व के परिवर्तन के द्वारा उस बच्चे के जीवन को भी परिवर्तित किया जा सकता है।

अंतर्मुखी बनाने के लिए पूछा है। अंतर्मुखी तभी कोई बन सकता है जब भीतर आनंद की ध्वनि गूंजने लगे। हमारा चित्त वहीं चला जाता है जहां आनंद होता है। अभी मैं यहां बोल रहा हूं। अगर कोई वहां एक वीणा बजाने लगे और गीत गाने लगे, तो फिर आपको अपने मन को वहां ले जाना थोड़े ही पड़ेगा, वह चला जाएगा। आप अचानक पाएंगे कि आपका मन मुझे नहीं सुन रहा है, वह वीणा सुनने लगा। मन तो वहां जाता है जहां सुख है, जहां संगीत है, जहां रस है।

बच्चे बहिर्मुखी इसलिए हो जाते हैं कि वे मां-बाप को देखते हैं दौड़ते हुए बाहर की तरफ। एक मां को वे देखते हैं बहुत अच्छे कपड़ों की तरफ दौड़ते हुए, देखते हैं गहनों की तरफ दौड़ते हुए, देखते हैं बड़े मकान की तरफ दौड़ते हुए, देखते हैं बाहर की तरफ दौड़ते हुए। उन बच्चों का भी जीवन बहिर्मुखी हो जाता है।

अगर वे देखें एक मां को आंख बंद किए हुए, और उसके चेहरे पर आनंद झरते हुए देखें, और वे देखें एक मां को प्रेम से भरे हुए, और वे देखें एक मां को छोटे मकान में भी प्रफुल्लित और आनंदित; और वे कभी-कभी देखें कि मां आंख बंद कर लेती है और किसी आनंद के लोक में चली जाती है। वे पूछेंगे कि यह क्या है? कहां चली जाती हो? वे अगर मां को ध्यान में और प्रार्थना में देखें, वे अगर किसी गहरी तल्लीनता में उसे डूबा हुआ देखें, वे अगर उसे बहुत गहरे प्रेम में देखें, तो वे जानना चाहेंगे कि कहां जाती हो? यह खुशी कहां से आती है? यह आंखों में शांति कहां से आती है? यह प्रफुल्लता चेहरे पर कहां से आती है? यह सौंदर्य, यह जीवन कहां से आ रहा है?

वे पूछेंगे, वे जानना चाहेंगे। और वही जानना, वही पूछना, वही जिज्ञासा, फिर उन्हें मार्ग दिया जा सकता है।

तो पहली तो जरूरत है कि अंतर्मुखी होना खुद सीखें। अंतर्मुखी होने का अर्थ है: घड़ी दो घड़ी को चौबीस घंटे के जीवन में सब भांति चुप हो जाएं, मौन हो जाएं। भीतर से आनंद को उठने दें, भीतर से शांति को उठने दें। सब तरह से मौन और शांत होकर घड़ी दो घड़ी को बैठ जाएं।

जो मां-बाप चौबीस घंटे में घंटे दो घंटे को भी मौन होकर नहीं बैठते, उनके बच्चों के जीवन में मौन नहीं हो सकता। जो मां-बाप घंटे दो घंटे को घर में प्रार्थना में लीन नहीं हो जाते हैं, ध्यान में नहीं चले जाते हैं, उनके बच्चे कैसे अंतर्मुखी हो सकेंगे?

बच्चे देखते हैं मां-बाप को कलह करते हुए, द्वंद्व करते हुए, संघर्ष करते हुए, लड़ते हुए, दुर्वचन बोलते हुए। बच्चे देखते हैं, मां-बाप के बीच कोई बहुत गहरा प्रेम का संबंध नहीं देखते, कोई शांति नहीं देखते, कोई आनंद नहीं देखते; उदासी, ऊब, घबड़ाहट, परेशानी देखते हैं। ठीक इसी तरह की जीवन की दिशा उनकी हो जाती है।

बच्चों को बदलना हो तो खुद को बदलना जरूरी है। अगर बच्चों से प्रेम हो तो खुद को बदल लेना एकदम जरूरी है। जब तक आपके कोई बच्चा नहीं था, तब तक आपकी कोई जिम्मेवारी नहीं थी। बच्चा होने के बाद एक अदभुत जिम्मेवारी आपके ऊपर आ गई। एक पूरा जीवन बनेगा या बिगड़ेगा। और वह आप पर निर्भर हो गया। अब आप जो भी करेंगी उसका परिणाम उस बच्चे पर होगा।

अगर वह बच्चा बिगड़ा, अगर वह गलत दिशाओं में गया, अगर दुख और पीड़ा में गया, तो उसका पाप किसके ऊपर होगा? बच्चे को पैदा करना आसान, लेकिन ठीक अर्थों में मां बनना बहुत कठिन है। बच्चे को पैदा करना तो बहुत आसान है। पशु-पक्षी भी करते हैं, मनुष्य भी करते हैं, भीड़ बढ़ती जाती है दुनिया में। लेकिन इस भीड़ से कोई हल नहीं है। मां होना बहुत कठिन है।

अगर दुनिया में कुछ स्त्रियां भी मां हो सकें तो सारी दुनिया दूसरी हो सकती है। मां होने का अर्थ है: इस बात का उत्तरदायित्व कि जिस जीवन को मैंने जन्म दिया है, अब उस जीवन को ऊंचे से ऊंचे स्तरों तक, परमात्मा तक पहुंचाने की दिशा पर ले जाना मेरा कर्तव्य है। और इस कर्तव्य की छाया में मुझे खुद को बदलना होगा। क्योंकि जो व्यक्ति भी दूसरे को बदलना चाहता हो उसे अपने को बदले बिना कोई रास्ता नहीं है।