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Friday, August 26, 2016

🌹❤ विपस्‍सना ध्‍यान की तीन विधियां ❤🌹



🌹❤ विपस्सना  ध्यान ❤🌹

विपस्सना का अर्थ है: अपनी श्वास का निरीक्षण करना,श्वास को देखना। यह योग या प्राणायाम नहीं है। श्वास को लयबद्ध नहीं बनाना है; उसे धीमी या तेज नहीं करना है। विपस्सना तुम्हारी श्वास को जरा भी नहीं बदलती। इसका श्वास के साथ कोई संबंध नहीं है। श्वास को एक उपाय की भांति उपयोग करना है ताकि तुम द्रष्टा हो सको। क्योंकि श्वास तुम्हारे भीतर सतत घटने वाली घटना है।

      अगर तुम अपनी श्वास को देख सको तो विचारों को भी देख सकते हो।

      यह भी बुद्ध का बड़े से बड़ा योगदान है। उन्होंने श्वास और विचार का संबंध खोज लिया।

उन्होंने इस बात को सुस्पष्ट किया कि श्वास और विचार जुड़ हुए है।

      श्वास विचार का शारीरिक हिस्सा है और विचार शरीर का मानसिक हिस्सा है। वह एक ही सिक्के के दो पहलु है। बुद्ध पहले व्यक्ति है जो शरीर और मन की एक इकाई की तरह बात करते है। उन्होंने पहली बार कहा है कि मनुष्य एक साइकोसोमैटिक, मन:शारिरिक घटना है।

🌹❤ विपस्सना ध्यान की तीन विधियां ❤🌹

विपस्सना ध्यान को तीन प्रकार से किया जो सकता है—तुम्हें कौन सी विधि सबसे ठीक बैठती है, इसका तुम चुनाव कर सकते हो।

🌹🌹 पहली विधि 🌹🌹

अपने कृत्यों, अपने शरीर, अपने मन, अपने ह्रदय के प्रति सजगता। चलो, तो होश के साथ चलो, हाथ हिलाओ तो होश से हिलाओ,यह जानते हुए कि तुम हाथ हिला रहे हो। तुम उसे बिना होश के यंत्र की भांति भी हिला सकेत हो। तुम सुबह सैर पर निकलते हो; तुम अपने पैरों के प्रति सजग हुए बिना भी चल सकते हो।

      अपने शरीर की गतिविधियों के प्रति सजग रहो। खाते समय,उन गतिविधियों के प्रति सजग रहो जो खाने के लिए जरूर होती है। नहाते समय जो शीतलता तुम्हें मिल रही है। जो पानी तुम पर गिर रहा है। और जो अपूर्व आनंद उससे मिल रहा है उस सब के प्रति सजग रहो—बस सजग हो रहो। यह जागरूकता की दशा में नहीं होना चाहिए।

      और तुम्हारे मन के विषय में भी ऐसा ही है। तुम्हारे मन के परदे पर जो भी विचार गूजरें बस उसके द्रष्टा बने रहो। तुम्हारे ह्रदय के परदे पर से जो भी भाव गूजरें, बस साक्षी बने रहो। उसमें उलझों मत। उससे तादात्म्य मत बनाओ, मूल्यांकन मत करो कि क्या अच्छा है, क्या बुरा है; वह तुम्हारे ध्यान का अंग नहीं है।

🌹🌹 दूसरी विधि  🌹🌹


दूसरी विधि है श्वास की; अपनी श्वास के प्रति सजग होना। जैसे ही श्वास भीतर जाती है तुम्हारा पेट ऊपर उठने लगता है, और जब श्वास बहार जाती है तो पेट फिर से नीचे बैठने लगता है। तो दूसरी विधि है पेट के प्रति—उसके उठने और गिरने के प्रति सजग हो जाना। पेट के उठने और गिरने का बोध हो......ओर पेट जीवन स्त्रोत के सबसे निकट है। क्योंकि बच्चा पेट में मां की नाभि से जूड़ा होता है। नाभि के पीछे उसके जीवन को स्त्रोत है। तो जब तुम्हारा पेट उठता है,तो यह वास्तव में जीवन ऊर्जा हे, जीवन की धारा है जो हर श्वास के साथ ऊपर उठ रही है। और नीचे गिर रही है। यह विधि कठिन नहीं है। शायद ज्यादा सरल है। क्योंकि यह एक सीधी विधि हे।

      पहली विधि में तुम्हें अपने शरीर के प्रति सजग होना है,अपने मन के प्रति सजग होना है। अपने भावों, भाव दशाओं के प्रति सजग होना है। तो इसमें तीन चरण हे। दूसरी विधि में एक ही चरण है। बस पेट ऊपर और नीचे जा रहा है। और परिणाम एक ही है। जैसे-जैसे तुम पेट के प्रति सजग होते जाते हो, मन शांत हो जाता है, ह्रदय शांत हो जाता है। भाव दशाएं मिट जाती है।

🌹🌹 तीसरी विधि. 🌹🌹

जब श्वास भीतर प्रवेश करने लगे, जब श्वास तुम्हारे नासापुटों से भीतर जाने लगे तभी उसके पति सजग हो जाना है।

      उस दूसरी अति पर उसे अनुभव करो—पेट से दूसरी अति पर—नासापुट पर श्वास का स्पर्श अनुभव करो। भीतर जाती हई श्वास तुम्हारे नासापुटों को एक प्रकार की शीतलता देती है। फिर श्वास बाहर जाती है.....श्वास भीतर आई, श्वास बहार गई।

      ये तीन ढंग हे। कोई भी एक काम देगा। और यदि तुम दो विधियां एक साथ करना चाहों तो दो विधियां एक साथ कर सकते हो। फिर प्रयास ओर सधन हो जाएगा। यदि तुम तीनों विधियों को एक साथ करना चाहो, तो तीनों विधियों को एक साथ कर सकते हो। फिर संभावनाएं तीव्र तर होंगी। लेकिन यह सब तुम पर निर्भर करता है—जो भी तुम्हें सरल लगे।

स्मरण रखो: जो सरल है वह सही है।

🌹🌹सरल विधि. 🌹🌹

विपस्सना ध्यान की सरलतम विधि है। बुद्ध विपस्सना के द्वारा ही बुद्धत्व को उपलब्ध हुए थे। और विपस्सना के द्वारा जितने लोग उपलब्ध हुए हे उतने और किसी विधि से नहीं हुए। विपस्सना विधियों की विधि है। और बहुत सी विधियां है लेकिन उनसे बहुत कम लोगों को मदद मिली है। विपस्सना से हजारों लोगों की सहायता हुई है।

      यह बहुत सरल विधि है। यह योग की भांति नहीं है। योग कठिन है, दूभर है, जटिल है। तुम्हें कई प्रकार से खूद को सताना पड़ता है। लेकिन योग मन को आकर्षित करता हे। विपस्सना इतनी सरल है कि उस और तुम्हारा ध्यान ही नहीं जाता। विपस्सना को पहली बार देखोगें तो तुम्हें शक पैदा होगा, इसे ध्यान कहें या नहीं। न कोई आसन है, न प्राणायाम है। बिलकुल सरल घटना—सांस आ रही है, जा रही है, उसे देखना बस इतना ही।

      श्वास-उच्छवास बिलकुल सरल हों, उनमें सिर्फ एक तत्व जोड़ना है: होश, होश के प्रविष्ट होते ही सारे चमत्कार घटते है।                                           
                                        
            
        🌹🌹🌹🙏🌹🌹🌹

Sunday, August 21, 2016

ध्यान छूटछूट जाता है



मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते है कि ध्यान करते हैं, छूटछूट जाता है; दो दिन चलता है, फिर बंद हो जाता है। ऐसा वासना के साथ नहीं होता। ऐसा क्रोध के साथ नहीं होता। तुम कभी भूलकर भी छोड़ नहीं पाते। उसे तुम पक्के ही रहते हो। मामला क्या है? ध्यान कर करके छूट जाता है; दो दिन करके फिर भूल जाते है। फिर चार छह महीने में याद आती है। प्रार्थना कर करके छूट जाती है; और, क्रोध और लोभ और काम और मोह?

 एक तथ्य को समझने की कोशिश करो: क्योंकि, ध्यान तुम्हें करना पड़ता है, इसलिए छूट छूट जाता है। वे बीज है जो बोने पड़ते है; उन्हें सम्हालना पड़ेगा और यह सब कचरा अपने आप उगता है। जो भी अपने आप चल रहा है, उसे व्यर्थ समझना और जब तक तुम उसी में जीते रहोगे, तब तक तुम्हें कुछ भी न मिलेगा। मौत के समय तुम पाओगे कि तुम खाली हाथ आये और खाली हाथ जा रहे हो। और, यह अविवेक ही माया है। यह मूर्च्छा है यह भेद न कर पाना कि क्या सार्थक है, क्या व्यर्थ है।

शिव ने सार्थक और व्यर्थ के विवेक को भी ज्ञान कहा है: जीवन में यह दिखाई पड़ जाये कि यह सार्थक और यह व्यर्थ। वहां दोनों हैं वहां घास पात भी है और फूल के पौधे भी हैं। तुम्हें ही अपने जीवन के अनुभव से तय करना पड़ेगा कि क्या सार्थक है। सार्थक पर दृष्टि आ जाये तो ब्रह्म पर दृष्टि आ गई और व्यर्थ पर दृष्टि लगी रहे तो माया में भटकन है।

न तुम्हें पता है कि तुम कौन हो; न तुम्हें पता है कि तुम किस दिशा में जा रहे हो; न तुम्हें पता है कि तुम कहां से आ रहे हो, तुम बस रास्ते के किनारे के कचरे से उलझे हुए हो। राह के किनारे को तुम ने घर बना लिया है। और, इतनी चिंताओं से तुम भरे हो इस व्यर्थ के कचरे के कारण, जो तुम्हारे बिना ही उगता रहा है। तुम्हें इस संबंध में चिंतित होने का कोई भी प्रयोजन नहीं।

अविवेक माया है। 
अविवेक का अर्थ है. भेद न कर पाना, डिसक्रिमिनेशन का अभाव, यह तय न कर पाना कि क्या हीरा है और क्या पत्थर है। जीवन के जौहरी बनना होगा। जीवन के जौहरी बनने से ही विवेक पैदा होता है।

#'शिवसूत्र

विश्रांति के चार तल यह विशेष ध्यान विधि उन घड़ियों के लिये उपयोगी है जब आप बीमार होते हैं


यह आपके तथा आप के देह -मन के बीच एक प्रेमपूर्ण सूत्र स्थापित करने में तथा सौहार्द्र् पैदा करने में सहायक होती है। तब अपनी उपचार -प्रक्रिया में आपका योगदान सक्रिय होने लगता है।
पहला चरण: देह
"जितनी बार हो सके, स्मरण रखें और देखें कि कहीं आप अपनी देह के भीतर कोई तनाव तो नहीं लिये चल रहे- गर्दन, सिर, टांगें... इसे होशपूर्व शिथिल करते जायें। शरीर के उसी अंग पर जायें और उसी अंग को सहलायें, इसे प्रेमपूर्वक कहें ‘शांत हो जाओ!’
आप हैरान हो जाएंगे कि यदि आप अपने शरीर के किसी हिस्से को संबोधित करते हो तो यह सुनता है, यह आपकी बात मानता है–यह आपका शरीर है! आंखें बंद करके पैर के अंगूठे से लेकर सिर तक शरीर के भीतर जायें - उस स्थान को ढूंढते-ढूंढते -- जहाँ पर तनाव हो। और फिर उस अंग से इस प्रकार बात करें जैसे किसी मित्र से करते हों; अपने तथा अपने पूरे शरीर के बीच संवाद होने दें। इसे शिथिल होने को कहें और इसे बतायें, ´कहीं कोई डर जैसी बात नहीं। घबराओ मत। मैं हूं यहां - तुम्हारी देख -भाल के लिये, तुम विश्रांत हो सकते हो।´ धीरे-धीरे आपको इसका गुर आ जायेगा। और तब शरीर विश्रांत हो जाता है।"
दूसरा चरण: मन
“फिर दूसरा चरण है, थोड़ा और गहरा; मन को शांत होनें दें और अगर शरीर सुन सकता है तो मन भी सुनता है। परंतु आप मन से शुरुआत नहीं कर सकते। आपको शुरुआत से शुरु करना होगा। आप मध्य से नहीं शुरु कर सकते। अधिकतर लोग मध्य से शुरु करते हैं और असफल रहते हैं; वे इसलिये असफल रहते हैं क्योंकि वे गलत जगह से शुरु करते हैं। हर चीज़ को सही दिशा में करना चाहिये।
अगर आप होशपूर्वक शरीर को विश्रांत करने में सक्षम हो जाते हैं तो आप मन को भी होशपूर्वक विश्रांत करने में सफल होगें। मन ज़रा अधिक पेचीदा घटना है। एक बार आपको आत्मविश्वास हो जाये कि शरीर आपकी सुनता है तो आपको अपने ऊपर नया भरोसा आयेगा। अब तो मन भी आपकी सुनने लगेगा - इसमें समय लग सकता है परंतु ऐसा घटता है।”
तीसरा चरण: हृदय
“जब मन शांत होने लगे तो हृदय को शांत करना शुरु करें-हृदय, जो तुम्हारी संवेदनाओं, तुम्हारी भावनाओं का जगत है, जो और भी जटिल है, और भी अधिक सूक्ष्म है। अब आप श्रद्धापूर्वक आगे बढ़ते हैं, अपने प्रति अति श्रद्धापूर्ण। अब तुम जान जाओगे कि यह संभव है। यदि यह शरीर के साथ संभव है, मन के साथ संभव है तो हृदय के साथ भी संभव है।”
चौथा चरण: केंद्र
“तब इन तीन चरणों से गुज़र कर आप चौथे चरण में प्रवेश कर सकते हैं। अब आप अपने अंतस के अंतरतम केंद्र बिंदु तक जा सकते हैं जो आपके शरीर, मन व हृदय के भी पार है - आपके अंतस का केंद्र।
आप इसे भी शांत करने में सफल होंगे और यह विश्रांति निस्संदेह आपके लिये सबसे अधिक आनंद लाती है, और जो आनंदातिरेक तथा समग्र-स्वीकार का शिखर है। आप आनंद तथा आल्हाद से भर जायेंगे। आपके जीवन में नृत्य की गुणवत्ता आ जायेगी।”

Monday, December 28, 2015

ध्यान विज्ञान



जो लोग शरीर के तल पर ज्यादा संवेदनशील हैं, उनके लिए ऐसी विधियां हैं जो शरीर के माध्यम से ही आत्यंतिक अनुभव पर पहुंचा सकती हैं। जो भाव-प्रवण हैं, भावुक प्रकृति के हैं, वे भक्ति-प्रार्थना के मार्ग पर चल सकते हैं। जो बुद्धि-प्रवण हैं, बुद्धिजीवी हैं, उनके लिए ध्यान, सजगता, साक्षीभाव उपयोगी हो सकते हैं।

लेकिन मेरी ध्यान की विधियां एक प्रकार से अलग हट कर हैं। मैंने ऐसी ध्यान-विधियों की संरचना की है जो तीनों प्रकार के लोगों द्वारा उपयोग में लाई जा सकती हैं। उनमें शरीर का भी पूरा उपयोग है, भाव का भी पूरा उपयोग है और होश का भी पूरा उपयोग है। तीनों का एक साथ उपयोग है और वे अलग-अलग लोगों पर अलग-अलग ढंग से काम करती हैं। शरीर, हृदय, मन—मेरी सभी ध्यान विधियां इसी श्र्ृंखला में काम करती हैं। वे शरीर पर शुरू होती हैं, वे हृदय से गुजरती हैं, वे मन पर पहुंचती हैं और फिर वे मनातीत में अतिक्रमण कर जाती हैं।
ओशो

विषय सूची

सुबह के समय करने वाली ध्यान विधियां

1 सूर्योदय की प्रतीक्षा
2 उगते सूरज की प्रशंसा में
3 सक्रिय ध्यान
4 मंडल
5 तकिया पीटना
6 कुत्ते की तरह हांफना
7 नटराज
8 इस क्षण में जीना
9 स्टॉप
10 कार्य -- ध्यान की तरह
11 सृजन में डूब जाएं
12 गैर-यांत्रिक होना ही रहस्य है
13 साधारण चाय का आनंद
14 शांत प्रतीक्षा
15 कभी, अचानक ऐसे हो जाएं जैसे नहीं हैं
16 मैं यह नहीं हूं
17 अपने विचार लिखना
18 विनोदी चेहरे
19 पृथ्वी से संपर्क
20 श्वास को शिथिल करो
21 इस व्यक्ति को शांति मिले
22 तनाव विधि
23 विपरीत पर विचार
24 अद्वैत
25 हां का अनुसरण
26 वृक्ष से मैत्री
27 क्या तुम यहां हो?
28 निष्क्रिय ध्यान
29 आंधी के बाद की निस्तब्धता
30 निश्चल ध्यानयोग

दिन के समय करने वाली ध्यान विधियां

31 स्वप्न में सचेतन प्रवेश
32 यौन-मुद्रा : काम-ऊर्जा के ऊर्ध्वगमन की एक सरल विधि
33 मूलबंध : ब्रह्मचर्य-उपलब्धि की सरलतम विधि
34 कल्पना-भोग
35 मैत्री : प्रभु-मंदिर का द्वार
36 शांति-सूत्र : नियति की स्वीकृति
37 मौन और एकांत में इक्कीस दिवसीय प्रयोग
38 प्राण-साधना
39 मंत्र-साधना
40 अंतर्वाणी साधना
41 संयम साधना-1
42 संयम साधना-2
43 संतुलन ध्यान-1
44 संतुलन ध्यान-2
45 श्रेष्ठतम क्षण का ध्यान
46 मैं-तू ध्यान
47 इंद्रियों को थका डालें

दोपहर के समय करने वाली ध्यान विधियां

48 श्वास : सबसे गहरा मंत्र
49 भीतरी आकाश का अंतरिक्ष-यात्री
50 आकाश सा विराट एवं अणु सा छोटा
51 एक का अनुभव
52 आंतरिक मुस्कान
53 ओशो
54 देखना ही ध्यान है
55 शब्दों के बिना देखना
56 मौन का रंग
57 सिरदर्द को देखना
58 ऊर्जा का स्तंभ
59 गर्भ की शांति

संध्या के समय करने वाली ध्यान विधियां

60 कुंडलिनी
61 झूमना
62 सामूहिक नृत्य
63 वृक्ष के समान नृत्य
64 हाथों से नृत्य
65 सूक्ष्म पर्तों को जगाना
66 गीत गाओ
67 गुंजन
68 नादब्रह्म
69 स्त्री-पुरुष जोड़ों के लिए नादब्रह्म
70 कीर्तन
71 सामूहिक प्रार्थना
72 मुर्दे की भांति हो जाएं
73 अग्निशिखा

रात के समय करने वाली ध्यान विधियां

74 प्रकाश पर ध्यान
75 बुद्धत्व का अवलोकन
76 तारे का भीतर प्रवेश
77 चंद्र ध्यान
78 ब्रह्मांड के भाव में सोने जाएं
79 सब काल्पनिक है
80 ध्यान के भीतर ध्यान
81 पशु हो जाएं
82 नकारात्मक हो जाएं
83 हां, हां, हां
84 एक छोटा, तीव्र कंपन
85 अपने कवच उतार दो
86 जीवन और मृत्यु ध्यान
87 बच्चे की दूध की बोतल
88 भय में प्रवेश
89 अपनी शून्यता में प्रवेश
90 गर्भ में वापस लौटना
91 आवाजें निकालना
92 प्रार्थना
93 लातिहान
94 गौरीशंकर
95 देववाणी
96 प्रेम
97 झूठे प्रेम खो जाएंगे
98 प्रेम को फैलाएं
99 प्रेमी-युगल एक-दूसरे में घुलें-मिलें
100 प्रेम के प्रति समर्पण
101 प्रेम-कृत्य को अपने आप होने दो
102 कृत्यों में साक्षी-भाव
103 बहना, मिटना, तथाता
104 अंधकार, अकेले होने, और मिटने का बोध
105 स्वेच्छा से मृत्यु में प्रवेश
106 सजग मृत्यु और शरीर से अलग होने की विधि
107 मृतवत हो जाना
108 जाति-स्मरण के प्रयोग
109 अंतर्प्रकाश साधना
110 शिवनेत्र
111 त्राटक -- एकटक देखने की विधि
112 त्राटक ध्यान-1
113 त्राटक ध्यान-2
114 त्राटक ध्यान-3
115 रात्रि-ध्यान

Wednesday, December 9, 2015

तुम ध्यान करो मत,ध्यान में हो जाओ....


....................................................
बुद्ध कहते है कि जीवन है, जीवन की प्रक्रिया है, लेकिन भीतर कोई भी नहीं है जो जीवंत है। और फिर मृत्यु होती है। लेकिन कोई मरता नहीं है। बुद्ध के लिए तुम बंटे हुए नहीं हो। भाषा द्वौत निर्मित करती है। मैं बोल रहा हूं। ऐसा लगता है कि मैं कोई हूं जो बोल रहा है। लेकिन बुद्ध कहते है कि केवल बोलना हो रहा है। बोलने वाला कोई नहीं है। यह एक प्रक्रिया है। जो किसी से संबंधित नहीं है।
लेकिन हमारे लिए यह कठिन है। क्योंकि हमारा मन द्वैत में गहरा जमा हुआ है। हम जब भी किसी क्रिया की बात सोचते है तो हम भीतर किसी कर्ता के बारे में सोचते है। यही कारण है कि ध्यान के लिए कोई शांत, निष्क्रिय मुद्रा अच्छी है क्योंकि तब तुम खालीपन में अधिक सरलता से उतर सकते हो।
बुद्ध कहते है, ‘ध्यान करो मत, ध्यान में होओ।’
अंतर बड़ा है। मैं दोहराता हूं, बुद्ध कहते है, ध्यान करो मत, ध्यान में होओ।‘ क्योंकि यदि तुम ध्यान करते हो तो कर्ता बीच में आ गया। तुम यही सोचते रहोगे कि तुम ध्यान कर रहे हो। तब ध्यान एक कृत्य बन गया। बुद्ध कहते है, ध्यान में होओ। इसका अर्थ है पूरी तरह निष्क्रिय हो जाओ। कुछ भी मत करो। मत सोचो कि कहीं कोई कर्ता है।
ओशो

हंसी ध्यान

हंसना कुछ ऊर्जा तुम्हारे अंतर्केंद्र से परिधि पर ले आती है। ऊर्जा हंसने के पीछे छाया की भांति बहने लगती है। तुमने कभी इस पर ध्यान दिया? जब तुम वास्तव में हंसते हो, तो उन थोड़े से क्षणों के लिए तुम एक गहन ध्यानपूर्ण अवस्था में होते हो। विचार प्रक्रिया रुक जाती है। हंसने के साथ-साथ विचार करना असंभव है। वे दोनों बातें बिलकुल विपरीत हैं: या तो तुम हंस सकते हो, या विचार ही कर सकते हो। यदि तुम वास्तव में हंसो तो विचार रुक जाता है। यदि तुम अभी भी विचार कर रहे हो तो तुम्हारा हंसना थोथा और कमजोर होगा। वह हंसी अपंग होगी।

जब तुम वास्तव में हंसते हो, तो अचानक मन विलीन हो जाता है। जहां तक मैं जानता हूं, नाचना और हंसना सर्वोत्तम, स्वाभाविक व सुगम द्वार हैं। यदि सच में ही तुम नाचो, तो सोच-विचार रुक जाता है। तुम नाचते जाते हो, घूमते जाते हो, और एक भंवर बन जाते हो--सब सीमाएं, सब विभाजन समाप्त हो जाते हैं। तुम्हें इतना भी पता नहीं रहता कि कहां तुम्हारा शरीर समाप्त होता है और कहां अस्तित्व शुरू होता है। तुम अस्तित्व में पिघल जाते हो और अस्तित्व तुममें पिघल आता है; सीमाएं एक-दूसरे में प्रवाहित हो जाती हैं। और यदि तुम सच ही नाच रहे हो--उसे नियंत्रित नहीं कर रहे बल्कि उसे स्वयं को नियंत्रित कर लेने दे रहे हो, स्वयं को वशीभूत कर लेने दे रहे हो--यदि तुम नृत्य से वशीभूत हो जाओ, तो सोच-विचार रुक जाता है।

हंसने के साथ भी ऐसा ही होता है। यदि तुम हंसी से आविष्ट और आच्छादित हो जाओ तो सोच-विचार रुक जाता है।

निर्विचार की दशा के लिए हंसना एक सुंदर भूमिका बन सकती है।

हंसी ध्यान के लिए निर्देश
हर सुबह जब जागें, तो अपनी आंखें खोलने से पहले, शरीर को बिल्ली की तरह तानें। तीन या चार मिनट बाद, आंखें बंद रखे हुए ही, हंसना शुरू करें। पांच मिनट के लिए बस हंसें ही। पहले-पहले तो आप इसे सप्रयास करेंगे, लेकिन शीघ्र ही आपके प्रयास से पैदा की गई ध्वनि प्रामाणिक हंसी को जगा देगी। स्वयं को हंसी में खो दें। शायद इस घटना को वास्तव में घटने में कई दिन लग जाएं, क्योंकि हम इससे बहुत अपरिचित हैं। परंतु शीघ्र ही यह सहज हो जाएगा और आपके पूरे दिन का गुण ही बदल जाएगा।

हंसते हुए बुद्ध
जापान में हंसते हुए बुद्ध, होतेई की एक कहानी है। उसकी पूरी देशना ही बस हंसना थी। वह एक स्थान से दूसरे स्थान, एक बाजार से दूसरे बाजार घूमता रहता। वह बाजार के बीचों-बीच खड़ा हो जाता और हंसने लगता--यही उसका प्रवचन था।
उसकी हंसी सम्मोहक थी, संक्रामक थी--एक वास्तविक हंसी, जिससे पूरा पेट स्पंदित हो जाता, तरंगायित हो जाता। वह हंसते-हंसते जमीन पर लोटने लगता। जो लोग जमा होते, वे भी हंसने लगते, और फिर तो हंसी फैल जाती, हंसी की तूफानी लहरें उठतीं, और पूरा गांव हंसी से आप्लावित हो जाता।

लोग राह देखते कि कब होतेई उनके गांव में आए, क्योंकि वह अद्भुत आनंद और आशीष लेकर आता था। उसने कभी भी एक शब्द नहीं बोला--कभी भी नहीं। तुम बुद्ध के बारे में पूछो और वह हंसने लगता; तुम बुद्धत्व के बारे में पूछो और वह हंसने लगता; तुम सत्य के बारे में पूछते कि वह हंसने लगता। हंसना ही उसका एकमात्र संदेश था।

Monday, December 7, 2015

तीसरी आँख को विकसित करने लिए कुछ महत्‍वपूर्ण ध्‍यान



 पंख की भांति छूना ध्यान


शिव ने कहा: आँख की पुतलियों को पंख की भांति छूने से उसके बीच का हलका पन ह्रदय में खुलता है।

 

ओशो--अपनी दोनों हथेलियों का उपयोग करो, उन्हें अपनी बंद आँखो पर रखो, और हथेलियों को पुतलियों पर छू जाने दो—लेकिन पंख के जैसे, बिना कोई दबाव डाले। यदि दबाव डाला तो तुम चूक गए, तुम पूरी विधि से ही चूक गए। दबाव मत डालों; बस पंख की भांति छुओ। तुम्हें थोड़ा समायोजन करना होगा क्योंकि शुरू में तो तुम दबाब डालोगे। दबाव का कम से कम करते जाओ जब तक कि दबाब बिलकुल समाप्त न हो जाए—बस तुम्हारी हथैलियां पुतलियों को छुएँ। बस एक स्पर्श, बाना दबाव का एक मिलन क्योंकि यदि दबाव रहा तो यह विधि कार्य नहीं करेगी। तो बस एक पंख की भांति।

 


      क्यों?—क्योंकि जहां सुई का काम हो वहां तलवार कुछ भी नहीं कर सकती। यदि तुमने दबाव डाला, तो उसका गुणधर्म बदल गया—तुम आक्रामक हो गए। और जो ऊर्जा आंखों से बह रहा है वह बहुत सूक्ष्म है: थोड़ा सा दबाव, और वह संघर्ष करने लगती है जिससे एक प्रतिरोध पैदा हो जाता है। यदि तुम दबाव डालोगे तो जो ऊर्जा आंखों से बह रही है वह एक प्रतिरोध, एक लड़ाई शुरू कर देगी। एक संघर्ष छिड़ जाएगा। इसलिए दबाव मत डालों आंखों की ऊर्जा को थोड़े से दबाव का भी पता चल जाता है।

 

      वह ऊर्जा बहुत सूक्ष्म है, बहुत कोमल है। दबाव मत डालों—बस पंख की भांति, तुम्हारी हथैलियां ही छुएँ, जैसे कि स्पर्श हो ही न रहा हो। स्पर्श ऐसे करो जैसे कि वह स्पर्श ने हो, दबाव जरा भी न हो; बस एक स्पर्श, एक हलका-सा एहसास कि हथेली पुतली को छू रही है, बस।

 

      इससे क्या होगा? जब तुम बिना दबाव डाले हलके से छूते हो तो ऊर्जा भीतर की और जाने लगती है। यदि तुम दबाव डालों तो वह हाथ के साथ, हथेली के साथ लड़ने लगती है। और बहार निकल जाती है। हल्का-सा स्पर्श, और ऊर्जा भीतर जाने लगती है। द्वार बंद हो जाता है। बस द्वार बंद होता है और ऊर्जा वास लौट पड़ती है। जिस क्षण ऊर्जा वापस लौटती है, तुम आपने चेहरे और सिर पर एक हलकापन व्याप्त होता अनुभव करोगे। यह वापस लौटती ऊर्जा तुम्हें हल्का कर देती है।

 

      और इन दोनों आंखों के बीच में तीसरी आंख, प्रज्ञा-चक्षु है। ठीक दोनों आंखों के मध्य में तीसरी आँख है। आँखो से वापस लोटती ऊर्जा तीसरी आँख से टकराती है। यहीं कारण है कि व्यक्ति हल्का और जमीन से उठता हुआ अनुभव करता है। जैसे कि कोई गुरुत्वाकर्षण न रहा हो। और तीसरी आँख से ऊर्जा ह्रदय पर बरस जाती है; यह एक शारीरिक प्रक्रिया है: बूंद-बूंद करके ऊर्जा टपकती है। और तुम अत्यंत हल्कापन अपने ह्रदय में प्रवेश करता अनुभव करोगे। ह्रदय गति कम हो जाएगी। श्वास धीमी हो जाएगी। तुम्हारा पूरा शरीर विश्रांत अनुभव करेगा।

 

      यदि तुम गहन ध्यान में प्रवेश नहीं भी कर रहे हो, तो भी यह प्रयोग तुम्हें शारीरिक रूप से उपयोगी होगा। दिन में किसी भी समय, आराम से कुर्सी पर बैठ जाओ—या तुम्हारे पास यदि कुर्सी न हो, जब तुम रेलगाड़ी में सफर कर रहे हों—तो अपनी आंखें बंद कर लो। पूरे शरीर में एक विश्रांति अनुभव करो। और फिर दोनों हथेलियों को अपनी आंखों पर रख लो। लेकिन दबाव मत डालों—यह बड़ी महत्वपूर्ण बात है। बस पंख की भांति छुओ।

 

      जब तुम स्पर्श करो और दबाव न डालों, तो तुम्हारे विचार तत्क्षण रूक जाएंगे। विश्रांत मन में विचार नहीं चल सकते। वे जम जाते है। विचारों को उन्माद और बुखार की जरूरत होती है। उनके चलने के लिए तनाव की जरूरत होती है। वे तनाव के सहारे ही जीते है। जब आंखें शांत व शिथिल हों और ऊर्जा पीछे लौटने लगे तो विचार रूक जायेंगे। तुम्हें एक मस्ती का अनुभव होगा। जो रोज-रोज गहराता जाएगा।

 

      तो इस प्रयोग को दिन में कई बार करो। एक क्षण के लिए छूना भी अच्छा रहेगा। जब भी तुम्हारी आंखे थकी हुई ऊर्जा विहीन और चुकी हुई महसूस करें—पढ़कर, फिल्म देखकर, या टेलिविजन देखकर। जब भी तुम्हें ऐसा लगे, अपनी आंखे बंद कर लो। और स्पर्श करो मोर पंखी। तत्क्षण प्रभाव होगा। लेकिन यदि तुम इसे एक ध्यान बनाना चाहते हो तो इसे कम से कम चालीस मिनट के लिए करो। और पूरी बात यही है कि दबाव नहीं डालना। एक क्षण के लिए तो पंख जैसा स्पर्श सरल है; चालीस मिनट के लिए कठिन है। कई बार तुम भूल जाओगे और दबाव डालने लगोगे।

 

      दबाव मत डालों। चालीस मिनट के लिए वह बोध बनाए रहो कि तुम्हारे हाथों में कोई बोझ नहीं है। वे बस स्पर्श कर रहे है। यह बोध बनाए रहो कि वे दबाव नहीं डाल रहे है, बस स्पर्श कर रहे है। यह एक गहन बोध बन जाएगा। बिलकुल ऐसे जैसे श्वास-प्रश्वास। जैसे बुद्ध कहते है कि पूरे जाग कर श्वास लो। ऐसा ही स्पर्श के साथ भी होगा। तुम्हें सतत स्मरण रखना होगा कि तुम दबाव नहीं डाल रहे। तुम्हारा हाथ बस एक पंख, एक भारहीन वस्तु बन जाना चाहिए। जो बस छुए। तुम्हारा चित समग्ररतः: सचेत होकर वहां आंखों के पास लगा रहेगा। और ऊर्जा सतत बहती रहेगी। शुरू में तो वह बूंद-बूंद करके ही टपकेगी। कुछ ही महीनों में तुम्हें लगेगा वह सरिता सी हो गई है, और एक साल बीतते-बीतते तुम्हें लगेगा कि वह एक बाढ़ की तरह हो गई है। और जब ऐसा होता है—‘’आँख की पुतलियाँ को पंख की भांति छूने से उनके बीच का हलकापन...।‘’ जब तुम स्पर्श करोगे तो तुम्हें हलकापन महसूस कर सकते हो। जैसे की तुम स्पर्श करते हो, तत्क्षण एक हलकापन आ जाता है। और वह ‘’उनके बीच का हलकापन ह्रदय में खुलता है।‘’...वह हलकापन ह्रदय में प्रवेश कर जाता है, खुल जाता है। ह्रदय में केवल हलकापन ही प्रवेश कर सकता है। कोई भी बोझिल चीज प्रवेश नहीं कर सकती है। ह्रदय के साथ बहुत हल्की फुलकी घटनाएं ही घट सकती है।

 

      दोनों आंखों के बीच का यह हलकापन ह्रदय में टपकने लगेगा। और ह्रदय उसको ग्रहण करने के लिए खुल जाएगा—‘’और वहां ब्रह्मांड व्याप जाता है।‘’ और जैसे-जैसे यह बहती ऊर्जा पहले एक धारा, फिर एक सरिता और फिर एक बाढ़ बनती है तुम पूरी तरह बह जाओगे, दूर बह जाओगे। तुम्हें लगेगा ही नहीं कि तुम हो। तुम्हें लगेगा कि बस ब्रह्मांड ही है। श्वास लेते हुए, श्वास छोड़ते हुए तुम्हें ऐसा ही लगेगा। कि तुम ब्रह्मांड बन गए हो। ब्रह्मांड भीतर आता है और ब्रह्मांड बाहर जाता है। वह इकाई जो तुम सदा बने रहे—अहंकार—वह नहीं बचता।

Sunday, December 6, 2015

● ध्यान के लिए उचित स्थान ●


अगर ध्यान के लिए एक नियत जगह चुन सकें- एक छोटा सा मंदिर,
घर में एक छोटा सा कोना, एक ध्यान-कक्ष- तो सर्वोत्तम है। फिर
उस जगह का किसी और काम के लिए उपयोग न करें।
क्योंकि हर काम की अपनी तरंगें
होती हैं। उस जगह का उपयोग सिर्फ ध्यान के लिए
करें और किसी काम के लिए उसका उपयोग न करें। तो वह
जगह चार्ज्ड हो जाएगी और रोज
हमारी प्रतीक्षा करेगी। वह
जगह बहुत सहयोगी हो जाएगी।
वहां एक वातावरण निर्मित हो जाएगा, एक तरंग निर्मित
हो जाएगी, जिसमें हम सरलता से ध्यान में गहरे प्रवेश कर सकते हैं। 

इसी वजह से मंदिरों, मस्जिदों,
चर्चो का निर्माण हुआ था- कोई ऐसी जगह हो,
जिसका उपयोग सिर्फ ध्यान और प्रार्थना के लिए हो।

ध्यान के लिए अगर एक नियत समय चुन सकें, तो वह
भी बहुत उपयोगी होगा,
क्योंकि हमारा शरीर, हमारा मन एक यंत्र है। अगर
हम रोज एक नियत समय पर भोजन करते हैं,
तो हमारा शरीर उस समय भोजन की मांग
करने लगता है।

कभी आप एक मजेदार प्रयोग कर सकते हैं, अगर आप
रोज एक बजे भोजन करते हैं और आप घड़ी देखें और
घड़ी में एक बजें हों, तो आपको भूख लग
जाएगी- भले ही घड़ी गलत
हो और अभी ग्यारह या बारह ही बजें हों। 

हमारा शरीर एक यंत्र है।
हमारा मन भी एक यंत्र है। अगर हम एक नियत
जगह पर, एक नियत समय पर रोज ध्यान करें, तो हमारे
शरीर और मन में ध्यान के लिए भी एक
प्रकार की भूख निर्मित हो जाती है। रोज
उस समय पर शरीर और मन ध्यान में जाने
की मांग करेंगे। यह ध्यान में जाने में
सहयोगी होगा। एक भावदशा निर्मित होगी,
जिसमें हम एक भूख बन जाएंगे, एक प्यास बन जाएंगे।

शुरू-शुरू में यह बहुत सहयोगी होगा, 
तब तक ध्यान
हमारे लिए इतना सहज न हो जाए कि हम
कहीं भी,
किसी भी समय ध्यान में जा सकें। तब तक
मन और शरीर की इन यांत्रिक व्यवस्थाओं
का उपयोग करना चाहिए।
इनसे एक वातावरण निर्मित होता है : कमरे में अंधेरा हो,

● अगरबत्ती या धूपबत्ती की खुशबू
हो, 
● एक सी लंबाई के व एक प्रकार के वस्त्र पहनें,
● एक से कालीन या चटाई का उपयोग करें, एक से आसन का उपयोग करें। 

इससे ध्यान नहीं हो जाता, लेकिन इससे
मदद मिलती है। अगर कोई और
इसकी नकल करे, तो उसे बाधा भी पड़
सकती है। प्रत्येक
को अपनी व्यवस्था खोजनी है।
व्यवस्था सिर्फ इतना करती है कि एक सुखद
स्थिति निर्मित होती है। और जब हम सुखद स्थिति में
प्रतीक्षा करते हैं, तो कुछ घटता है। जैसे
नींद उतरती है, ऐसे
ही परमात्मा उतरता है। जैसे प्रेम घटता है, ऐसे
ही ध्यान घटता है। 

हम इसे प्रयास से नहीं ला सकते, 
हम इसे जबरदस्ती नहीं पा सकते। 

ध्यान ही एक मात्र ऐसा धर्म हैं,
जो हमारे जन्म से पहेले हम से 
जुडा हुआ हैं, जो हमें हमारी 
आत्मा के प्रत्येक्ष खड़ा करता है... 
बाकि सब धर्म थोपे गए हैं..