Monday, July 13, 2015

कबीर : पूर्णिमा का चाँद

संत तो हजारों हुए हैं, पर
कबीर ऐसे है जैसे पूर्णिमा
का चाँद—अतुलनीय,
अद्वितीय, जैसे अंधेरे में
कोई अचानक दीया जला
दे, ऐसा यह नाम है। जैसे
मरुस्थल में कोई अचानक
मरूद्यान प्रकट हो जाए,
ऐसों अद्भुत और प्यारे
उनके गीत हे।
कबीर के शब्दों का अर्थ
नहीं करूंगा। शब्द तो
सीधे-सादे है। कबीर को
तो पुनरुज्जीवित करना
होगा। व्याख्या नहीं हो
सकती उनकी। उन्हें
पुनरुज्जीवन दिया जा
सकता है। उन्हें अवसर
दिया जा सकता है। वे
मुझसे बोल सकें। तुम ऐसे ही
सुनना जैसे यह कोई
व्याख्या नहीं है। जैसे
बीसवीं सदी की भाषा में,
पुनर्जन्म है। जैसे कबीर का
फिर आगमन है। और बुद्धि
से मत सुनना। कबीर का
कोई नाता बुद्धि से नहीं।
कबीर तो दीवाने है। और
दीवाने ही केवल उन्हें
समझ पाए और दीवाने ही
केवल समझ पा सकते है।
कबीर मस्तिष्क से नहीं
बोलते है। यह तो ह्रदय
की वीणा की अनुगूँज है।
और तुम्हारे ह्रदय के तारे
भी छू जाएं,तुम भी बज
उठो, तो ही कबीर समझे
जा सकते है।
यह कोई शास्त्रीय,
बौद्धिक आयोजन नहीं है।
कबीर को पीना होता है,
चुस्की-चुस्की। जैसे कोई
शराब पीए, और डूबना
होता है। भूलना होता है
अपने को, मदमस्त होना
होता है। भाषा पर
अटकोगे, चुकोगे; भाव पर
जाओगे तो पहुंच जाओगे।
भाषा तो कबीर की टूटी-
फूटी है। वे पढ़े-लिखे थे।
लेकिन भाव अनूठे है, कि
उपनिषद फीके पड़ें,कि
गीता, कुरान और
बाईबिल भी साथ खड़े
होने की हिम्मत न जुटा
पाएँ। भव पर जाओगे तो….।
भाषा पर अटकोगे तो
कबीर साधारण मालूम
होंगे। कबीर ने कहा भी—
लिखा-लिखी की है नहीं,
देखा-देखी बात। नहीं पढ़
कर कह रहे हे। देखा है आंखों
से। जो नहीं देखा जा
सकता उसे देखा है। और जो
नहीं कहा जा सकता उसे
कहने की कोशिश की है।
बहुत श्रद्धा से ही कबीर
समझे जा सकते है।
शंकराचार्य को समझना
हो, श्रद्धा की ऐसी कोई
जरूरत नहीं। शंकराचार्य
का तर्क प्रबल हे।
नागार्जुन का समझना हो
श्रद्धा की क्या
आवश्यकता, उनके प्रमाण,
उनके विचार,उनके विचार
की अद्भुत तर्क सरणी—
वह प्रभावित करेगी।
कबीर के पास न तर्क है, न
विचार है, न
दर्शनशास्त्र है। शास्त्र
से कबीर का क्या लेना
देना।
कहा कबीर ने—‘’मसि
कागद छुओ नहीं।‘’
कभी छुआ ही नहीं जीवन में
कागज, स्याही से कोई
नाता ही नहीं बनाया।
सीधी-साधी अनुभूति है;
अंगारे है, राख नहीं। राख
को तो तू सम्हाल कर रख
सकते हो। अंगारे को
सम्हालना हो तो श्रद्धा
चाहिए। तो ही पी सकोगे
यह आग। और एक घूंट भी पी
ली तो तुम्हारे भीतर भी
—अग्नि भभक उठे—सोयी
अग्नि जन्मों–जन्मों की।
तुम भी दीए बनों। तुम्हारे
भीतर भी सूरज ऊगे। और
ऐसा हो, तो ही समझना
कि कबीर को समझा, ऐसा
न हो तो समझना कि
कबीर के शब्द पकड़े, शब्दों
की व्याख्या की, शब्दों के
अर्थ जाने; पर वह सब
ऊपर-ऊपर का काम है। जैसे
कोई जमीन को इंच दो इंच
खोदे और सोचे कि कुआँ हो
गया। गहरा खोदना
होगा कंकड़-पत्थर आएँगे।
कुडा-कचरा आएगा।
मिट्टी हटानी होगी।
धीरे-धीरे जल स्त्रोत के
निकट पहुंचोगे।

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