Monday, December 28, 2015

ध्यान विज्ञान



जो लोग शरीर के तल पर ज्यादा संवेदनशील हैं, उनके लिए ऐसी विधियां हैं जो शरीर के माध्यम से ही आत्यंतिक अनुभव पर पहुंचा सकती हैं। जो भाव-प्रवण हैं, भावुक प्रकृति के हैं, वे भक्ति-प्रार्थना के मार्ग पर चल सकते हैं। जो बुद्धि-प्रवण हैं, बुद्धिजीवी हैं, उनके लिए ध्यान, सजगता, साक्षीभाव उपयोगी हो सकते हैं।

लेकिन मेरी ध्यान की विधियां एक प्रकार से अलग हट कर हैं। मैंने ऐसी ध्यान-विधियों की संरचना की है जो तीनों प्रकार के लोगों द्वारा उपयोग में लाई जा सकती हैं। उनमें शरीर का भी पूरा उपयोग है, भाव का भी पूरा उपयोग है और होश का भी पूरा उपयोग है। तीनों का एक साथ उपयोग है और वे अलग-अलग लोगों पर अलग-अलग ढंग से काम करती हैं। शरीर, हृदय, मन—मेरी सभी ध्यान विधियां इसी श्र्ृंखला में काम करती हैं। वे शरीर पर शुरू होती हैं, वे हृदय से गुजरती हैं, वे मन पर पहुंचती हैं और फिर वे मनातीत में अतिक्रमण कर जाती हैं।
ओशो

विषय सूची

सुबह के समय करने वाली ध्यान विधियां

1 सूर्योदय की प्रतीक्षा
2 उगते सूरज की प्रशंसा में
3 सक्रिय ध्यान
4 मंडल
5 तकिया पीटना
6 कुत्ते की तरह हांफना
7 नटराज
8 इस क्षण में जीना
9 स्टॉप
10 कार्य -- ध्यान की तरह
11 सृजन में डूब जाएं
12 गैर-यांत्रिक होना ही रहस्य है
13 साधारण चाय का आनंद
14 शांत प्रतीक्षा
15 कभी, अचानक ऐसे हो जाएं जैसे नहीं हैं
16 मैं यह नहीं हूं
17 अपने विचार लिखना
18 विनोदी चेहरे
19 पृथ्वी से संपर्क
20 श्वास को शिथिल करो
21 इस व्यक्ति को शांति मिले
22 तनाव विधि
23 विपरीत पर विचार
24 अद्वैत
25 हां का अनुसरण
26 वृक्ष से मैत्री
27 क्या तुम यहां हो?
28 निष्क्रिय ध्यान
29 आंधी के बाद की निस्तब्धता
30 निश्चल ध्यानयोग

दिन के समय करने वाली ध्यान विधियां

31 स्वप्न में सचेतन प्रवेश
32 यौन-मुद्रा : काम-ऊर्जा के ऊर्ध्वगमन की एक सरल विधि
33 मूलबंध : ब्रह्मचर्य-उपलब्धि की सरलतम विधि
34 कल्पना-भोग
35 मैत्री : प्रभु-मंदिर का द्वार
36 शांति-सूत्र : नियति की स्वीकृति
37 मौन और एकांत में इक्कीस दिवसीय प्रयोग
38 प्राण-साधना
39 मंत्र-साधना
40 अंतर्वाणी साधना
41 संयम साधना-1
42 संयम साधना-2
43 संतुलन ध्यान-1
44 संतुलन ध्यान-2
45 श्रेष्ठतम क्षण का ध्यान
46 मैं-तू ध्यान
47 इंद्रियों को थका डालें

दोपहर के समय करने वाली ध्यान विधियां

48 श्वास : सबसे गहरा मंत्र
49 भीतरी आकाश का अंतरिक्ष-यात्री
50 आकाश सा विराट एवं अणु सा छोटा
51 एक का अनुभव
52 आंतरिक मुस्कान
53 ओशो
54 देखना ही ध्यान है
55 शब्दों के बिना देखना
56 मौन का रंग
57 सिरदर्द को देखना
58 ऊर्जा का स्तंभ
59 गर्भ की शांति

संध्या के समय करने वाली ध्यान विधियां

60 कुंडलिनी
61 झूमना
62 सामूहिक नृत्य
63 वृक्ष के समान नृत्य
64 हाथों से नृत्य
65 सूक्ष्म पर्तों को जगाना
66 गीत गाओ
67 गुंजन
68 नादब्रह्म
69 स्त्री-पुरुष जोड़ों के लिए नादब्रह्म
70 कीर्तन
71 सामूहिक प्रार्थना
72 मुर्दे की भांति हो जाएं
73 अग्निशिखा

रात के समय करने वाली ध्यान विधियां

74 प्रकाश पर ध्यान
75 बुद्धत्व का अवलोकन
76 तारे का भीतर प्रवेश
77 चंद्र ध्यान
78 ब्रह्मांड के भाव में सोने जाएं
79 सब काल्पनिक है
80 ध्यान के भीतर ध्यान
81 पशु हो जाएं
82 नकारात्मक हो जाएं
83 हां, हां, हां
84 एक छोटा, तीव्र कंपन
85 अपने कवच उतार दो
86 जीवन और मृत्यु ध्यान
87 बच्चे की दूध की बोतल
88 भय में प्रवेश
89 अपनी शून्यता में प्रवेश
90 गर्भ में वापस लौटना
91 आवाजें निकालना
92 प्रार्थना
93 लातिहान
94 गौरीशंकर
95 देववाणी
96 प्रेम
97 झूठे प्रेम खो जाएंगे
98 प्रेम को फैलाएं
99 प्रेमी-युगल एक-दूसरे में घुलें-मिलें
100 प्रेम के प्रति समर्पण
101 प्रेम-कृत्य को अपने आप होने दो
102 कृत्यों में साक्षी-भाव
103 बहना, मिटना, तथाता
104 अंधकार, अकेले होने, और मिटने का बोध
105 स्वेच्छा से मृत्यु में प्रवेश
106 सजग मृत्यु और शरीर से अलग होने की विधि
107 मृतवत हो जाना
108 जाति-स्मरण के प्रयोग
109 अंतर्प्रकाश साधना
110 शिवनेत्र
111 त्राटक -- एकटक देखने की विधि
112 त्राटक ध्यान-1
113 त्राटक ध्यान-2
114 त्राटक ध्यान-3
115 रात्रि-ध्यान

Saturday, December 19, 2015

मंत्र

मंत्र के, स्मरण के चार तल हैं। एक तल, जब तुम ओंठ का उपयोग करते हो, कहते हो राम। ओंठ का उपयोग किया तो यह शरीर से है–सबसे उथला तल, सबसे छिछला तल। पर यहां से शुरू करना पड़ता है, क्योंकि शुरुआत तो उथले से ही शुरू करनी होती है। फिर ओंठ तो बंद हैं और तुम भीतर कहते हो राम–सिर्फ मन में। यह पहले से थोड़ा से थोड़ा गहरा हुआ। लेकिन मन में भी कहते हो तो कहते तो हो ही, मन के यंत्र का उपयोग करते हो। पहले शरीर के यंत्र का उपयोग करते थे, अब मन के यंत्र का उपयोग करते हो। फिर तुम उसे भी छोड़ देते हो। तुम राम कहते नहीं; तुम राम को अपने-आप उठने देते हो, तुम नहीं कहते। शांत बैठ जाते हो। जिसने बहुत राम-राम जपा है, पहले ओंठ से जपा, फिर मन से जपा–वह अगर शांत बैठ जाए, जब भी शांत होगा तो अचानक पाएगा भीतर उसके कोई जप रहा है! राम, राम, राम! वह कह नहीं रहा। अपनी तरफ से कहने की अब कोई चेष्टा नहीं है। अब तो कोई जप रहा है, तुम सुननेवाले हो गए, कहनेवाले न रहे। यह तीसरा तल है। और एक चौथा तल है। जब राम पूरा फूल की तरह खिल जाता है, तो तुम्हारा समस्त यंत्र, जीवन-यंत्र, शरीर, तन-मन, सब इकट्ठा उसी धुन से गूंजने लगते हैं।

नारी भिन्न है।



मैं आपको यह कहना चाहता हूं, स्त्री और पुरुष समान आदर के पात्र हैं, लेकिन समान बिलकुल भी नहीं हैं, बिलकुल असमान हैं। स्त्री स्त्री है, पुरुष पुरुष है। और उन दोनों में जमीन-आसमान का फर्क है। इस फर्क को अगर ध्यान में न रखा जाए तो जो भी शिक्षा होगी वह स्त्री के लिए बहुत आत्मघाती होने वाली है। वह स्त्री को नष्ट करने वाली होगी। स्त्री और पुरुष मौलिक रूप से भिन्न हैं। और उनकी यह जो मौलिक भिन्नता है, यह जो पोलेरिटी है, जैसे उत्तर और दक्षिण ध्रुव भिन्न हैं, जैसे बिजली के निगेटिव और पाजिटिव पोल भिन्न हैं, यह जो इतनी पोलेरिटी है, इतनी भिन्नता है, इसी की वजह से उनके बीच इतना आकर्षण है। इसी के कारण वे एक-दूसरे के सहयोगी और साथी और मित्र बन पाते हैं। यह असमानता जितनी कम होगी, यह भिन्नता जितनी कम होगी, यह दूरी जितनी कम होगी, उतना ही खतरनाक है मनुष्य के लिए। 

मेरी दृष्टि में, स्त्रियों को पुरुषों जैसा बनाने वाली शिक्षा, सारी दुनिया में हर, एक-एक बच्चे तक पहुंचाई जा रही है। पुरुष तो पहले से ही विक्षिप्त सभ्यता को जन्म दिया है। एक आशा है कि स्त्री एक नई सभ्यता की उन्नायक बने। लेकिन वह आशा भी समाप्त हो जाएगी अगर स्त्री भी पुरुष की भांति दीक्षित हो जाती है।

मेरी दृष्टि में, स्त्री को गणित की नहीं, संगीत की और काव्य की शिक्षा ही उपयोगी है। उसे इंजीनियर बनाने की कोई भी जरूरत नहीं। इंजीनियर वैसे ही जरूरत से ज्यादा हैं। पुरुष पर्याप्त हैं इंजीनियर होने को। स्त्री को कुछ और होने की जरूरत है। क्योंकि अकेले इंजीनियरों से और अकेले गणितज्ञों से जीवन समृद्ध नहीं होता। उनकी जरूरत है, उनकी उपयोगिता है। लेकिन वे ही जीवन के लिए पर्याप्त नहीं हैं। जीवन की खुशी किन्हीं और बातों पर निर्भर करती है। बड़े से बड़ा इंजीनियर और बड़े से बड़ा गणितज्ञ भी जीवन में उतनी खुशी नहीं जोड़ पाता जितना गांव में एक बांसुरी बजाने वाला जोड़ देता है।

मनुष्य-जाति की खुशी बढ़ाने वाले लोग, मनुष्य के जीवन में आनंद के फूल खिलाने वाले लोग वे नहीं हैं जो प्रयोगशालाओं में जीवन भर प्रयोग ही करते रहते हैं। उनसे भी ज्यादा वे लोग हैं जो जीवन के गीत गाते हैं और जीवन के काव्य को अवतरित करते हैं।

मनुष्य जीता किसलिए है? काम के लिए? फैक्ट्री चलाने के लिए? रास्ते बनाने के लिए? मनुष्य रास्ते बनाता है, फैक्ट्री भी चलाता है, दुकान भी चलाता है, इसलिए कि इन सब से एक व्यवस्था बन सके और उस व्यवस्था में वह आनंद, शांति और प्रेम को पा सके। वह जीता हमेशा प्रेम और आनंद के लिए है। लेकिन कई बार ऐसा हो जाता है कि साधनों की चेष्टा में हम इतने संलग्न हो जाते हैं कि साध्य ही भूल जाता है।

मेरी दृष्टि में, पुरुष की सारी शिक्षा साधन की शिक्षा है। स्त्री की सारी शिक्षा साध्य की शिक्षा होनी चाहिए, साधन की नहीं। ताकि वह पुरुष के अधूरेपन को पूरा कर सके। वह पुरुष के लिए परिपूरक हो सके। वह पुरुष के जीवन में जो अधूरापन है, जो कमी है, उसे भर सके। पुरुष फैक्ट्रियां खड़ी कर लेगा, बगीचे कौन लगाएगा? पुरुष बड़े मकान खड़े कर लेगा, लेकिन उन मकानों में गीत कौन गुंजाएगा? पुरुष एक दुनिया बना लेगा जो मशीनों की होगी, लेकिन उन मशीनों के बीच फूलों की जगह कौन बनाएगा? 

स्त्री के व्यक्तित्व के प्रेम को कितना गहरा कर सके, ऐसी शिक्षा चाहिए। ऐसी शिक्षा चाहिए जो उसके जीवन को और भी सृजनात्मक प्रेम की तरफ ले जा सके।

क्षुद्र ऊर्जा - विराट ऊर्जा



एक सूफी फकीर के पास एक युवक ने आकर कहा कि ‘बहुत बहुत संतों के पास गया हूं लेकिन जिसकी तलाश है वह नहीं मिलता। अब आखिरी आपके द्वार पर दस्तक दी है। बस हताश हो गया हूं बहुत लोगों ने आपकी तरफ इशारा किया। बड़ी लंबी यात्रा करके, बड़े दूर देश से आता हूं। निराश न भेज देना। और यह मेरा अंतिम प्रयास है। कुछ होना हो तो हो जाये। न होना हो, तो न हो। बस, मैं हारे गया हूं।’


उस फकीर ने कहा, ‘जरूर होगा। को नही होगा! लेकिन एक छोटीसी शर्त पूरी करनी पड़ेगी। शर्त बहुत छोटी है।’


उस युवक ने कहा, ‘मैंने बडी बड़ी शर्तें पूरी की। किसी ने योग सिखाया, सिर के बल खड़ा किया, तो’ खडा रहा। किसी ने मंत्र पढूवाए, तो वर्षों मंत्र दोहराता रहा। किसी ने उपवास करवाए, तो उपवास किये; भूखा मरा। जिसने, जो कहा, वही किया। ऐसी कोनसी शर्त होगी, जो मैंने मूर्त नहीं की! तुम भी अपनी छोटी शर्त कह दो। जरूर पूरी करूंगा।’


उस फकीर ने कहा, ‘ये सब बड़ी बड़ी बातें हैं। ये मुझे नहीं करनी हैं। बहुत छोटी शर्त है। अभी मैं कुंए पर रहनी भरने जा रहा हूं। बस, तू इतना करना कि जब मैं पानी भरूं, .तो बीच में बोलना मत। चुपचाप खड़े रहना। इतना अगर संयम तूने रख लिया, तो बस बहुत है। फिर आगे का काम मैं सम्हाल लूंगा। इतना तू कर ले।’


उस युवक ने सोचा कि मैं भी किस आदमी के पास आ गया हू! बडे तत्र साधे, मंत्र साधे, यंत्र साधे। और यह पागल मालूम होता है। यह कुंए पर पानी भला, तो भर मजे से! मेरा क्या बनता बिगड़ता है! मैं क्यों बोलूंगा?


लेकिन उसे पता न था। कुंए पर पानी भरना तो दूर, जब फकीर ने अपनी बालटी उठायी और रस्सी उठायी., तभी उसके भीतर झंझावात उठने लगे। लेकिन अपने को सम्हाला। याद रखा कि उसने कहा है कि बोलना ही मत।’मगर न रहा जाये! फिर भी अपने पर संयम रखा। पुराना संयमी था। लंबा अभ्यासी था। .अपनी जबान को कसकर पकड़े रहा। होठों को बंद रखा। इधर उधर देखा कि देखो ही मत। न देखोगे, न प्रश्न उठेगा। और थोडी ही दैर की बात है।


कुंए पर फकीर पहुंचा। उसने बालटी में रस्सी बांधी। युवक यहां वहां देखे। फकीर ने कहा: ‘यहां वहा देखने की जरूरत नहीं। जो मैं कर रहा हूं उसको देख और चुपचाप खड़ा रह, बोलना मत। प्रश्न उठाना मत। इतनी शर्त तू पूरी कर देना, बाकी मैं सब पूरी कर लूंगा।’


युवक को देखना पड़ा। मगर उसकी बेचैनी तुम नहीं समझ सकते। उसकी मुसीबत तुम नहीं समझ सकते। जो देख रहा था, उसे देखकर बिना बोले रहा न जाता था।


फकीर ने रस्सी बांधी। बालटी कुंए में डाली। बड़ा हिलाया डुलाया बालटी को। बडा शोरगुल मचाया कुंए में। पानी मैं डूबो रही बालटी, तो भरी हुई मालूम’ पड़ी। फिर खींची, तो खाली की खाली आयी! फिर दुबारा डाली’! संयम टूटने लगा युवक का। जब तीसरी बार बालटी डाली, युवक ने कहा, ‘ठहरो! संयम टूटने लगा युवक का। जब तीसरी बार बालटी डाली, ‘युवक ने कहा ठहरो! भाड़ में गया ब्रह्मज्ञान! इस बालटी में पेंदी ही नहीं है, और तुम पानी भरने चले हो! आखिर संयम की भी एक हद्द होती है! कब तक साधू? और यह संयम तो ऐसा है कि जन्म कम बीत जायेंगे, पानी भरनेवाला नहीं। यह बालटी खाली रहनेवाली है। और तुमने मुझसे वचन लिया है कि जब तक पाना न भर लूँ बोलना मत। मैं तो बोलूंगा। और तुमसे कहे देता हूं कि तुमसे क्या खाक मुझे मिलेगा। अभी तुम्हें खुद ही यह पता नहीं है कि बिना पेंदी की बाल्टी में पानी भरने चले हो! तुम क्या मुझे ब्रह्मज्ञान दोगे!’


फकीर ने कहा, ‘बात खतम हो गयी। नाता रिश्ता टूट गया। शर्त ही खतम हो गयी। जब तू छोटा सा भी’ काम पुरा न कर सका। अरे बस, यह आखिरी बार था। तीन बार का मैंने तय किया था। मगर तू चूक गया। तीन ही बार पूरे न हो पाये और तुने संयम छोड़ दिया! रास्ते पर लग अपने। ऐसे आदमी से क्या होगा जिसमें इतना धीरज नहीं! भाग। यह तो मुझे भी पता है कि बालटी में पेंदी नहीं है। मैं कोई अंधा हूं! बालटी में पानी नहीं भरेगा, यह भी मुझे पता है। यह तो तेरी धीरज की परोक्षा थी। मगर तू असफल हो गया। अब मैं जानता हूं कि क्यों तू अब तक हताश है। तू सदा हताश रहेगा। एक छोटा सा काम न कर सका! भाग जा। अब यह शकल मुझे मत दिखा।’


युवक चला तो, लेकिन अब बड़ी बेचैनी में पड़ गया। बात तो ठीक थी। फकीर पागल नहीं था। कुछ बेबूझ था। सो फकीर सदा हुए हैं। फकीर, और बेबूझ न हो, तो क्या खाक फकीर! फकीर और कुछ रहस्यपूर्ण न हो, तो क्या खाक फकीर; पंडित होते हैं तर्क शुद्ध; फकीर तो तर्क शुद्ध नहीं होते; रहस्यमय होते हैं; पहेली की तरह होते हैं।


‘मैंने भी क्या चूक कर दी! जरासी देर और रुक जाता, जरासी देर की बात थी और पता नहीं यह आदमी क्या खाक जानता हो! जानता जरूर होगा। क्योंकि ऐसी परीक्षा मेरी कभी किसी ने कभी ली न थी।’ रातभर सो न सका। सुबह ही उठकर पहुंच गया। अंधेरे अंधेरे पहुंच गया। फकीर के द्वार पर सिर पटककर पड़ रहा और कहा कि ‘मैं हटूंगा नहीं यहां से। मुझसे भूल हो गयी, मुझे क्षमा कर दो। एक अवसर और दो।’


फकीर ने कहा, ‘क्या भूल हो गयी?’ उसने कहा, ‘यही कि मुझे क्या लेना था! दिखता था मुझे कि बिना पेंदी की बालटी में पानी भरेगा नहीं। मुझे बोलना नहीं था। चुप खड़े रहता। वायदा किया था, पूरा करना था। मैं वायदे से स्मृत हुआ।’


फकीर ने कहा, ‘अगर इतना तुझे दिखाई पड़ गया कि बिना पेंदी की बालटी में पानी नहीं भरता, तो मैं तुझसे कहना चाहता हूं कि तेरे भीतर भी पेंदी नहीं है, इसलिए ऊर्जा इकट्ठी नहीं होती। ऊर्जा इकट्ठी न हो, तो तू कैसे ब्रह्म को जानेगा? ब्रह्म को जानने के लिए ऊर्जा चाहिए ऐसी ऊर्जा कि ऊपर से बह उठे, अतिरेक चाहिए।’


तुम्हारे भीतर ऊर्जा हो, तो परमात्मा की ऊर्जा भी तुम्हारी ऊर्जा में संयुक्त हो जाती है। तुम्हारे जीवन में यूं आग लग जाती है, जैसे जंगल में आग लगी हो। छोटा मोटा दीया हो, तो जरा सा हवा का झोंका और उसे बुझा जाता है। इसे स्मरण रखना।

क्षुद्र ऊर्जा से नहीं चलेगा, विराट ऊर्जा चाहिए। आकाश की यात्रा पर निकले हो, ईधन तो चाहिए ही चाहिए। पंखों में बल चाहिए।


राबिया



इस किताब का नाम लिए बिना ओशो ने राबिया के गीतो को अपनी पसंदीदा किताबों की फेहरिस्त में रखा है। इसी फहरिस्त में मीरा भी आती है। जिसे ओशो बहुत ‘मीठी’ कहते है। और राबिया को ‘नमकीन’। और इसी तुलना के ऊपर एक मजाक भी कहते है: मुझे डायबिटीज है, इसलिए मीरा को तो मैं बहुत ज्यादा खा या पी नहीं सकता। लेकिन राबिया चलेगी—नमक तो में जितना चाहे ले सकता हूं। शायद फकीरों में राबिया वह अकेली औरत है जिसकी कहानियां ओशो के प्रवचनों में बार—बार सुनाई देती है। दरअसल खोज की तो पाया कि ओशो ऐसी कोई किताब ही नहीं है, जिसमें राबिया का जिक्र न आया हो; ऐसा दूसरा नाम केवल बुद्ध का है।

राबिया 713 इस्वी में इराक के बसरा शहर में पैदा हुई थी। हजरत मुहम्मद और राबिया के बीच लगभग कोई सौ साल का ही फासला है। इसीलिए सबसे पहले हुई सूफी नारी राबिया है। और यह भी कहा जाता है कि प्रेम के मार्ग का प्रारंभ राबिया से होता है।

कहते है कि राबिया जब पैदा हुई तो उसके गरीब घर में न तो चिराग जलाने के लिए तेल था और न उसे लपटेने के लिए कोई कपड़ा। राबिया की मां ने उसके पिता से कहा कि वह पड़ोस से थोड़ा तेल और कोई कपड़ा मांग लाये। लेकिन राबिया के पिता ने यह कसम उठा रखी थी कि वह अपना हाथ अल्लाह को छोड़ कभी किसी के आगे नहीं फैलाएंगे। पत्नी का दिल रखने के लिए वह पड़ोस में गए और बिना किसी से कुछ मांगे वापस आ गये।

कहते है उस रात हज़रत मुहम्मद उनके सपने में आए और बोले, ‘तेरी बेटी मुझे अजीज है। तू बसरा के अमीर के पास जा और उसे एक खत दे। जिसमें यह लिखना: तू हर रात नबी को सौ दुरूह करता है और हर जुम्मेरात को चार सौ दुरूद करता है। लेकिन पिछली जुम्मेरात को तू दुरूद करना भूल गया, सज़ा के तौर पर इस खत लाने वाले को चार सौ दीनार दे दे।’

आंखों में आंसू लिए राबिया के पिता आमिर के पास पहुंचे। अमीर नाच उठा कि वह नबी की नजरों में है। उसने 1000 दीनार गरीर गरीबों में बांटे व खुशी—खुशी चार सौ दीनार राबिया के पिता को दिये और यह भी कहा कि उन्हें जब जरूरत हो उसके पास चले आएं।

राबिया के पिता की मृत्यु के बार बसरा में अकाल पडा। राबिया अपनी मां और बहनों से अलग एक दूसरे कारवां के पीछे चल पड़ी, जो लुटेरों के हाथ लग गया। उन लुटेरों ने राबिया को गुलामों के बाजार में बेच दिया।

राबिया का मालिक उससे कड़ी मेहनत करवाता। वह बिना किसी शिकयत सब काम करती, और रात जब वह अकेली होती तो अपने प्रीतम ‘अल्लाह’ के साथ मानों खेलती। रात वह अपने गीत रचती और अल्लाह को सुनाती।

एक रात राबिया के मालिककी नींद खुली तो उसने देखा राबिया यह गीत गा रही थी:

आंखें आराम में है; तारे डूब रहे है

परिदों के घोसलों में कोई आवाज नहीं

समुंदर के शैतान भी चुप है

खलाफों और शहंशाहों के दरवाजे बंद है

लेकिन बस एक तेरा दरवाजा खुला है

तू ही है जो बदलता नहीं

तू ही है जो कभी मिटता नहीं

मेरे अल्लाह,

हर आशिक अपने—अपने महबूब के साथ है

मैं बस तेरे साथ हूं।

राबिया के मालिक ने देखा कि जब वह गा रही थी। तो उसके चेहरे से ऐसा नूर टपक रहा था कि जैसे रात में रोशन हो गयी हो। वह राबिया के पैरों में गिर पडा और बोला कि कल से तू मेरी मालकिन होगी और मैं तेरा गुलाम। उसने राबिया से यह भी कहा कि अगर वह जाना चाहे तो वह उसे गुलामी के बंधन से आजाद कर देगा।

राबिया ने कहा कि वह रेगिस्तान में जाकर कुछ समय अकेली रहना चाहती है। रेगिस्तान में उसने कई दिन गुजारे और वहीं मुर्शिदके रूप में उसे हसन अल बसरी मिले, जिसके चरणों में वह रहने लगी।

कहते है कि जिस दिन राबिया प्रवचन में न आती हसन चुप ही रहते। जब उनसे पूछा गया तो वह बोले, जिस बर्तन में चाश्नी हाथीको पिलाई जाती है, वह बर्तन चींटियों को चाशनी पिलाने के काम नहीं आ सकता।

एक दिन रात अचानक रात गीत गाते हुए राबिया चुप हो गई। जब वह हसन से मिली तो हसन ने उसकी आंखों में देखकर कहा: अरे तुझे तो मिल गया। कैसे मिला तुझ?

राबिया ने कहा, आप ‘कैसे’ की बात करते है, और मैंने जाना कि, ‘कैसे’ और ‘ऐसे’ कहीं नहीं पहुंचते है। जो है, सो है। ‘कैसे’ तो वहां पहुंचाएगा और होना यहां है।

हसन ने राबिया को गले लगाया और कहा कि तू जा अपने गीतों को फैला।

वह अकेली एक कुटिया में रहने लगी और हजारों शिष्य उसके पास पहुंचने लगे। वह जो गाती, शिष्य उसे लिख लेते। उसके जो गीत आज उपलब्ध है, वह उसके शिष्यों ने ही कागज पर उतारे है।

प्रेम करो।

प्रेम ज्ञान है 
मेरा संदेश छोटा-सा है..
''प्रेम करो। 
सबको प्रेम करो।
और ध्यान रहे 
कि इससे बड़ा कोई भी 
संदेश न है, 
न हो सकता है।''
मैंने सुना है : 
एक संध्या किसी नगर से 
एक अर्थी निकलती थी। 
बहुत लोग 
उस अर्थी के साथ थे। 
और, 
कोई राजा नहीं, 
बस एक भिखारी मर गया था। 
जिसके पास 
कुछ भी नहीं था, 
उसकी बिदा में 
इतने लोगों को देख 
सभी आश्चर्य चकित थे।
एक बड़े भवन की नौकरानी ने 
अपने मालकिन को जाकर कहा 
कि किसी भिखारी की 
मृत्यु हो गई है 
और वह स्वर्ग गया है।
मालकिन को 
मृतक के स्वर्ग जाने की 
इस अधिकारपूर्ण घोषणा पर 
हंसी आई और उसने पूछा :
''क्या तूने उसे 
स्वर्ग में प्रवेश करते देखा है?''
वह नौकरानी बोली, 
''निश्चय ही मालकिन! 
यह अनुमान तो 
बिलकुल सहज है, 
क्योंकि जितने भी लोग 
उसकी अर्थी के साथ थे, 
वे सभी फूट-फूट कर 
रो रहे थे।
क्या यह तय नहीं है 
कि मृतक जिनके बीच था, 
उन सब पर ही 
अपने प्रेम के बीज 
छोड़ गया है?''
प्रेम के चिन्ह
मैं भी सोचता हूं, 
तो दीखता है 
कि प्रेम के चिन्ह ही तो 
प्रभु के द्वार की सीढि़यां हैं।
प्रेम के अतिरिक्त 
परमात्मा तक जाने वाला 
मार्ग ही कहां हैं?
परमात्मा को 
उपलब्ध हो जाने का 
इसके अतिरिक्त 
और क्या प्रमाण है 
कि हम इस पृथ्वी पर 
प्रेम को उपलब्ध हो गये थे!
पृथ्वी पर जो प्रेम है, 
परलोक में वही परमात्मा है।
प्रेम जोड़ता है, 
इसलिए
प्रेम ही परम ज्ञान है।
क्योंकि, 
जो तोड़ता है, 
वह ज्ञान ही कैसे होगा? 
जहां ज्ञाता से ज्ञेय पृथक है, 
वहीं अज्ञान है।

कोर्ट में सब से पहले गीता पर क्यों हाथ रखवाते हैं?


प्रश्न: भगवान श्री, यहां पर एक मुद्दे का प्रश्न आ गया है श्रोतागणों से। पूछते हैं कि कोर्ट में सब से पहले गीता पर क्यों हाथ रखवाते हैं? कोर्ट में रामायण या उपनिषद क्यों नहीं रखते? क्या गीता में एक श्रद्धा है या सिर्फ अंधश्रद्धा है?

ओशो :- पूछा है कि अदालत में शपथ लेते वक्त गीता पर हाथ क्यों रखवाते हैं? रामायण पर क्यों नहीं रखवा लेते? उपनिषद पर क्यों नहीं रखवा लेते? बड़ा कारण है। पता नहीं अदालत को पता है या नहीं, लेकिन कारण है; कारण बड़ा है।

राम, कितने ही बड़े हों, लेकिन इस मुल्क के चित्त में वे पूर्ण अवतार की तरह नहीं हैं; अंश है उनका अवतार। उपनिषद के ऋषि कितने ही बड़े ज्ञानी हों, लेकिन अवतार नहीं हैं। कृष्ण पूर्ण अवतार हैं। परमात्मा अगर पूरा पृथ्वी पर उतरे, तो करीब-करीब कृष्ण जैसा होगा। इसलिए कृष्ण इस मुल्क के अधिकतम मन को छू पाए हैं; बहुत कारणों से। एक तो पूर्ण अवतार का अर्थ होता है, मल्टी डायमेंशनल, बहुआयामी; जो मनुष्य के समस्त व्यक्तित्व को स्पर्श करता हो। राम वन डायमेंशनल हैं।

हर्बर्ट मारक्यूस ने एक किताब लिखी है, वन डायमेंशनल मैन, एक आयामी मनुष्य। राम वन डायमेंशनल हैं, एक आयामी हैं, एकसुरे हैं, एक ही स्वर है उनमें। स्वभावतः एक ही स्वर का आदमी सिर्फ उस एकसुरे आदमियों के लिए प्रीतिकर हो सकता है, सबके लिए प्रीतिकर नहीं हो सकता। महावीर और बुद्ध सभी एकसुरे हैं। एक ही स्वर है उनका। इसलिए समस्त मनुष्यों के लिए महावीर और बुद्ध प्रीतिकर नहीं हो सकते। हां, मनुष्यों का एक वर्ग होगा, जो बुद्ध के लिए दीवाना हो जाए, जो महावीर के लिए पागल हो जाए। लेकिन एक वर्ग ही होगा, सभी मनुष्य नहीं हो सकते।

लेकिन कृष्ण मल्टी डायमेंशनल हैं। ऐसा आदमी जमीन पर खोजना कठिन है, जो कृष्ण में प्रेम करने योग्य तत्व न पा ले। चोर भी कृष्ण को प्रेम कर सकता है। नाचने वाला भी प्रेम कर सकता है। साधु भी प्रेम कर सकता है; असाधु भी प्रेम कर सकता है। युद्ध के क्षेत्र में लड़ने वाला भी प्रेम कर सकता है; गोपियों के साथ नृत्य करने वाला भी प्रेम कर सकता है। कृष्ण एक आर्केस्ट्रा हैं। बहुत वाद्य हैं; सब बज रहे हैं। जिसे जो वाद्य पसंद हो, वह अपने वाद्य को तो प्रेम कर ही सकता है। और इसलिए पूरे कृष्ण को प्रेम करने वाले आदमी पैदा नहीं हो सके। जिन्होंने भी प्रेम किया है, उन्होंने कृष्ण में चुनाव किया है।

सूरदास तो बालकृष्ण को प्रेम करते हैं, गोपियों से वे बहुत डरते हैं। इसलिए बालकृष्ण को प्रेम करते हैं। क्योंकि बालकृष्ण उन्हें जमते हैं कि बिलकुल ठीक हैं। ठीक है कि बालक है; तो चलेगा। जवान कृष्ण से सूरदास को डर लगता है, क्योंकि जवान सूरदास से सूरदास को डर लगा है। तो अपना चुनाव है उनका। वह अपना चुनाव कर लेंगे।

अब अगर केशवदास को कृष्ण को प्रेम करना है, तो बालकृष्ण की वह फिक्र ही छोड़ देंगे। वह तो जवान कृष्ण को--जो कि चांद की छाया में नाच रहा है; जिसके कोई नीति-नियम नहीं हैं; जिसकी कोई मर्यादा नहीं, जो अमर्याद है, जिसको कोई बंधन नहीं पकड़ते; जो एकदम अराजक है--तो केशवदास तो उस युवा कृष्ण को चुन लेंगे; बालकृष्ण की फिक्र छोड़ देंगे।

अब तक कृष्ण को पूरा प्रेम करने वाला आदमी नहीं हुआ। क्योंकि पूरे कृष्ण को प्रेम करना तभी संभव है, जब वह आदमी भी मल्टी डायमेंशनल हो। हम आमतौर से एक आयामी होते हैं। एक हमारा ट्रैक होता है व्यक्तित्व का, एक रेल की पटरी होती है, उस पटरी पर हम चलते हैं।
मगर कृष्ण में हमें अपनी पटरी के योग्य मिल जाएगा। इसलिए कृष्ण इस मुल्क के हर तरह के आदमी के लिए प्रीतिकर हैं। बुरे से बुरे आदमी के लिए प्रीतिकर हो सकते हैं।

ध्यान रहे, अदालत में अच्छे आदमियों को तो कभी-कभी जाना पड़ता है--यानी जब बुरे आदमी उनको ले जाते हैं, तब जाना पड़ता है--अदालत आमतौर से बुरे आदमियों की जगह है। बुरा आदमी अगर राम को प्रेम करता होता, तो अदालत में आता ही नहीं। जो अदालत में आ गया है, राम की कसम खिलाना नासमझी है उसको। कृष्ण की कसम खिलाई जा सकती है। अदालत में आकर भी आदमी कृष्ण को प्रेम करता हुआ हो सकता है। बुरे आदमी के लिए भी कृष्ण खुले हैं। इन बुरे आदमियों के लिए भी उनके मकान का एक दरवाजा है, जो खुला है।

राम वगैरह के मंदिर में इकहरे दरवाजे हैं; कृष्ण के मंदिर में बहुत दरवाजे हैं। वहां शराबी भी जाए, तो उसके लिए भी एक दरवाजा है। असल में कृष्ण से बड़ी छाती का आदमी खोजना बहुत मुश्किल है। इसलिए मैं नहीं कहता कि अदालत को पता होगा--यह मुझे पता नहीं--लेकिन जाने-अनजाने, कृष्ण का रेंज व्यक्तियों को छूने का सर्वाधिक है। अधिकतम व्यक्ति उनसे स्पर्शित हो सकते हैं। ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है, जिससे कृष्ण आलिंगन करने से इनकार करें; कहें कि तू हमारे लिए नहीं, हट! सबके लिए हैं। इसलिए सर्वाधिक के लिए होने से संभावना है।
और पूछा है कि क्या सिर्फ अंधविश्वास है?

नहीं, सिर्फ अंधविश्वास नहीं है। इस जगत में सत्य से भी बड़ा सत्य प्रेम है। और जिसके प्रति प्रेम है, उसके प्रति असत्य होना मुश्किल है। असल में जिसके प्रति प्रेम है, हम उसी के प्रति सत्य हो पाते हैं। जिंदगी में हम सत्य वहीं हो पाते हैं, जहां हमारा प्रेम है। और अगर प्रेमी के पास भी आप सत्य न हो पाते हों, तो समझना कि प्रेम का धोखा है।

अगर एक पति अपनी पत्नी से भी कुछ छिपाता हो और सत्य न हो पाता हो; एक पत्नी अपने पति से भी कुछ छिपाती हो और सत्य न हो पाती हो--कोई बड़ी बात नहीं, छोटी-मोटी बात भी छिपाती हो; अगर उसे क्रोध आ रहा हो और क्रोध को भी छिपाती हो--तो भी प्रेम की कमी है; तो भी प्रेम नहीं है। प्रेम अपने को पूरा नग्न उघाड़ देता है--सब तरह से, सब परतों पर।

अंधविश्वास कारण नहीं है। प्रेम की रग को पकड़ना जरूरी है, तो ही सत्य बुलवाया जा सकता है। यह भी मैं नहीं जानता कि अदालत को पता है या नहीं। क्योंकि अदालत को प्रेम का कुछ पता होगा, इसमें जरा संदेह है। लेकिन इतना तो मनस-शास्त्र कहता है कि अगर हम प्रेम की रग को पकड़ लें, तो आदमी के सत्य बोलने की सर्वाधिक संभावना है। बोलेगा कि नहीं, यह दूसरी बात है। लेकिन अधिकतम संभावना वहीं है, जहां प्रेम की रग को हम पकड़ लेते हैं। और जहां प्रेम नहीं है, वहां अधिकतम असत्य की संभावना है; क्योंकि सत्य का कोई कारण नहीं रह जाता है।

-- ओशो। from : ऑडियो बुक:गीता दर्शन

● सेक्स और भोजन का है गहरा सम्बन्ध



प्रश्न - मेरे बदन में बहुत काम-ऊर्जा
है. जब मैं नाचती हूं, कभी-कभी में
महसूस करती हूं कि मैं पूरी दुनिया को
खत्म कर दूंगी और किसी स्थिति में
इतना क्रोध और हिंसा मेरे भीतर
उबलती है कि मैं अपनी ऊर्जा को ध्यान
की तरफ नहीं ले जाती पाती हूं, यह मुझे
पागल कर देती है. मैं काम-वासना में
नहीं जाना चाहती हूं परंतु हिंसक ऊर्जा
ज्वालामुखी की तरह जल रही है. मेरे
लिए यह बर्दाश्त के बाहर है और यह
मुझे आत्महत्या करने जैसा लगता है.
कृपया कर मुझे समझाए कि कैसे मैं
अपनी ऊर्जा को सृजनात्मकता दूँ.
ओशो - यह समस्या मन की बनाई हुई
है. न कि ऊर्जा की. अपनी ऊर्जा की
सुनो. यह सही दिशा दिखा रही है. यह
काम-ऊर्जा नहीं है जो समस्या पैदा कर
रही है. यह कभी जानवरों में, वृक्षों में,
पक्षियों में किसी तरह की समस्या पैदा
नहीं करती. ऊर्जा समस्या पैदा करती है
क्योंकि तुम्हारे मन का ढंग गलत है.

यह प्रश्न भारतीय स्त्री का है. भारत
में सारा पालन-पोषण काम के विरोध में
है. तब तुम समस्या पैदा करते हो. और
तब, जहां कहीं ऊर्जा होगी तुम काम-
वासना महसूस करोगे क्योंकि कुछ
तुम्हारे भीतर अधूरा है. जो कुछ भी
अधूरा है वह इंतजार करेगा और वह
ऊर्जा को प्रभावित करेगा, ऊर्जा को
शोषण करेगा. 

सक्रिय ध्यान की विधियों में बहुत
ऊर्जा पैदा होती है. कई छुपे हुए स्त्रोत
खुलते है और नये स्त्रोत उपलब्ध होते
है. यदि काम अतृप्त रह जाता है तो
सारी ऊर्जा काम की तरफ बहने लगती
है. यदि तुम ध्यान करोगे तो ज्यादा से
ज्यादा कामुक महसूस करोगे.

भारत में एक घटना घटी है. काम-ऊर्जा
के कार जैन साधुओं ने ध्यान करना
एकदम बंद कर दिया. वे ध्यान को पूरी
तरह से भूल चुके है. क्योंकि वे काम का
इतना दमन कर रहे थे कि जब भी वे
ध्यान करते, ऊर्जा पैदा होती. ध्यान
तुम्हें बहुत ऊर्जा देता है. यह अनंत की
ऊर्जा को स्त्रोत है, तुम इसे खतम नहीं
कर सकते. तो जब भी ऊर्जा पैदा होती
वे कामुक महसूस करते. वे ध्यान से
डरने लगे. उन्होंने उसे छोड़ दिया. बहुत
महत्वपूर्ण बात जो महावीर ने उन्हें दी,
उसे उन्होंने छोड़ दिया, और गैर महत्व
की चीजें - व्रत-उपवास और रीतियां -
वे जारी रखे हुए है. वे काम के विपरीत
जीने के ढंग से मेल खाती है.

मैं काम के खिलाफ नहीं हूं क्योंकि मैं
जीवन के खिलाफ नहीं हूं. अंत: समस्या
वहां नहीं है जहां तुम सोच रहे हो,
समस्या तुम्हारे मन में है. न कि तुम्हारी
काम ग्रंथि में. तुम्हें अपना ढंग बदलना
होगा. वरना जो भी तुम करोगे ओ वह
कामुक हो जायेगा. तुम किसी को देखोगें
और तुम्हारी आंखें कामुक हो जायेगी.
तुम किसी को छूओगे और तुम्हारा
स्पर्श कामुक हो जायेगा. तुम कुछ
खाओगे और तुम्हारा खाना कामुक हो
जायेगा. 

जाओ और हिंदू साधुओं को देखो. वे मोटे
होते जाते है. वे भद्दे हो जाते है. वह
दूसरी अति है. एक अति पर जैन साधु है
जो खा नहीं सकते क्योंकि जैसे वे
खाएंगे, भोजन ऊर्जा पैदा करेगा और
ऊर्जा तत्काल इंतजार करती हुई अतृप्त
वासनाओं की तरफ बहेगी. पहले वह वहां
जाती है जहां अपूर्ण इच्छाएं बीच में
लटकी है - वह पहले जरूरत है इसलिए
ऊर्जा पहले वहां बहती है. शरीर का
अपना हिसाब है : जहां कही पहले ऊर्जा
की जरूरत है, प्राथमिकता है. एक
व्यक्ति जो काम का विरोध कर रहा है
उसका काम पहली प्राथमिकता होगी - 
काम सूची में प्रथम होगा. और जब
कभी ऊर्जा उपल्बध होगी तो वह सबसे
ज्यादा अतृप्त इच्छा की तरफ बहेगी.
इसलिए जैन साधु ठीक से खा नहीं
सकते. वे डरे हुए है. और हिंदू साधु
बहुत खाते है. समस्या एक ही है परंतु
वे इसका निदान दो विपरीत ढंगों से करते
है.

यदि तुम बहुत ज्यादा खाते हो तो तुम
खाने से पेट को भरकर, एक निश्चित
तरह का काम का मजा लेने लगते हो.
बहुत ज्यादा भोजन आलस्य लाता है.
और बहुत ज्यादा भोजन हमेशा प्रेम का
परिपूर्वक है. क्योंकि बच्चा जिस पहली
चीज से संपर्क में आता है. वह है मां का
स्तन. स्तन दुनिया का पहला अनुभव है
और स्तन बच्चे को दो चीजें देता है.
प्रेम और भोजन.

इसलिए प्रेम और भोजन बहुत गहरे में
एक दूसरे से जुड़े है. जब भी प्रेम का
अभाव होगा, तुम्हारा बचकाना मन
सोचगा, ‘’ज्यादा भोजन खाओ, इसे भरों.
तुमने कभी ख्याल किया है. जब तुम
बहुत ज्यादा प्रेम में होते हो. तब
तुम्हारे खाने की इच्छा नहीं होती. तुम्हें
बहुत ज्यादा भूख नहीं लगती है. परंतु
जब कभी प्रेम नहीं होगा, तुम बहुत
ज्यादा खाने लगते हो. तुम नहीं जानते
कि अब क्या करना. प्रेम कुछ निश्चित
जगह भर रहा था. अब वह जगह खाली
है. और भोजन के अलावा कोई और चीज
नहीं जानते जिससे इसे भरों. तुम प्रकृति
को मना करके, प्रकृति का तिरस्कार
करके समस्या पैदा करते हो. 

मैं प्रश्न कर्ता को कहना चाहता हूं कि
वह ध्यान का सवाल नहीं है. तुम्हें प्रेम
की जरूरत है. तुम्हें प्रेमी चाहिए. और
तुम्हें प्रेम में डूबने की हिम्मत की
जरूरत है.

प्रेम में डूबना कठिन है - वहां कई छुपे
हुए भय है. प्रेम जितना भय पैदा करता
है उतना और कुछ नहीं कर सकता.
क्योंकि जिस क्षण तुम दूसरे की और
पहुंचना शुरू करते हो, तुम स्वयं से बाहर
आते हो. और किसे पता दूसरा तुम्हें
स्वीकार भी सकता है. और तिरस्कार
भी. भय खाड़ा होता है. तुम हिचकिचाहट
महसूस करने लगते हो - आगे बढ़ा जाये
या नहीं, दूसरे तक पहुंचा जाये या नहीं.
यहीं कारण है कि अतीत की डरपोक
पीढ़ियों ने प्रेम की जगह शादी स्वीकार
कर ली. क्योंकि यदि लोग प्रेम के लिए
खुले छोड़ दिये गये, बहुत कम लोग प्रेम
करने में कामयाब होंगे. अधिकतर प्रेम
के बिना मर जाएंगे; वे जियेंगे और बिना
प्रेम के जीवन घसीटते रहेंगे.

क्योंकि प्रेम खतरनाक है...... जिस
क्षण तुम किसी दूसरे व्यक्ति की तरफ
बढ़ने लगते हो तुम दूसरी दुनिया के
संपर्क में आने लगते हो. कौन जाने, तुम
स्वीकार होगा या तिरस्कार. तुम कैसे
जान सकेत हो. कि दूसरा तुम्हारी जरूरत
और इच्छा के लिए हां कहेगा या नहीं.
कि दूसरा करूणा पूर्ण, प्रेम पूर्ण होगा.
तुम कैसे जान सकते हो. वह तुम्हें
अस्वीकार कर सकता है. हो सकता है,
वह ना कहे. तुम कह सकते हो, ‘’मैं तुम्हें
प्रेम करता हूं, परंतु क्या पक्का है कि
वह भी तुम्हारे लिए प्रेम महसूस करे.
यह हो सकता है वह तुम्हारे लिए न
कहे. यह कुछ पक्का नहीं है. अस्वीकार
का भय बहुत तोड़ देने वाला है.

इसलिए चतुर और सयाने लोगों ने तया
किया है, कि इस और जाना ही नहीं
चाहिए. अपने तक रहो, कम से कम
अस्वीकार तो नहीं, और तुम अपने
अहंकार को सतत फूला सकते हो, कि
किसी ने तुम्हें कभी अस्वीकार नहीं
किया, यह अहंकार पूरी तरह से नपुसंक
हो और तृप्ति दायक न हो तब भी तुम
किसी के लिए जरूरत हो; तुम चाहते हो
को तुम्हें कोई स्वीकारे; तुम चाहते हो
कि कोई तुम्हें प्रेम करे क्योंकि मात्र
जब कोई दूसरा तुम्हें प्रेम करे; तुम
अपने को प्रेम करने में समर्थ होओगे,
इसके पहले नहीं. जब कोई दूसरा तुम्हें
स्वीकार करता है. तब तुम अपने को
स्वीकारते हो, इसके पहले नहीं. जब
कोई दूसरा तुम्हारे साथ खुशी महसूस
करने लगता है. इसके पहले नहीं. दूसरा
आईना बन जाता है.

प्रत्येक रिश्ता आईना है. यह तुम्हें
प्रतिबिंबित करता है. बिना आईने के तुम
कैसे अपने को जान सकते हो. कोई और
राह नहीं है. दूसरों  की आंखें आईने जैसी
हो जाती है. और जब कोई तुम्हें प्रेम
करता है वह आईना तुम्हारे प्रति बहुत-
बहुत ज्यादा प्रेमपूर्ण होगा; तुम्हारे
साथ बहुत ज्यादा खुश: तुम्हारे साथ
आनंदित उन आनंदित आंखों में तुम
प्रतिबिंबित होते हो. और पहली बार
एक अलग ही तरीके का स्वीकार भाव
पैदा होता है.

अन्यथा प्रारंभ से ही तुम अस्वीकार
होते रहे हो. यह गंदे समाज का हिस्सा
है कि प्रत्येक बच्चा महसूस करता है
कि स्वंय के लिए वह स्वीकार नहीं है.
यदि वह कुछ अच्छा करता है - तो
निश्चित ही मां-बाप को निश्चित अच्छा
लगता है. यदि वह करता है, तो वह
स्वीकार है. यदि वह कुछ गलत करता
है - जो मां-बाप गलत मानते है. वह
अस्वीकृत है. देर-सवेर बच्चा महसूस
करने लगता है, मैं अपने लिए स्वीकार
नहीं हूं. जैसा मैं हूं, सहज परंतु जो मैं
करता हूं उसके लिए स्वीकृत हूं. मुझे
प्रेम नहीं किया जाता परंतु मेरे कृत्य को
प्रेम किया जाता है. और यह स्वयं के
लिए गहन अस्वीकार पैदा करता है,
स्वयं के लिए गहन घृणा. वह स्वयं से
नफरत करने लगता है.

❤🐬❤ 

आतंकवाद



चीजे अंतर्सम्बंधित है !  सबसे पहली बात बदलनी है वह है, मनुष्य को उत्सव की कला सिखानी चाहिए। इसे सारे धर्मों ने मार डाला है। जो असली मुजरिम हैं, उन्हें तो गिरफ्तार नहीं किया जाता। ये आतंकवादी और अन्य अपराधी तो शिकार हैं, ये तो तथाकथित धर्म हैं जो वास्तविक मुजरिम हैं, क्योंकि उन्होंने मनुष्य की आनंद की सारी संभावना को ही नष्ट कर डाला है। उन्होंने जीवन की छोटी-छोटी खुशियों का मजा लेने की संभावना को ही जला दिया।उन्होंने उस सब को निंदित कर दिया जो प्रकृति ने तुम्हें आनंदित होने के लिए दिया है- जिससे तुम उत्तेजित होते हो, 'आदमी के अंदर बसा हुआ प्राचीन शिकारी युद्ध में संतुष्ट हो जाता था। अब युद्ध की संभावना न रही, और शायद अब कभी नहीं होगा। उस शिकारी ने पुनः सिर उठाया है; और सामूहिक रूप से हम लड़ नहीं सकते 'प्रसन्न होते हो। उन्होंने सब कुछ छीन लिया। और कुछ चीजें ऐसी हैं, जिन्हें वे नहीं छीन सकते क्योंकि वे तुम्हारी जैविकी का हिस्सा हैं- जैसे कि सेक्स, उन्होंने इसे इतना निंदित किया कि वह विषाक्त हो गया है।जो व्यक्ति सुविधा में या ऐशो-आराम में जी रहा है, वह कभी आतंकवादी नहीं हो सकता। धर्मों ने ऐश्वर्य की निंदा की और गरीबी की प्रशंसा की। अब धनी आदमी कभी आतंकवादी नहीं हो सकता। सिर्फ गरीब, जो कि 'धन्यभागी हैं'- वे ही आतंकवादी हो सकते हैं। उनके पास खोने को कुछ नहीं है। और वे समूचे समाज के खिलाफ उबल रहे हैं, क्योंकि सभी उच्च वर्ग के पास वे चीजें हैं, जो इनके पास नहीं हैं।लोग भय में जी रहे हैं, नफरत में जी रहे हैं, आनंद में नहीं। अगर हम मनुष्य के मन का तहखाना साफ कर सकें... और उसे किया जा सकता है।ध्यान रहे, आतंकवाद बमों में नहीं हैं, किसी के हाथों में नहीं है, वह तुम्हारे अवचेतन में है। यदि इसका उपाय नहीं किया गया तो हालात बदतर से बदतर होते जाएँगे। और लगता है कि सब तरह के अंधे लोगों के हाथों में बम हैं। और वे अंधाधुंध फेंक रहे हैं। हवाई जहाजों में, बसों और कारों में, अजनबियों के बीच... अचानक कोई आकर तुम पर बंदूक दाग देगा। और तुमने उसका कुछ बिगाड़ा नहीं था।तो व्यक्तिगत हिंसा में वृद्धि होगी... हो ही रही है। और तुम्हारी सरकारें और तुम्हारे धर्म नई स्थिति को समझे बगैर पुरानी रणनीतियों को अपनाए चले जाएँगे। नई स्थिति यह है कि प्रत्येक मनुष्य को आतंरिक चिकित्सा से गुजरना जरूरी है, उसे अपने अवचेतन उद्देश्यों को समझना जरूरी है। प्रत्येक को ध्यान करना आवश्यक है ताकि वह शांत हो जाए, उसकी तल्खी ठंडी हो जाए और वह संसार को नए परिप्रेक्ष्य से देखे, मौन से सराबोर हो जाए।

Friday, December 11, 2015

जानिए कौन है ओशो....


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 जानिए कौन है ओशो....
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सीक्रेट ऑफ ओशो
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(11 दिसम्बर 1931-19 जनवरी 1990)
 

11 दिसंबर 1931 को जब मध्यप्रदेश के कुचवाड़ा गाँव (रायसेन जिला) में ओशो का जन्म हुआ तो कहते हैं कि पहले तीन दिन न वे रोए, न दूध पिया- जैसे कि सात सौ वर्ष पूर्व का इक्कीस दिवसीय उपवास पूरा कर रहे हों। उनकी नानी ने एक प्रसिद्ध ज्योतिषी से ओशो की कुंडली बनवाई, जो अपने आप में काफी अद्भुत थी।

कुंडली पढ़ने के बाद वह बोला, यदि यह बच्चा सात वर्ष जिंदा रह जाता है, उसके बाद ही मैं इसकी मुकम्मल कुंडली बनाऊँगा- क्योंकि इसके लिए सात वर्ष से अधिक जीवित रहना असंभव ही लगता है, इसलिए कुंडली बनाना बेकार ही है।

सात वर्ष की उम्र में ओशो के नाना की मृत्यु हो गई तब उनकी लाश ओशो के सामने पड़ी थी और पूरी रात वे उनकी नानी के साथ थे। ओशो अपने नाना से इस कदर जुड़े थे कि उनकी मृत्यु उन्हें अपनी मृत्यु लग रही थी वे सुन्न और चुप हो गए थे लगभग मृतप्राय। लेकिन वे बच गए और सात वर्ष की उम्र में उन्हें मृत्यु का एक गहरा अनुभव हुआ।
ज्योतिष ने कहा था कि 7 वर्ष की उम्र में बच गया तो 14 में मर सकता है और 14 में बचा तो 21 में मरना तय है, लेकिन यदि 21 में भी बच गया तो यह विश्व विख्यात होगा।

14 वर्ष की उम्र में उनके शरीर पर एक जहरिला सर्प बहुत देर तक लिपटा रहा। फिर 21 वर्ष की उम्र में उनके शरीर और मन में जबरदस्त परिवर्तन होने लगे उन्हें लगा कि वे अब मरने वाले हैं तो एक वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गए, जहाँ उन्हें संबोधि घटित हो गई। बस यही से दुनिया का भविष्य तय हो गया।
बुद्ध आए और चले गए। उनके जाने के 300 वर्ष बाद के काल में दुनिया पूर्णत: बदल गई। ईसा आए और चले गए और उनके जाने के बाद दुनिया में जबरदस्त बदलाव हआ। मोहम्मद आए और चले गए लेकिन आज सब जानते हैं कि दुनिया कितनी बदल गई है। निश्चित ही उनके जीवित रहते दुनिया में कोई बदलाव नहीं हुआ। बदलाव तो तब होने लगता है जबकि उनके विचारों की सुगंध धीरे-धीरे धरती के कोने-कोने में फैल जाती है।

बदलाव की बहार : 
ओशो के विचार सृजन के हर क्षेत्र में बदलाव ला रहे हैं जैसे कि बदलने लगा है हमारा साहित्यकार, हमारा फिल्मकार और हमारा व्यापारी। बदल रही है राजनीति और विश्व की सरकारों की सोच। ओशो के संन्यासी विश्व के प्रत्येक देश में ओशो के विचारों को प्रसारित और प्रकाशित करने में लगे हैं।
ओशो ने जीवन में कभी कोई किताब नहीं लिखी। मगर दुनिया भर में हुए संतों और अद्यात्मिक गुरुओ की श्रृंखला में वे एक मात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिनका बोला गया एक-एक शब्द प्रिंट, ऑडिओ और वीडिओ में उपलब्ध है। आज हैरी पाटर के बाद ओशो ही एक ऐसी शख्सियत हैं जिनको दुनिया भर में सबसे अधिक पढ़ा जाता हैं। हैरी पाटर का विश्व की सबसे ज्यादा भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। इसके बाद अगर किसी और पुस्तक का स्थान है तो वह ओशो की किताबें हैं।

दुनिया में कहीं न कहीं किसी न किसी भाषा में हर रोज ओशो की एक पुस्तक प्रकाशित हो रही है। ओशो इंटरनेशनल मेडिटेशन रिजोर्ट पुणे के अनुसार हैरी पाटर की किताब का विश्व की 64 भाषाओं में अनुवाद हो चुका है जबकि ओशों की किताबें 54 भाषाओं में अनुदित हो चुकी हैं। आने वाले समय में विश्व की सभी भाषाओं में प्रकाशित करने का लक्ष्य रखा है। ओशों की पुस्तकों के लिए इस समय दुनिया की 54 भाषाओं में 2567 प्रकाशन करार हुए हैं। इनमें प्रकाशित होने वाले ओशो साहित्य की सालाना बिक्री तीस लाख प्रतियों तक होती है।

आज की तारीख में दुनिया भर में ओशों के प्रकाशकों की संख्या 212 तक पहुँच चुकी है। इनमें दुनियाभर के सबसे बड़े और सबसे ज्यादा प्रकाशनों वाली संस्था भी शामिल है। ये हैं न्यूयॉर्क के रेंडम हाउस और सेंट मार्टिन प्रेस, इटली के बोम्पियानी और मंडरडोरी, स्पेन के मोंडाडोरी रेंडम हाउस तथा भारत के पुणे जैसे संस्थान। पहले ओशो की पुस्तकों को तीन से पाँच हजार पुस्तक की दर से छापा जाता था वहीं अब उसका पहला मुद्रण 25 हजार तक होना मामूली बात है।

ओशो साहित्य की लोकप्रियता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि ओशो की आत्मकथा नामक पुस्तक के पहले संस्करण की दस हजार सजिल्द प्रतियाँ इटली में केवल एक महीने में ही बिक गई। स्पेनिश भाषा में ओशो की पुस्तकों की सालाना बिक्री ढाई लाख से भी अधिक है।

ओशो की पुस्तक जीवन की अभिनव अंतदृष्टि का पेपरबैंक संस्करण सारी दुनिया में बेस्ट सेलर साबित हुआ है। वियतनामी, थाई और इंडोनेशियाई समेत 18 भाषाओं में इसकी दस लाख से अधिक प्रतियाँ बिक चुकी हैं। भारतीय भाषाओं में हिन्दी के अलावा तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मराठी, गुजराती, गुरुमुखी, बंगाली, सिंधी तथा उर्दू में ओशो की पुस्तकें अनुदित हो चुकी हैं। हिन्दी और अंग्रेजी में एक साल में ओशो की करीब 50 हजार पुस्तकें बिकती हैं। इतनी ही अकेले तमिल में बिकती हैं। पूरे देश में आज पूना एकमात्र ऐसा शहर है जहाँ से सबसे अधिक कोरियर और डाक विदेश जाती है।

OSHO का जन्म दिवस 11-दिसम्बर



🌻विश्वविख्यात दार्शनिक आचार्य रजनीश, जिन्हें पूरा संसार ओशो के नाम से जानता है। 

🌻ओशो का जन्म कुचवाड़ा (रायसेन, मप्र) में हुआ, बचपन गाडरवारा में बीता और उच्च शिक्षा जबलपुर में हुई। ओशो के जीवन के कई अनछुए पहलू हैं, उन्होंने जीवन के रहस्यों को किशोरावस्था के दौरान गाडरवारा में ही जान लिया।न हंसे और न रोएपरंपरा रही है कि पहला बच्चा नाना-नानी के घर पर होगा। ओशो का जन्म भी नाना के यहां कुचवाड़ा में हुआ। ओशो जब पैदा हुए तो तीन दिनों तक न तो रोए और न ही हंसे। ओशो के नाना-नानी इस बात को लेकर परेशान थे लेकिन तीन दिनों के बाद ओशो हंसे और रोए। नाना-नानी ने नवजात अवस्था में ही ओशो के चेहरे पर अद्भुत आभामण्डल देखा। 

🌻अपनी किताब 'स्वर्णिम बचपन की यादें' में इस बात का उन्होंने जिक्र किया है।बेहद शरारती और निर्भीकओशो के बालसखा स्वामी शुक्ला बताते हैं कि बचपन में ओशो न केवल बेहद शरारती थे, बल्कि निडर भी थे। वे 12-13 वर्ष की उम्र में रातभर श्मशानघाट पर यह पता लगाने के लिए जाते थे कि आदमी मरने के बाद कहां जाता है। 

🌻एक बार उन्होंने जिद पकड़ ली कि स्कूल जाएंगे तो सिर्फ हाथी पर, उनके पिता ने हाथी बुलवाया और तब कहीं जाकर ओशो स्कूल गए। 

🌻बचपन में नदी में नहाने के दौरान ओशो अपने साथियों को पानी में डुबा दिया करते थे और उन्हें कहते थे कि मैं यह देखना चाहता हूं कि मरना क्या होता है।

🌻एक दिन में पढ़ते थे तीन पुस्तकेंप्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के दौरान जब बच्चे और किशोर कहानियों और काल्पनिक दुनिया में डूबे रहते हैं तब ओशो ने न सिर्फ जीवन के रहस्यों को समझाने वाली, बल्कि पूरी दुनिया के लोगों और उनसे संबंधित किताबों का अध्ययन कर डाला। ओशो केपढ़ने की जिज्ञासा का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि गाडरवारा के बहुत पुराने श्री सार्वजनिक पुस्तकालय में वे एक दिन में तीन किताबें पढ़ा करते थे। अगले दिन फिर वे इन किताबों को जमा करके नयी किताबें ले जाया करते थे। आज भी ओशो के हस्ताक्षर की हुईं किताबों की धरोहर इस पुस्तकालय में सहेजकर रखी गई है।उस समय ओशो अपना नाम रजनीश चंद्रमोहन लिखा करते थे। इस समय ओशो ने जर्मनी के इतिहास, हिटलर, मार्क्स, भारतीय दर्शन आदि से संबंधित किताबों का अध्ययन कर डालाथा।

🌻कभी पुल से कूदकर, तो कभी कुएं में उतरकर नहाना ओशो के बालसखा बताते हैं कि लोग रजनीश को अजीब कहा करते थे। 

🌻जहां ओशो रहा करते थे वह स्थान आज प्रभु निवास के नाम से एक धर्मशाला के रूप में परिवर्तित हो चुका है। इसी में एक कमरे में ओशो रहा करते थे और इसी भवन में एक कुआं है जिसमें सीढ़ियां बनी हुई हैं। इस कुएं के अंदर उतरकर ओशो घंटों नहाया करते थे। इसी तरह गाडरवारा की शक्कर नदी पर बने रेलवे पुल से कूदकर भी उन्होंने जलक्रीड़ा की है। शक्कर नदी के रामघाट पर भी वे घंटों नदी में डूबे रहते थे।

🌻ज्योतिषियों की भविष्यवाणीओशो के नाना ने बनारस के एक पंडित से उनकी कुण्डली बनवाई। पंडित द्वारा यह कहा गया कि जीवन के 21 वर्ष तक प्रत्येक सातवें वर्ष में इस बालक को मृत्यु का योग है। ओशो अपने नाना और नानी को सर्वाधिक चाहते थे और उन्हीं के पास अधिकांश समय रहा करते थे। 

🌻उनके जीवन के सातवें वर्ष में ओशो के नाना बीमार हुए और बैलगाड़ी से इलाज के लिए ले जाते समय ओशो भी उनके साथ थे, तभी उनकी मृत्यु हो गई। ओशो ने इस समय मृत्यु को इतने करीब से देखा कि उन्हें स्वयं की मृत्यु जैसामहसूस हुआ। जब ओशो 14 वर्ष के हुए तो उन्हें मालूम था कि पंडित ने कुण्डली में मृत्यु का उल्लेख किया हुआ है। इसी को ध्यान में रखकर ओशो शक्कर नदी के पासस्थित एक पुराने शिव मंदिर में चले गए और सात दिनों तक वहां लेटकर मृत्यु का इंतजार करते रहे। सातवें दिन वहां एक सर्प आया, तो ओशो को लगा कि यही उनकी मृत्यु है लेकिन सर्प चला गया। इस घटना ने ओशो का मृत्यु से साक्षात्कार कराया और उन्हें मृत्युबोध हुआ।बन गया ओशोलीला आश्रमजहां ओशो ने अपने बाल्यकाल की क्रीड़ाएं खेलीं और जहां उन्हें मृत्युबोध हुआ था,उसी स्थान पर ओशो लीला आश्रम का निर्माण किया गया है, जहां हमेशा ध्यान शिविरों का संचालन किया जाता है। इसके संचालक स्वामी राजीव जैन बताते हैं कि हमारा प्रयास ओशो की धरोहरों और उनकी यादों को सहेजने का मात्र है जिससे आज उन्हें करीब से महसूस करने का मौका लोगों को मिल सके।

🌻मृत्युबोध वाला प्राचीन मंदिरसंबोधि दिवस पर इसका जिक्र शायद सबसे महत्वपूर्ण है। गाडरवारा की शक्कर नदी के किनारे गर्राघाट पर एक पुराना मंदिर था। इसी के पास ओशो घंटों बैठकर ध्यान में डूबे रहते थे। यहीं पास में एक मग्गा बाबा रहा करते थे जिनसे ओशो को अत्यंत लगाव था। इन्हीं मग्गा बाबा का जिक्र ओशो ने अपनी किताबों में भी किया हुआ है। इसी मंदिर के पास उन्हें मृत्युबोध हुआ था और वे जीवन के रहस्यों को समझने लगे थे। यही वो क्षण था जब ओशो के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ।
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🙏ओशो का जीवनवृत्त🙏

🌻11 दिसंबर 1931 को ननिहाल कूचवाड़ा में जन्मे रजनीश चन्द्रमोहन जैन 🌻1939 में अपने माता-पिता के पास गाडरवारा नरसिंहपुर में आकर रहने लगे। 

🌻1951 में उन्होंने स्कूल की शिक्षा पूरी की और दर्शनशास्त्र पढ़ने का निर्णय लिया। 

🌻इस सिलसिले में 1957 तक जबलपुर प्रवास पर रहे। 

🌻इसके बाद आचार्य रजनीश नाम के साथ 1970 तक शिक्षण और भ्रमण की दिशा में संलग्न हो गए। तदन्तर 1970 से 74 तक मुंबई में भगवान श्री रजनीश नाम से प्रवचन किए। 

🌻उसके उपरांत 1981 तक पूना आश्रम में रहकर एक से बढ़कर एक प्रवचनों की बौछार कर दी। 

🌻1981 में पूना से अमेरिका गए और वहां 1985 तक रहकर पूरी दुनिया को अपनी क्रांतिकारी-देशना से हिलाकर रख दिया। 

🌻1985 में अमेरिका से निकलकर विश्व-भ्रमण पर चले गए। 

🌻1987 में दोबारा ओशो नाम के साथ पूना आगमन हुआ और 19 जनवरी 1990 को वे इन दुनिया से महाप्रयाण कर गए।

🌻35 साल जमकर बोले..ओशो ने अपने संपूर्ण जीवनकाल में 35 साल तक जमकर बोलने का कीर्तिमान बनाया। उनके प्रवचन 5 हजार घंटों की रिकॉर्डिंग व 650 से अधिक पुस्तकों की शक्ल में उपलब्ध हैं। युक्रांद, रजनीश टाइम्स, ओशो टाइम्स, ओशो वर्ल्ड, यैस ओशो जैसी पत्रिकाएं उनके विचारों की प्रचारक रही हैं। देश-विदेश में कई ओशो आश्रम संचालित हैं। उनका संदेश था कि जन्म और मृत्यु, जीवन के दो छोर नहीं हैं, जीवन में बहुत बार जन्म, बहुत बार मृत्यु घटती है। जीवन का अपना कोई प्रारंभ नहीं है,कोई अंत नहीं है, जीवन और शाश्वतता समान हैं। वे कहते हैं ध्यान है तो सब है ध्यान नहीं तो कुछ भी नहीं। 
🌻"उत्सव आमार जाति, उत्सव आमार गोत्र "
यह भी उनका महासंदेश था। वे पृथ्वी पर ऐसे मानव की कल्पना कर गए जो भौतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से परिपूर्ण हो, इसे उन्होंने जोरबा दि बुद्धा नाम दिया। महासागर की पुकार ओशो का कहना था कि ओठों से कहोगे, बात थोथी और झूठी हो जाएगी। 
प्राणों से कहनी होगी। 

🌻और जहां आनंद है, वहां प्रेम है और जहां प्रेम है वहां परमात्मा है।

Wednesday, December 9, 2015

तुम ध्यान करो मत,ध्यान में हो जाओ....


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बुद्ध कहते है कि जीवन है, जीवन की प्रक्रिया है, लेकिन भीतर कोई भी नहीं है जो जीवंत है। और फिर मृत्यु होती है। लेकिन कोई मरता नहीं है। बुद्ध के लिए तुम बंटे हुए नहीं हो। भाषा द्वौत निर्मित करती है। मैं बोल रहा हूं। ऐसा लगता है कि मैं कोई हूं जो बोल रहा है। लेकिन बुद्ध कहते है कि केवल बोलना हो रहा है। बोलने वाला कोई नहीं है। यह एक प्रक्रिया है। जो किसी से संबंधित नहीं है।
लेकिन हमारे लिए यह कठिन है। क्योंकि हमारा मन द्वैत में गहरा जमा हुआ है। हम जब भी किसी क्रिया की बात सोचते है तो हम भीतर किसी कर्ता के बारे में सोचते है। यही कारण है कि ध्यान के लिए कोई शांत, निष्क्रिय मुद्रा अच्छी है क्योंकि तब तुम खालीपन में अधिक सरलता से उतर सकते हो।
बुद्ध कहते है, ‘ध्यान करो मत, ध्यान में होओ।’
अंतर बड़ा है। मैं दोहराता हूं, बुद्ध कहते है, ध्यान करो मत, ध्यान में होओ।‘ क्योंकि यदि तुम ध्यान करते हो तो कर्ता बीच में आ गया। तुम यही सोचते रहोगे कि तुम ध्यान कर रहे हो। तब ध्यान एक कृत्य बन गया। बुद्ध कहते है, ध्यान में होओ। इसका अर्थ है पूरी तरह निष्क्रिय हो जाओ। कुछ भी मत करो। मत सोचो कि कहीं कोई कर्ता है।
ओशो

हंसी ध्यान

हंसना कुछ ऊर्जा तुम्हारे अंतर्केंद्र से परिधि पर ले आती है। ऊर्जा हंसने के पीछे छाया की भांति बहने लगती है। तुमने कभी इस पर ध्यान दिया? जब तुम वास्तव में हंसते हो, तो उन थोड़े से क्षणों के लिए तुम एक गहन ध्यानपूर्ण अवस्था में होते हो। विचार प्रक्रिया रुक जाती है। हंसने के साथ-साथ विचार करना असंभव है। वे दोनों बातें बिलकुल विपरीत हैं: या तो तुम हंस सकते हो, या विचार ही कर सकते हो। यदि तुम वास्तव में हंसो तो विचार रुक जाता है। यदि तुम अभी भी विचार कर रहे हो तो तुम्हारा हंसना थोथा और कमजोर होगा। वह हंसी अपंग होगी।

जब तुम वास्तव में हंसते हो, तो अचानक मन विलीन हो जाता है। जहां तक मैं जानता हूं, नाचना और हंसना सर्वोत्तम, स्वाभाविक व सुगम द्वार हैं। यदि सच में ही तुम नाचो, तो सोच-विचार रुक जाता है। तुम नाचते जाते हो, घूमते जाते हो, और एक भंवर बन जाते हो--सब सीमाएं, सब विभाजन समाप्त हो जाते हैं। तुम्हें इतना भी पता नहीं रहता कि कहां तुम्हारा शरीर समाप्त होता है और कहां अस्तित्व शुरू होता है। तुम अस्तित्व में पिघल जाते हो और अस्तित्व तुममें पिघल आता है; सीमाएं एक-दूसरे में प्रवाहित हो जाती हैं। और यदि तुम सच ही नाच रहे हो--उसे नियंत्रित नहीं कर रहे बल्कि उसे स्वयं को नियंत्रित कर लेने दे रहे हो, स्वयं को वशीभूत कर लेने दे रहे हो--यदि तुम नृत्य से वशीभूत हो जाओ, तो सोच-विचार रुक जाता है।

हंसने के साथ भी ऐसा ही होता है। यदि तुम हंसी से आविष्ट और आच्छादित हो जाओ तो सोच-विचार रुक जाता है।

निर्विचार की दशा के लिए हंसना एक सुंदर भूमिका बन सकती है।

हंसी ध्यान के लिए निर्देश
हर सुबह जब जागें, तो अपनी आंखें खोलने से पहले, शरीर को बिल्ली की तरह तानें। तीन या चार मिनट बाद, आंखें बंद रखे हुए ही, हंसना शुरू करें। पांच मिनट के लिए बस हंसें ही। पहले-पहले तो आप इसे सप्रयास करेंगे, लेकिन शीघ्र ही आपके प्रयास से पैदा की गई ध्वनि प्रामाणिक हंसी को जगा देगी। स्वयं को हंसी में खो दें। शायद इस घटना को वास्तव में घटने में कई दिन लग जाएं, क्योंकि हम इससे बहुत अपरिचित हैं। परंतु शीघ्र ही यह सहज हो जाएगा और आपके पूरे दिन का गुण ही बदल जाएगा।

हंसते हुए बुद्ध
जापान में हंसते हुए बुद्ध, होतेई की एक कहानी है। उसकी पूरी देशना ही बस हंसना थी। वह एक स्थान से दूसरे स्थान, एक बाजार से दूसरे बाजार घूमता रहता। वह बाजार के बीचों-बीच खड़ा हो जाता और हंसने लगता--यही उसका प्रवचन था।
उसकी हंसी सम्मोहक थी, संक्रामक थी--एक वास्तविक हंसी, जिससे पूरा पेट स्पंदित हो जाता, तरंगायित हो जाता। वह हंसते-हंसते जमीन पर लोटने लगता। जो लोग जमा होते, वे भी हंसने लगते, और फिर तो हंसी फैल जाती, हंसी की तूफानी लहरें उठतीं, और पूरा गांव हंसी से आप्लावित हो जाता।

लोग राह देखते कि कब होतेई उनके गांव में आए, क्योंकि वह अद्भुत आनंद और आशीष लेकर आता था। उसने कभी भी एक शब्द नहीं बोला--कभी भी नहीं। तुम बुद्ध के बारे में पूछो और वह हंसने लगता; तुम बुद्धत्व के बारे में पूछो और वह हंसने लगता; तुम सत्य के बारे में पूछते कि वह हंसने लगता। हंसना ही उसका एकमात्र संदेश था।

शराब बड़ी व्‍यापक घटना है



हम तो आपने को एक मादक बिन्दु बनाना चाहते है। जिसमें चारों तरफ, जिसके व्यक्तित्व में शराब हो और खींच ले। और महावीर कहते है कि जो दूसरे को खींचने जायेगा, वह पहले ही दूसरों से खिंच चुका है। जो दूसरों के आकर्षण पर जीयेगा वह दूसरों से आकर्षित है। और जो अपने भीतर मादकता भरेगा, बेहोशी भरेगा, लोग उसकी तरफ खीचेंगें जरूर,लेकिन वह अपने को खो रहा है और डूबा रहा है। और एक दिन रिक्त हो जायेगा, आरे जीवन के अवसर से चूक जायेगा।


निश्चित ही, एक स्त्री जो होश पूर्ण हो, कम लोगों को आकर्षित करेगी। एक स्त्री जो मदमस्त हो, ज्यादा लोगों को आकर्षित करेंगी। क्योंकि जो मदमस्त स्त्री…..पशु जैसी हो जायेगी। सारी सभ्यता, सारे संस्कार, सारा जो ऊपर थ वह सब टूट जायेगा। वह पशुवत हो जायेगी। एक पुरूष भी,जो मदमस्त हो, ज्यादा लोगों को आकर्षित, ज्यादा स्त्रियों को आकर्षित कर लेगा, क्योंकि वह पशुवत हो जायेगा। उसमें ठीक पशुता जैसी गति आ जायेगी। और सब वासनाएं पशु जैसी हों तो ज्यादा रसपूर्ण हो जाती है। इसलिए जिन मुल्कों में भी कामवासना प्रगाढ़ हो जायेगी। उन मुल्कों में शराब भी प्रगाढ़ हो जायेगी। सच तो यह है कि फिर बिना शराब पिये कामवासना में उतरना मुश्किल हो जायेगा। क्योंकि वह थोड़ी सी जो समझ है वह जो बाधा डालती है। शराब पीकर आदमी फिर ठीक पशुवत व्यवहार कर सकता है।


यह जो हमारी वृति है कि हम किसी को आकर्षित करें, अगर आप आकर्षित करना चाहते है किसी को तो आपको किसी न किसी मामले में मदमस्त होना चाहिए। जो राजनीतिज्ञ नेता पागल की तरह बोलता है, जो पागल की तरह आश्वासन देता है,जो कहता है कि कल मेरे हाथ में ताकत होगी स्वर्ग आ जायेगा पृथ्वी पर, वह ज्यादा लोगों को आकर्षित करता है। जो समझदारी की बातें करता है, उससे कोई आकर्षित नहीं होता। जिस अभिनेत्री की आंखों में शराब आपकी तरफ बहती हुई मालूम पड़ती है, वह आकर्षित करती है। अभिनेत्री के पास बुद्ध जैसी आँख हो, तो आप पागल जैसे गये हो तो शांत होकर घर लौट आयेंगे। उसके पास आँख चाहिए जिसमें शराब का भाव हो। मदहोश आँख चाहिए। उसके चेहरे पर जो रौनक हो, वह उसको जगाती न हो सुलाती हो।


जहां भी हमें बेहोशी मिलती है, वहां हमें रस आता है। जिस चीज को भी देखकर आप अपने को भूल जाते है, समझना कि वहां शराब है। जिस चीज को भी देखकर आप अपने को भूल जाते है, अगर एक अभिनेत्री को देखकर आपको अपना ख्याल नहीं रह जाता, तो आप समझना कि वहां बेहोशी है, शराब है। और शराब ही आपको खींच रही है। शराब,शराब की बोतलों में ही नहीं होती, आँखों में भी होती है। वस्त्रों में भी होती है। चेहरों में भी होती है। हाथों में , चमड़ी में भी होती है। शराब बड़ी व्यापक घटना है।


महावीर कहते है कि जो व्यक्ति इस तरह के रसों का सेवन करता है जो मादक है, और जो अपने भीतर की मादकता को मिटाता नहीं, बढ़ता है, उसकी तरफ वासनाएं ऐसे ही दौड़ने लगेंगी जैसे फल भरे वृक्ष के पास पक्षी दौड़ आते है। और जो व्यक्ति अपने पास वासनाएं बुला रहा है वह अपने हाथ से अपने बन्धन आकर्षित कर रहा है। वह अपनी हथकड़ियों और अपनी बेड़ियां को निमंत्रण दे रहा है कि आओ, वह अपने हाथ से अपने कारागृहों को बुला रहा है कि आओ और मेरे चारों तरफ निर्मित हो जाओ। वह व्यक्ति कभी मुक्त ,वह व्यक्ति कभी शांत, वह व्यक्ति कभी शून्य, वह व्यक्ति कभी सत्य को उपलब्ध नहीं हो सकता। क्योंकि सत्य की पहली शर्त है, स्वतंत्रता। सत्य की पहली शर्त है। एक मुक्त भाव, और वासनाओं से कोई कैसे मुक्त हो सकता है?

पुरुष स्त्री

पुरुष स्त्री को नहीं समझ सकता स्त्री पुरुष को नहीं समझ सकती


पुरुष मन हमेशा चीजों को तोड़  मरोड़कर देखता है।


कार्ल जंग ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि एक बार वह फ्रायड के साथ बैठा हुआ था और एक दिन अचानक उसके पेट में बहुत जोर का दर्द उठा। और उसे लगा कि कुछ न कुछ होकर रहेगा और तभी अचानक निकट की अलमारी में से विस्फोट की आवाज आई। दोनों चौकन्ने हो गए। क्या हुआ? जंग  ने कहा, इसका जरूर कुछ न कुछ संबंध मेरी ऊर्जा से है। फ्रायड हंसा और का की हंसी उड़ाता हुआ बोला, ‘कैसी नासमझी की बात है, इसका तुम्हारी ऊर्जा से कह संबंध हो सकता है?’ का बोला, थोड़ी प्रतीक्षा करो, अभी एक मिनट में ही फिर पहले जैसे विस्फोट की आवाज आएगी। क्योंकि उसे फिर से लगा कि उसके पेट में तनाव हो रहा है। और एक मिनट के बाद ठीक एक मिनट के बाद  एक और विस्फोट हुआ।


अब यह है स्त्री मन। और जंग ने अपने संस्मरणों में लिखा है, ‘उस दिन के बाद फिर कभी फ्रायड ने मुझ पर भरोसा नहीं किया।’ यह बात खतरनाक है, क्योंकि इस बात का तर्क से कोई संबंध नहीं है। और जंग ने एक नए सिद्धांत के विषय में सोचना शुरू कर दिया, जिसे वह सिन्क्रानिसिटि, समक्रमिकता का सिद्धांत कहता है।


जो सिद्धांत सभी वैज्ञानिक प्रयासों का मूल आधार है वह है काजेलिटी कारण सभी कुछ कार्य और कारण से जुड़ा हुआ है। जो कुछ भी घटता है, उसका कोई न कोई कारण होता है। और अगर कारण हो, तो परिणाम उसके पीछे  पीछे चला आएगा। जैसे अगर हम पानी को गरम करते हैं तो वह वाष्पीभूत हो जाता है। पानी गरम करना एक कारण है अगर पानी को सौ डिग्री तक गरम किया जाए तो वह वाष्पीभूत हो जाएगा। पानी का वाष्पीभूत हो जाना परिणाम है। यह एक वैज्ञानिक आधार है। का कहता है एक और सिद्धांत है, वह है  सिन्क्रानिसिटी, समक्रमिकता का सिद्धांत। इसकी व्याख्या करना कठिन है, क्योंकि सभी व्याख्याएं वैज्ञानिक मन से आती हैं। लेकिन हा जो कह रहा है, उसको अनुभव करने का प्रयास किया जा सकता है।


जंग कहता है कि कार्य  कारण के साथ ही एक और सिद्धांत अस्तित्व रखता है। अगर कहीं कोई सृष्टि को बनाने वाला है, तो उसने सृष्टि की रचना इस ढंग से की है कि इस सृष्टि में ऐसा बहुत कुछ घटित होता है जिसका कार्य और कारण से कोई संबंध नहीं है।


तुमने किसी स्त्री को देखा और अचानक तुम्हारे हृदय में प्रेम उठ आता है। अब इस बात का कार्य और कारण से, या सिन्क्रानिसिटी से इसका कोई संबंध है? का ज्यादा ठीक प्रतीत होता है और सत्य के ज्यादा करीब लगता है। स्त्री पुरुष में प्रेम को उत्पन्न करने का कारण नहीं हो सकती, न ही पुरुष स्त्री में प्रेम के उत्पन्न करने का कारण हो सकता है। लेकिन पुरुष और स्त्री, सूर्य  ऊर्जा और चंद्र ऊर्जा का निर्माण इस ढंग से हुआ है कि उनके आपस में निकट आने से प्रेम का फूल खिल उठता है। यही है सिन्क्रानिसिटी, समक्रमिकता।


लेकिन फ्रायड इससे भयभीत हो गया। फिर फ्रायड व जंग  कभी आपस में एक दूसरे के निकट नहीं आ सके। फ्रायड ने जंग को अपना उत्तराधिकारी चुना था, लेकिन उस दिन उसने अपनी वसीयत को बदल दिया। फिर वे दोनों ए क दूसरे से अलग हो गए, एक दूसरे से दूर और दूर होते चले गए।


 स्त्री और पुरुष को समझना सूर्य और चांद को समझने जैसा ही है। जब सूर्य प्रकट होता तो चांद छिप जाता है, जब सूर्य अस्त होता है तो चांद प्रकट होता है, उनका आपस में कभी मिलन नहीं होता है। वे कभी एक दूसरे के आमने सामने नहीं आते। जब व्यक्ति की आंतरिक प्रज्ञा क्रियाशील होती है तो उसकी बुद्धि, तर्क शक्ति विलीन होने लगती है। स्त्रियों में पुरुष से अधिक अंतर्बोध होता है। उनके पास तर्क नहीं होता है, लेकिन फिर भी उनके पास कुछ अंतर्बोध, अंतर्प्रज्ञा होती है। और उन्हें जो अंतर्बोध होता है वह अधिकांशत: सच ही होता है।


बहुत से पुरुष मेरे पास आकर कहते हैं कि अजीब बात है। अगर हम किसी दूसरी स्त्री के प्रेम में पड़ जाते हैं और अपनी पत्नी को नहीं बताते, तो भी किसी न किसी तरह उसे मालूम हो ही जाता है। लेकिन हमें कभी मालूम नहीं होता कि पत्नी किसी अन्य पुरुष के प्रेम में पड़ी है या नहीं?


ठीक कुछ ऐसी ही स्थिति शीला और चिन्मय की है। चिन्मय किसी के प्रेम में है  और वे दोनों मेरे पास आए। चिन्मय आकर कहने लगा, ‘यह बहुत ही अजीब बात है। जब भी मैं किसी के प्रेम में होता हूं  तो तुरंत शीला चली आती है जहां कहीं भी वह होती है, वह तुरंत कमरे’ में चली आती है। ऐसे तो वह कभी नहीं आती। वह आफिस में काम कर रही होती है या कहीं और व्यस्त होती है। लेकिन जब भी मुझे कोई स्त्री अच्छी लगती है और मैं उसे अपने कमरे में ले जाता हूं चाहे सिर्फ बातचीत करने के लिए ही, तो शीला चली आती है। और ऐसा कई बार हुआ है।’ और मैंने पूछा ‘क्या कभी इससे विपरीत भी हुआ है?’ उसने कहा, ‘कभी नहीं।’


स्त्री अपनी अनुभूतियों से जीती है। वह तर्क से नहीं चलती, वह तर्क से नहीं जीती। वह तो अनुभव से जीती है और वह अनुभव उसकी इतनी गहराई से आता है कि वह उसके लिए करीब करीब सत्य ही हो जाता है। इसीलिए तो कोई पति तर्क में किसी स्त्री को नहीं हरा सकता। वे तुम्हारे तर्क सुनती ही नहीं हैं। वे अपनी बात पर ही अड़ी रहती हैं कि ऐसा ही है, ऐसा ही ठीक है। और तुम भी जानते हो कि ऐसा ही है, लेकिन फिर तुम अपना बचाव किए चले जाते हो। जितना तुम बचाव करते हो, उतना ही वे समझ लेती हैं कि ऐसा ही है।

Tuesday, December 8, 2015

एक सूफी कहानी

एक सूफी फकीर के संबंध में मैंने
सूना है। उसके मरने के दिन करीब थे।
रहता तो एक छोटे झोंपड़े में था। लेकिन एक बड़ा खेत और
एक बड़ा बग़ीचा भक्तों ने उसके नाम कर रखा
था। मरने के कुछ दिन पहले उसने कि अब मैं मर जाऊँगा।
ऐसे तो जिंदा में भी इस बड़ी
जमीन की मुझे कोई जरूरत
नही थी। वह झोंपड़ा
काफी था, और मर कर तो मैं क्या करूंगा। मर
कर तो मुझे तुम इस झोंपड़े में दफ़ना देना। यह
काफी है। तो उसने एक तख्ती
लगवा दी पास के बग़ीचे पर
की जो भी व्यक्ति पूर्ण संतुष्ट
हो, उसको मैं यह बग़ीचा भेंट करना
चाहता हूं।
अनेक लोग आये;लेकिन खाली हाथ लोट गये।
खबर सम्राट तक पहुंची। एक दिन सम्राट
भी आया। और सम्राट ने सोचा कि औरों को लोटा
दिया, ठीक; मुझे क्या लौटायेगा। मुझे क्या
कमी है। मैं तो पूर्ण संतुष्ट हूं। सब जो
चाहिए वो है मेरे पास। मेरे संतोष में वह कोई खोट
नहीं निकाल पायेगा। सम्राट
भीतर गया। और फकीर से कहा
कि क्या ख्याल है मेरे विषय में। अनेक लोगों को लोटा चुके
हो। सब लोगों में संतोष की कमी
मिली। अब मेरे विषय में आपकी
क्या राय है। में चल कर आया हूं आपकी
शर्त सून कर।
तो उस फकीर ने कहा कि अगर तुम संतुष्ट
थे तो आए ही क्यो? तो उसके लिए है जो
आएगा ही नहीं; और मैं
उसके पास जाऊँगा। अभी वह
आदमी इस गांव में नहीं है।
वह यहां है ही नहीं।
वह क्यों आयेगा।
एक ऐसा संतोष का क्षण भीतर घटित होता
है। जब आपकी कोई अपनी
चाह नहीं होती। दौड़
नहीं होती। और आप अपने
साथ राज़ी होते है। उस क्षण में परमात्मा
आता है। आपको उसके द्वार पर मांगने
नही जाना पड़ता। उस दिन
उसकी मीठी वर्षा
आपके उपर होती है। वही
निर्वाण है।

शिव और शक्ति का परम मिलन



जब सूर्य और चंद्र का मिलन हो जाता है, तब उस पागल की तरह हो जाते हैं। ऊपर की ओर यात्रा प्रारंभ हो जाती है। और तब हंसी भी आएगी, क्योंकि यह सच में ही अजीब बात है। 


तुमने सुना है न कि एक बार न्यूटन बगीचे में बैठा हुआ था और एक सेब आकर गिरा। सेब का मनुष्य के साथ कुछ ज्यादा ही संबंध मालूम होता है  यही वह सेब था जब अदम सांप के द्वारा फंसा दिया गया था। और फिर यह बेचारा न्यूटन एक बगीचे में बैठा था और एक सेब आकर गिरा और न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत खोज निकाला।


लेकिन जब भीतर के सूर्य और चंद्र मिल जाते हैं तो अकस्मात ही व्यक्ति एक अलग ही आयाम में पहुंच जाता है उसकी ऊर्जा ऊपर की ओर उठने लगती है। यह न्यूटन की अवज्ञा है, यह न्यूटन का अपमान है  इसके सामने गुरुत्वाकर्षण व्यर्थ हो जाता है। तुम ऊपर की ओर खींचे जाने लगते हो! और निस्संदेह अभी तक का पूरा प्रशिक्षण इसी बात का है कि अगर कोई भी चीज ऊपर फेंको तो वह नीचे गिरती है और सभी कुछ नीचे ही गिरता है। तो फिर हंसी का कारण ठीक ही है।


एक झेन फकीर होतेई के बारे में ऐसा कहा जाता है कि संबोधि को उपलब्ध होने के बाद उसकी हंसी फिर कभी बंद ही न हुई। फिर वह हंसता ही रहा, हंसता ही रहा, अपनी मृत्यु के समय भी वह हंस रहा था। वह हंसते हंसते एक गांव से दूसरे गांव तक घूमा करता था। उसके बारे में ऐसा कहा जाता है कि जब वह सोता भी था, तो उसकी हंसी की आवाज सुनी जा सकती थी। लोग होतेई से पूछते भी थे, आप हमेशा हंसते क्यों रहते हैं? वह कहता, मैं कैसे बताऊं। लेकिन कुछ हुआ है  कुछ अदभुत हुआ है। कुछ ऐसा जो नहीं होना चाहिए था, जिसका होना अपेक्षित नहीं था ऐसा कुछ हुआ है।


वह पागल आदमी ठीक कह रहा था। अगर किसी दिन तुम अपने बिस्तर से गिर जाओ और अचानक तुम स्वयं को छत के ऊपर पाओ, तो तुम हसोगे नहीं तो क्या करोगे। लेकिन ऐसा होता है, और वह पागल आदमी कोई साधारण पागल नहीं है। यह एक सूफी कथा है। वह पागल आदमी जरूर कोई सदगुरु रहा होगा।


यह सूत्र कहता है ‘मूर्धज्योतिषि सिद्धदर्शनम्।’


जिस क्षण चेतना का मिलन सहस्रार से होता है, अचानक तुम पार के जगत के लिए उपलब्ध हो जाते हो  सिद्धों के जगत के लिए उपलब्ध हो जाते हो।


योग में मूलाधार के प्रतीक के रूप में, काम केंद्र को चार पंखुड़ियों वाला लाल कमल माना जाता है। चार पंखुड़ियां चारों दिशाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। लाल रंग, ऊष्मा का प्रतिनिधित्व करता है, क्योंकि वह सूर्य का केंद्र है। और सहस्रार प्रतिनिधित्व करता है सभी रंगों का, हजार पंखुड़ियों के कमल के रूप में। हजार पंखुड़ियों वाला कमल सहस्रार पदम सभी रंगों से परिपूर्ण एक हजार पंखुड़ियों वाला कमल, क्योंकि सहस्रार में संपूर्ण अस्तित्व समाया हुआ है। सूर्य केंद्र केवल लाल होता है। सहस्रार इंद्रधनुषी होता है उसमें सभी रंग समाए होते हैं, उसमें समग्रता समाहित होती है।


सामान्यत: सहस्रार, एक हजार पंखुड़ियो वाला कमल सिर में नीचे की ओर लटका हुआ होता है। लेकिन जब इससे ऊर्जा गतिमान होती है, तो ऊर्जा से यह ऊपर की ओर हो जाता है। .पहले तो यह ऐसे ही है जैसे कोई कमल ऊर्जा रहित नीचे की ओर लटका हुआ हों उसका भार ही उसे नीचे की ओर लटका देता है  फिर जब वह ऊर्जा से भर जाता है, तो उसमें जीवन का संचार हो जाता है। वह ऊपर उठने लगता है, वह बियांड के, पार के, जगत के प्रति खुल जाता है।


जब कमल खिल जाता है, तो योगशास्त्र कहते हैं कि ‘तब वह दस लाख सूर्य और दस लाख चंद्र के रूप में देदीप्यमान हो उठता है।’ जब भीतर एक चंद्र और एक सूर्य परस्पर मिल जाते हैं, तो फिर वह बाहर के दस लाख सूर्य और दस लाख चंद्र के बराबर होते हैं। तब व्यक्ति उस परम आनंद की कुंजी को खोज लेता है, जहां दस लाख चंद्र दस लाख सूर्यों से मिलते हैं दस लाख स्त्रियों का दस लाख पुरुषों से मिलन होता है। तो उस परम आनंद की तुम थोड़ी बहुत कल्पना कर सकते हो, थोड़ा बहुत उस बारे में सोच सकते हो।


शिव जब अपनी पत्नी देवी के साथ प्रेम में पाए गए तो उसी आनंद अवस्था में रहे होंगे। वे सहस्रार में प्रतिष्ठित रहे होंगे। उनका प्रेम केवल कामवासना वाला प्रेम नहीं हो सकता वह प्रेम मूलाधार से नहीं हो सकता। वह उनके अस्तित्व के शिखर बिंदु से, ओमेगा पाइंट से आया होगा। इसीलिए कौन वहां खड़ा है, कौन उन्हें देख रहा है इसके प्रति वे पूरी तरह से बेखबर थे। वे समय और स्थान में स्थित नहीं थे। वे समय और स्थान के पार थे। योग का, तंत्र का, सारे आध्यात्मिक प्रयासों का यही तो एकमात्र लक्ष्य है।


पुरुष और स्त्री ऊर्जा का मिलन, शिव और शक्ति का परम मिलन, जीवन और मृत्यु के आत्यंतिक जोड़ की संभावना को निर्मित कर देता है। इस दृष्टि से हिंदुओं के परमात्मा बहुत अनूठे और अदभुत रूप से मानवीय हैं। थोड़ा ईसाइयों के परमात्मा के बारे में विचार करो। कोई पत्नी नहीं, कोई स्त्री नहीं साथ में! यह बात जड़, एकाकी, रिक्त, पुरुष प्रधान, सूर्यगत और कठोर मालूम होती है। अगर यहूदियों और ईसाइयों के परमात्मा की अवधारणा भयानक और डरावने परमात्मा की है तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं।


यहूदी कहते हैं, ‘परमात्मा से भयभीत रहो। ध्यान रहे, वह तुम्हारा चाचा नहीं है।’ लेकिन हिंदू कहते हैं, ‘चिंता की कोई बात नहीं, परमात्मा तुम्हारी मां है।’ यहूदियों ने बहुत ही क्रूर परमात्मा की कल्पना की है, जो हमेशा लोगों को अग्नि में जलाने और मारने को तैयार रहता है। और छोटा सा पाप भी, चाहे वह अनजाने में ही हो गया हो और यहूदियों का परमात्मा एकदम क्रुद्ध, आग बबूला हो जाता है। उनका परमात्मा विक्षिप्त मालूम होता है।


और ईसाइयों की पूरी की पूरी ट्रिनिटी की धारणा गॉड, होली घोस्ट और सन यह पूरी की पूरी ट्रिनिटी लड़कों की सभा मालूम पड़ती है होमोसेक्यूअल, समलैंगिक। कोई स्त्री नहीं। और ईसाई चंद्र ऊर्जा से, स्त्री से इतने भयभीत हैं कि उनके पास स्त्री की कोई अवधारणा ही नहीं है। आगे चलकर किसी तरह उन्होंने वर्जिन मेरी का नाम जोड़कर इसमें थोड़ा सुधार करने की कोशिश की है। किसी तरह से, क्योंकि यह बात उनके सिद्धांत के बिलकुल विपरीत पड़ती है, उनके सिद्धांत के एकदम खिलाफ है। और फिर भी ईसाई इस बात पर जोर देते हैं कि वह वर्जिन है, कुंआरी है।


ईसाई धारणा में सूर्य और चंद्र का मिलन एकदम अस्वीकृत है। चाहे वे वर्जिन मेरी का आदर करते हैं.. निश्चित ही यह एक द्वितीय श्रेणी की पदवी है, क्योंकि ट्रिनिटी में उसके लिए कोई स्थान नहीं है। फिर उन्हें अपनी इस ट्रिनिटी की धारणा में कुछ अपूर्णता का अहसास हुआ, तो उन्होंने पीछे के द्वार से वर्जिन मेरी का प्रवेश करवाया। लेकिन फिर भी ईसाई इस बात पर जोर दिए चले जाते हैं कि वह वर्जिन है, कुंआरी है। आखिर इस बात पर इतना जोर क्यों? पुरुष और स्त्री ऊर्जा के मिलन में आखिर गलत क्या है?’


और अगर तुम बाह्य जगत में पुरुष और स्त्री की ऊर्जा के मिलन से इतने भयभीत हो, तो तुम अंतर्जगत में घटित होने वाले ऐसे ही मिलन के लिए कैसे तैयार हो सकोगे?


हिंदुओं के परमात्मा अधिक मानवीय हैं, अधिक मानवोचित हैं जीवन के यथार्थ के अधिक निकट हैं और निश्चित ही उनसे करुणा और प्रेम प्रवाहित होता है।

Monday, December 7, 2015

"लॉ ऑफ रिवर्स एफेक्ट"


एक आदमी साइकिल चलाना सीखता है। बड़ा रास्ता है। चौड़ा रास्ता है। एक छोटा सा
पत्थर रास्ते के किनारे पडा हुआ है। वह साइकिल चलाने वाला घबराता है। की मैं कहीं उस पत्थर से न टकरा जाऊँ। अब इतना चौड़ा रास्ता पडा है। वह साइकिल चलने
वाला अगर आँख बंध कर के भी चलाना चाहे तो भी उस पत्थर से टकराने की संभावना न के बराबर है। इसका सौ में से एक ही मौका है वह पत्थर से टकराये। इतने चौड़े रास्ते पर कहीं से भी निकल सकता है लेकिन वह देखकर घबराता
है। कि कहीं पत्थर से टकरा न जाऊँ। और जैसे ही वह घबराता है, मैं पत्थर से न टकरा जाऊँ।
सारा रास्ता विलीन हो जाता है। केवल पत्थर ही दिखाई दिया। अब उसकी साइकिल का चाक पत्थर की और मुड़ने लगा। वह हाथ पैर
से घबराता है। उसकी सारी चेतना उस पत्थर की और देखने लगती है। और एक सम्मोहित हिप्रोटाइज आदमी कि तरह वह पत्थर की
तरफ खिंच जाता है। और जा कर पत्थर से टकरा जाता है। नया साईकिल सीखने वाला उसी से
टकरा जाता है जिससे बचना चाहता है। लैम्पो से टकरा जाता है, खम्बों से टकरा जाता है, पत्थर से टकरा जाता है। इतना बड़ा रास्ता
था कि अगर कोई निशानेबाज ही चलाने की कोशिश करता तो उस पत्थर से टकरा सकता था। लेकिन यह सिक्खड़ आदमी कैसे उस पत्थर से टकरा गया।
कुये कहता है, कि हमारी चेतना का एक नियम है: "लॉ ऑफ रिवर्स एफेक्ट"  हम जिस चीज से
बचना चाहते है, चेतना उसी पर केंद्रित हो जाती है। और परिणाम में हम उसी से टकरा जाते है। पाँच हजार साल से आदमी सेक्स से
बचना चाह रहा है। और परिणाम इतना हुआ की गली कूचे हर जगह जहां भी आदमी जाता है वहीं सेक्स से टकरा जाता है। लॉ ऑफ रिवर्स
एफेक्ट मनुष्य की आत्मा को पकड़े हुए है।
क्या कभी आपने वह सोचा है कि आप चित को जहां से बचाना चाहते है, चित वहीं आकर्षित हो जाता है। वहीं निमंत्रित हो जात है। जिन लोगो ने मनुष्य को सेक्स के विरोध में समझाया, उन लोगों ने ही मनुष्य
को कामुक बनाने का जिम्मा भी अपने ऊपर ले लिया है।
मनुष्य की अति कामुकता गलत शिक्षाओं का परिणाम है।
और आज भी हम भयभीत होते है कि सेक्स की बात न की जाये।  क्यों भयभीत होते है?
भयभीत इसलिए होते है कि हमें डर है कि सेक्स के संबंध में बात करने से लोग और कामुक हो जायेंगे।
मैं आपको कहना चाहता हूं कि यह बिलकुल ही गलत भ्रम है। यह शत-प्रतिशत गलत है। पृथ्वी उसी दिन सेक्स से मुक्त होगी, जब हम सेक्स के संबंध में सामान्य, स्वास्थ बातचीत करने में समर्थ हो जायेंगे।
जब हम सेक्स को पूरी तरह से समझ सकेंगे, तो ही हम सेक्स का अतिक्रमण कर सकेंगे।
जगत में ब्रह्मचर्य का जन्म हो सकता है। मनुष्य सेक्स के ऊपर उठ सकता है। लेकिन सेक्स को
समझकर, सेक्स को पूरी तरह पहचान कर, उस की
ऊर्जा के पूरे अर्थ, मार्ग, व्यवस्था को जानकर, उसके मुक्त हो सकता है।
आंखे बंद कर लेने से कोई कभी मुक्त नहीं हो सकता। आंखें बंद कर लेने वाले सोचते हों कि आंखे बंद कर लेने से शत्रु समाप्त हो गया है।
मरुस्थल में शुतुरमुर्ग भी ऐसा ही सोचता है।
दुश्मन हमने करते है तो शुतुरमुर्ग रेत में सर छिपा कर खड़ा हो जाता है। और सोचता है कि जब दुश्मन मुझे दिखाई नहीं देता ताक मैं दुशमन को
कैसे दिखाई दे नहीं सकता। लेकिन यह वर्क—शुतुरमुर्ग को हम क्षमा भी कर सकते है। आदमी को क्षमा नहीं किया जा सकता है।
सेक्स के संबंध में आदमी ने शुतुरमुर्ग का व्यवहार किया है। आज तक। वह सोचता है, आँख बंद कर
लो सेक्स के प्रति तो सेक्स मिट गया। अगर आँख बंद कर लेने से चीजें मिटती तो बहुत आसान
थी जिंदगी। बहुत आसान होती दुनिया। आँख बंद करने से कुछ मिटता नहीं है। बल्कि जिस
चीज के संबंध में हम आँख बंद करते है। हम प्रमाण देते है कि हम उस से भयभीत है। हम डर गये है। वह
हमसे ज्यादा मजबूत है। उससे हम जीत नहीं सकते है, इसलिए आँख बंद करते है। आँख बंद करना
कमजोरी का लक्षण है।
और सेक्स के बाबत सारी मनुष्य जाति आँख बंद करके बैठ गयी है। न केवल आँख बंद करके बैठ गयी
है, बल्कि उसने सब तरह की लड़ाई भी सेक्स से ली है। और उसके परिणाम, उसके दुष्परिणाम
सारे जगत में ज्ञात है।
अगर सौ आदमी पागल होते है, तो उनमें से 98 आदमी सेक्स को दबाने की वजह से पागल होते है। अगर हजारों स्त्रियों हिस्टीरिया से परेशान है तो उसमें से सौ में से 99 स्त्रियों के पीछे हिस्टीरिया के मिरगी के बेहोशी के, सेक्स की मौजूदगी है। सेक्स का दमन मौजूद है।
अगर आदमी इतना बेचैन, अशांत इतना दुःखी और पीड़ित है तो इस पीडित होने के पीछे उसने जीवन की एक बड़ी शक्ति को बिना समझे उसकी तरफ पीठ खड़ी कर ली है। उसका कारण है। और परिणाम उलटे आते है।
अगर हम मनुष्य का साहित्य उठाकर कर देखें, अगर किसी देवलोक से कभी कोई देवता आये
या चंद्रलोक से या मंगलग्रह से कभी कोई यात्री आये और हमारी किताबें पढ़े, हमारा साहित्य देखे, हमारी कविता पढ़, हमारे चित्र
देखे तो बहुत हैरान हो जायेगा। वह हैरान हो जायेगा यह जानकर कि आदमी का सारा साहित्य सेक्स पर केंद्रित है? 
आदमी की हर कविताएं सेक्सुअल क्यों है? 
आदमियों की सारी कहानियां, सारे उपन्यास सेक्सुअल क्यों है। आदमी की हर किताब के उपर नंगी औरत की तस्वीर क्यों है? 
आदमी की हर
फिल्म नंगे आदमी की फिल्म क्यों है। वह बहुत हैरान होगा। अगर कोई मंगल से आकर हमें इस
हालत में देखेगा तो बहुत हैरान होगा। वह सोचगा, आदमी सेक्स के सिवाय क्या कुछ भी नहीं सोचता? और आदमी से अगर पूछेगा,
बातचीत करेगा तो बहुत हैरान हो जायेगा। आदमी बातचीत करेगा आत्मा की, परमात्मा की, स्वर्ग की, मोक्ष की, सेक्स की कभी कोई बात नहीं करेगा। और उसका सारा
व्यक्तित्व चारों तरफ से सेक्स से भरा हुआ है।
वह मंगलग्रह का वासी तो बहुत हैरान होगा।
वह कहेगा, बात चीत कभी नहीं कि जाती जिस चीज की , उसको चारों तरफ से तृप्त करने की हजार-हजार पागल कोशिशें क्यों की जा
रही है?
आदमी को हमने ‘’परवर्ट’’ किया है, विकृत किया है और अच्छे नामों के आधार पर विकृत किया है। 
ब्रह्मचर्य की बात हम करते है। लेकिन कभी इस बात की चेष्टा नहीं करते कि पहले
मनुष्य की काम की ऊर्जा को समझा जाये,
फिर उसे रूपान्तरित करने के प्रयोग भी किये जा सकते है। बिना उस ऊर्जा को समझे दमन की संयम की सारी शिक्षा, मनुष्य को पागल, विक्षिप्त और रूग्ण करेगी। इस संबंध में हमें कोई भी ध्यान नहीं है। यह मनुष्य इतना रूग्ण, इतना दीन-हीन कभी भी न था, इतना
‘पायजनस’ भी न था। इतना दुःखी भी न था।
मैं एक अस्पताल के पास से निकलता था। मैंने
एक तख्ते पर अस्पताल के एक लिखी हुई सूचना पढ़ी। लिखा था तख्ती पर—
‘’एक आदमी को बिच्छू ने काटा है, उसका इलाज किया गया
है। वह एक दिन में ठीक होकर घर वापस चला गया। 
एक दूसरे आदमी को सांप ने काटा था। उसका तीन दिन में इलाज किया गया। और वह
स्वास्थ हो कर घर वापिस चला गया। उस पर
तीसरी सुचना थी कि एक और आदमी को
पागल कुत्ते ने काट लिया था। उस का दस दिन में इलाज हो रहा है। वह काफी ठीक हो गया है और शीध्र ही उसके पूरी तरह ठीक हो जाने की उम्मीद है। 
और उस पर चौथी सूचना
लिखी थी, 
कि एक आदमी को एक आदमी ने
काट लिया था। उसे कई सप्ताह हो गये। वह बेहोश है, और उसके ठीक होने की कोई उम्मीद नहीं है।
मैं बहुत हैरान हुआ। आदमी का काटा हुआ इतना जहरीला हो सकता है।
लेकिन अगर हम आदमी की तरफ देखोगें तो
दिखाई पड़ेगा—आदमी के भीतर बहुत जहर
इकट्ठा हो गया है। और उस जहर के इकट्ठे हो
जाने का पहला सुत्र यह है कि हमने आदमी के
निसर्ग को, उसकी प्रकृति को स्वीकार नहीं किया है। उसकी प्रकृति को दबाने और जबरदस्ती तोड़ने की चेष्टा की है। मनुष्य के
भीतर जो शक्ति है। उस शक्ति को रूपांतरित करने का, ऊंचा ले जाने का, आकाशगामी बनाने का हमने कोई प्रयास नहीं किया। उस
शक्ति के ऊपर हम जबरदस्ती कब्जा करके बैठ गये है। वह शक्ति नीचे से ज्वालामुखी की तरह उबल रही है। और धक्के दे रही है। वह आदमी को
किसी भी क्षण उलटा देने की चेष्टा कर रही है। और इसलिए जरा सा मौका मिल जाता है
तो आपको पता है सबसे पहली बात क्या होती है।
अगर एक हवाई जहाज गिर पड़े तो आपको सबसे
पहले उस हवाई जहाज में अगर पायलट हो ओर
आप उसके पास जाएं—उसकी लाश के पास तो
आपको पहला प्रश्न क्या उठेगा, मन में। क्या
आपको ख्याल आयेगा—यह हिन्दू है या
मुसलमान? नहीं। क्या आपको ख्याल आयेगा
कि यह भारतीय है या कि चीनी? नहीं।
आपको पहला ख्याल आयेगा—वह आदमी है या औरत? पहला प्रश्न आपके मन में उठेगा, वह स्त्री
है या पुरूष? क्या आपको ख्याल है इस बात का कि वह प्रश्न क्यों सबसे पहले ख्याल में आता है? भीतर दबा हुआ सेक्स है। उस सेक्स के दमन
की वजह से बाहर स्त्रीयां और पुरूष अतिशय उभर कर दिखायी पड़ती है।

तीसरी आँख को विकसित करने लिए कुछ महत्‍वपूर्ण ध्‍यान



 पंख की भांति छूना ध्यान


शिव ने कहा: आँख की पुतलियों को पंख की भांति छूने से उसके बीच का हलका पन ह्रदय में खुलता है।

 

ओशो--अपनी दोनों हथेलियों का उपयोग करो, उन्हें अपनी बंद आँखो पर रखो, और हथेलियों को पुतलियों पर छू जाने दो—लेकिन पंख के जैसे, बिना कोई दबाव डाले। यदि दबाव डाला तो तुम चूक गए, तुम पूरी विधि से ही चूक गए। दबाव मत डालों; बस पंख की भांति छुओ। तुम्हें थोड़ा समायोजन करना होगा क्योंकि शुरू में तो तुम दबाब डालोगे। दबाव का कम से कम करते जाओ जब तक कि दबाब बिलकुल समाप्त न हो जाए—बस तुम्हारी हथैलियां पुतलियों को छुएँ। बस एक स्पर्श, बाना दबाव का एक मिलन क्योंकि यदि दबाव रहा तो यह विधि कार्य नहीं करेगी। तो बस एक पंख की भांति।

 


      क्यों?—क्योंकि जहां सुई का काम हो वहां तलवार कुछ भी नहीं कर सकती। यदि तुमने दबाव डाला, तो उसका गुणधर्म बदल गया—तुम आक्रामक हो गए। और जो ऊर्जा आंखों से बह रहा है वह बहुत सूक्ष्म है: थोड़ा सा दबाव, और वह संघर्ष करने लगती है जिससे एक प्रतिरोध पैदा हो जाता है। यदि तुम दबाव डालोगे तो जो ऊर्जा आंखों से बह रही है वह एक प्रतिरोध, एक लड़ाई शुरू कर देगी। एक संघर्ष छिड़ जाएगा। इसलिए दबाव मत डालों आंखों की ऊर्जा को थोड़े से दबाव का भी पता चल जाता है।

 

      वह ऊर्जा बहुत सूक्ष्म है, बहुत कोमल है। दबाव मत डालों—बस पंख की भांति, तुम्हारी हथैलियां ही छुएँ, जैसे कि स्पर्श हो ही न रहा हो। स्पर्श ऐसे करो जैसे कि वह स्पर्श ने हो, दबाव जरा भी न हो; बस एक स्पर्श, एक हलका-सा एहसास कि हथेली पुतली को छू रही है, बस।

 

      इससे क्या होगा? जब तुम बिना दबाव डाले हलके से छूते हो तो ऊर्जा भीतर की और जाने लगती है। यदि तुम दबाव डालों तो वह हाथ के साथ, हथेली के साथ लड़ने लगती है। और बहार निकल जाती है। हल्का-सा स्पर्श, और ऊर्जा भीतर जाने लगती है। द्वार बंद हो जाता है। बस द्वार बंद होता है और ऊर्जा वास लौट पड़ती है। जिस क्षण ऊर्जा वापस लौटती है, तुम आपने चेहरे और सिर पर एक हलकापन व्याप्त होता अनुभव करोगे। यह वापस लौटती ऊर्जा तुम्हें हल्का कर देती है।

 

      और इन दोनों आंखों के बीच में तीसरी आंख, प्रज्ञा-चक्षु है। ठीक दोनों आंखों के मध्य में तीसरी आँख है। आँखो से वापस लोटती ऊर्जा तीसरी आँख से टकराती है। यहीं कारण है कि व्यक्ति हल्का और जमीन से उठता हुआ अनुभव करता है। जैसे कि कोई गुरुत्वाकर्षण न रहा हो। और तीसरी आँख से ऊर्जा ह्रदय पर बरस जाती है; यह एक शारीरिक प्रक्रिया है: बूंद-बूंद करके ऊर्जा टपकती है। और तुम अत्यंत हल्कापन अपने ह्रदय में प्रवेश करता अनुभव करोगे। ह्रदय गति कम हो जाएगी। श्वास धीमी हो जाएगी। तुम्हारा पूरा शरीर विश्रांत अनुभव करेगा।

 

      यदि तुम गहन ध्यान में प्रवेश नहीं भी कर रहे हो, तो भी यह प्रयोग तुम्हें शारीरिक रूप से उपयोगी होगा। दिन में किसी भी समय, आराम से कुर्सी पर बैठ जाओ—या तुम्हारे पास यदि कुर्सी न हो, जब तुम रेलगाड़ी में सफर कर रहे हों—तो अपनी आंखें बंद कर लो। पूरे शरीर में एक विश्रांति अनुभव करो। और फिर दोनों हथेलियों को अपनी आंखों पर रख लो। लेकिन दबाव मत डालों—यह बड़ी महत्वपूर्ण बात है। बस पंख की भांति छुओ।

 

      जब तुम स्पर्श करो और दबाव न डालों, तो तुम्हारे विचार तत्क्षण रूक जाएंगे। विश्रांत मन में विचार नहीं चल सकते। वे जम जाते है। विचारों को उन्माद और बुखार की जरूरत होती है। उनके चलने के लिए तनाव की जरूरत होती है। वे तनाव के सहारे ही जीते है। जब आंखें शांत व शिथिल हों और ऊर्जा पीछे लौटने लगे तो विचार रूक जायेंगे। तुम्हें एक मस्ती का अनुभव होगा। जो रोज-रोज गहराता जाएगा।

 

      तो इस प्रयोग को दिन में कई बार करो। एक क्षण के लिए छूना भी अच्छा रहेगा। जब भी तुम्हारी आंखे थकी हुई ऊर्जा विहीन और चुकी हुई महसूस करें—पढ़कर, फिल्म देखकर, या टेलिविजन देखकर। जब भी तुम्हें ऐसा लगे, अपनी आंखे बंद कर लो। और स्पर्श करो मोर पंखी। तत्क्षण प्रभाव होगा। लेकिन यदि तुम इसे एक ध्यान बनाना चाहते हो तो इसे कम से कम चालीस मिनट के लिए करो। और पूरी बात यही है कि दबाव नहीं डालना। एक क्षण के लिए तो पंख जैसा स्पर्श सरल है; चालीस मिनट के लिए कठिन है। कई बार तुम भूल जाओगे और दबाव डालने लगोगे।

 

      दबाव मत डालों। चालीस मिनट के लिए वह बोध बनाए रहो कि तुम्हारे हाथों में कोई बोझ नहीं है। वे बस स्पर्श कर रहे है। यह बोध बनाए रहो कि वे दबाव नहीं डाल रहे है, बस स्पर्श कर रहे है। यह एक गहन बोध बन जाएगा। बिलकुल ऐसे जैसे श्वास-प्रश्वास। जैसे बुद्ध कहते है कि पूरे जाग कर श्वास लो। ऐसा ही स्पर्श के साथ भी होगा। तुम्हें सतत स्मरण रखना होगा कि तुम दबाव नहीं डाल रहे। तुम्हारा हाथ बस एक पंख, एक भारहीन वस्तु बन जाना चाहिए। जो बस छुए। तुम्हारा चित समग्ररतः: सचेत होकर वहां आंखों के पास लगा रहेगा। और ऊर्जा सतत बहती रहेगी। शुरू में तो वह बूंद-बूंद करके ही टपकेगी। कुछ ही महीनों में तुम्हें लगेगा वह सरिता सी हो गई है, और एक साल बीतते-बीतते तुम्हें लगेगा कि वह एक बाढ़ की तरह हो गई है। और जब ऐसा होता है—‘’आँख की पुतलियाँ को पंख की भांति छूने से उनके बीच का हलकापन...।‘’ जब तुम स्पर्श करोगे तो तुम्हें हलकापन महसूस कर सकते हो। जैसे की तुम स्पर्श करते हो, तत्क्षण एक हलकापन आ जाता है। और वह ‘’उनके बीच का हलकापन ह्रदय में खुलता है।‘’...वह हलकापन ह्रदय में प्रवेश कर जाता है, खुल जाता है। ह्रदय में केवल हलकापन ही प्रवेश कर सकता है। कोई भी बोझिल चीज प्रवेश नहीं कर सकती है। ह्रदय के साथ बहुत हल्की फुलकी घटनाएं ही घट सकती है।

 

      दोनों आंखों के बीच का यह हलकापन ह्रदय में टपकने लगेगा। और ह्रदय उसको ग्रहण करने के लिए खुल जाएगा—‘’और वहां ब्रह्मांड व्याप जाता है।‘’ और जैसे-जैसे यह बहती ऊर्जा पहले एक धारा, फिर एक सरिता और फिर एक बाढ़ बनती है तुम पूरी तरह बह जाओगे, दूर बह जाओगे। तुम्हें लगेगा ही नहीं कि तुम हो। तुम्हें लगेगा कि बस ब्रह्मांड ही है। श्वास लेते हुए, श्वास छोड़ते हुए तुम्हें ऐसा ही लगेगा। कि तुम ब्रह्मांड बन गए हो। ब्रह्मांड भीतर आता है और ब्रह्मांड बाहर जाता है। वह इकाई जो तुम सदा बने रहे—अहंकार—वह नहीं बचता।

Sunday, December 6, 2015

सामाजिक तल पर भारत बड़ा कठोर है


प्रश्न—भारतीय संस्कृति बड़ी सहिष्णु संस्कृति रही है। बुद्ध ईश्वर को नहीं मानते थे, पतंजलि ने भी ईश्वर को इंकार कर दिया था। जब आप अमेरिका में पाँच वर्ष रहे, तब क्या आपने इस फर्क को देखा?

ओशो—मैंने फर्क देखा है। फर्क यह है कि जहां तक चिंतन का सवाल है, भारत बहुत उदार और सहिष्णु है; लेकिन जहां सामाजिक आचरण का सवाल आता है, वहां वह बड़ा कठोर हो जाता है। सामाजिक जीवन के संबंध में अमेरिका बड़ा उदार है, लेकिन चिंतन आदि के बारे में बहुत हठी और अड़ियल है। उनके विचारों का स्तर देखा जाए, तो अमेरिका के सर्वाधिक शिक्षित लोगों को भारत के देहाती लोगों की तरह बात करते हुए पाया है। और उन्हें अपनी मूढ़ता दिखाई नहीं देती।

जब मैं कारागृह में था तो वहां का जेलर मुझमें उत्सुक हुआ। पूरा जेल ही मुझमें उत्सुक था। जेलर मुझसे मिलने आया। काफी पढ़ा लिखा, अनुभवी बूढा आदमी था। वह बोला, मैं आपको यह बाइबल देने आया हूं। ये ईश्वर के वक्तव्य है।

मैंने उससे पूछा, तुमने कैसे जाना कि ये ईश्वर के वक्तव्य है।

वह बोला, ईश्वर ने स्वयं ही कहां है, इस बाइबल में कि मेरे वक्तव्य है।

मैंने कहा, मैं भी एक किताब लिख सकता हूं, जिसमे मैं कहूंगा कि ये मेरे वक्तव्य ईश्वर के ही वक्तव्य है, कुरान अल्लाह के वचन है। यहूदी कहते है, तोराह ईश्वर के वचन है। फिर फर्क क्या हुआ। इनमें कौन से ईश्वर के सही शब्द है और कौन सही ईश्वर है?

वह तो समझ ही नहीं सका कि मैं क्या कह रहा हूं। मैंने कहा, इससे यही सिद्ध होता है कि बौद्धिक रूप से तुम पूरब से बहुत पीछे हो। जहां हमने बुद्ध जैसे लोगो की पूजा की, जो परमात्मा को नहीं मानता था। लेकिन फिर भी हमने उसे भगवान कहा है।

मैंने उसे एच. जी. वेल्स की याद दिलार्इ। एच. जी. वेल्स ने बुद्ध के बारे में लिखा है: वह सर्वाधिक ईश्वर विहीन आदमी था। फिर भी ईश्वर तुल्य।

और ऐसा हो सकता है। कोई आदमी ईश्वर के बिना ईश्वर तुल्य हो सकता है। उसमें कोई अड़चन नहीं है। और मैंने उससे कहा, मैं तुम्हारे सामने हूं: और कोई ईश्वर नहीं है। और न कोई ईश्वर का शब्द है। हां, ऐसे लोग है जिन्होंने अस्तित्व के परम सत्य को जान लिया है। लेकिन वे भी निरंतर यहीं कहते आ रहे है कि जो भी कहते है वह ठीक-ठीक वही नहीं है। जो हमने अनुभव किया है। अनुभव के उस ऊंचे तल से मनुष्य की भाषा में उसे अनुवादित करने में बहुत कुछ खो जाता है। तो इन साधारण शब्दों को ईश्वर के वचन कहना और वह भी दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश के बुद्धिमान और सुशिक्षित व्यक्ति द्वारा, बड़ा मूढ़ता पूर्ण लगता है।

लेकिन सामाजिक आचरण के मामले में वे बहुत उदार है। तुम कोई भी कपड़े पहन सकते हो, तुम किसी भी प्रकार का काम कर सकते हो। तुम शिक्षित हो सकते हो, किसी भी किताब का अध्ययन कर सकते हो। सामाजिक ढांचे के मामले में वे लोग हमसे अधिक उदार है। लेकिन चिंतन के बारे में वे बहुत पुरातन है। भारत में चिंतन के बारे में हम हमेशा उदार रहा है। हजारों वर्षों से हम बड़े मित्रतापूर्ण ढंग से तार्किक बातचीत करते रहे है। उससे हमारा किसी के साथ कोई संघर्ष नहीं रहा है, कोई शत्रुता नहीं रही है। क्योंकि दोनों पक्ष एक दूसरे से लड़ नहीं रहे थे। बल्कि दोनों ही सत्य के अन्वेषक थे और अगर व्यक्ति उपलब्धि पा लेता है तो दोनों ही एक दूसरे के शिष्य बनने को राज़ी थे, उसमे वे अपमानित अनुभव नहीं करते थे।

लेकिन सामाजिक जीवन के बारे में हम बहुत ही दकियानूसी रहे है। एक शूद्र वेद नहीं पढ़ सकता, एक शूद्र ब्राह्मणों के साथ नहीं बैठ सकता है। वह वेदों को सून भी नहीं सकता है। उसे शहर से दूर किसी अलग बस्ती में रहना पड़ता है। वह अपना काम धंधा बदल नहीं सकता। जो आदमी जूते बनाता रहा है। वह पीढ़ी दर पीढ़ी जूते ही बनाता रहेगा। हमेशा; वह उसमे कोई बदलाहट नहीं ला सकता, वह डाक्टर नहीं बन सकता।

तो हम बड़े कठोर है। और उसका सारा श्रेय मनु स्मृति को जाता है। यदि भारतीय मनु स्मृति को भुला सके तो पूरे जगत में हम अधिक उदार और अधिक विशाल ह्रदय के लोग कहलाए जाएंगे। मनु स्मृति हमारी छाती पर पत्थर की तरह बैठी है।

● ध्यान के लिए उचित स्थान ●


अगर ध्यान के लिए एक नियत जगह चुन सकें- एक छोटा सा मंदिर,
घर में एक छोटा सा कोना, एक ध्यान-कक्ष- तो सर्वोत्तम है। फिर
उस जगह का किसी और काम के लिए उपयोग न करें।
क्योंकि हर काम की अपनी तरंगें
होती हैं। उस जगह का उपयोग सिर्फ ध्यान के लिए
करें और किसी काम के लिए उसका उपयोग न करें। तो वह
जगह चार्ज्ड हो जाएगी और रोज
हमारी प्रतीक्षा करेगी। वह
जगह बहुत सहयोगी हो जाएगी।
वहां एक वातावरण निर्मित हो जाएगा, एक तरंग निर्मित
हो जाएगी, जिसमें हम सरलता से ध्यान में गहरे प्रवेश कर सकते हैं। 

इसी वजह से मंदिरों, मस्जिदों,
चर्चो का निर्माण हुआ था- कोई ऐसी जगह हो,
जिसका उपयोग सिर्फ ध्यान और प्रार्थना के लिए हो।

ध्यान के लिए अगर एक नियत समय चुन सकें, तो वह
भी बहुत उपयोगी होगा,
क्योंकि हमारा शरीर, हमारा मन एक यंत्र है। अगर
हम रोज एक नियत समय पर भोजन करते हैं,
तो हमारा शरीर उस समय भोजन की मांग
करने लगता है।

कभी आप एक मजेदार प्रयोग कर सकते हैं, अगर आप
रोज एक बजे भोजन करते हैं और आप घड़ी देखें और
घड़ी में एक बजें हों, तो आपको भूख लग
जाएगी- भले ही घड़ी गलत
हो और अभी ग्यारह या बारह ही बजें हों। 

हमारा शरीर एक यंत्र है।
हमारा मन भी एक यंत्र है। अगर हम एक नियत
जगह पर, एक नियत समय पर रोज ध्यान करें, तो हमारे
शरीर और मन में ध्यान के लिए भी एक
प्रकार की भूख निर्मित हो जाती है। रोज
उस समय पर शरीर और मन ध्यान में जाने
की मांग करेंगे। यह ध्यान में जाने में
सहयोगी होगा। एक भावदशा निर्मित होगी,
जिसमें हम एक भूख बन जाएंगे, एक प्यास बन जाएंगे।

शुरू-शुरू में यह बहुत सहयोगी होगा, 
तब तक ध्यान
हमारे लिए इतना सहज न हो जाए कि हम
कहीं भी,
किसी भी समय ध्यान में जा सकें। तब तक
मन और शरीर की इन यांत्रिक व्यवस्थाओं
का उपयोग करना चाहिए।
इनसे एक वातावरण निर्मित होता है : कमरे में अंधेरा हो,

● अगरबत्ती या धूपबत्ती की खुशबू
हो, 
● एक सी लंबाई के व एक प्रकार के वस्त्र पहनें,
● एक से कालीन या चटाई का उपयोग करें, एक से आसन का उपयोग करें। 

इससे ध्यान नहीं हो जाता, लेकिन इससे
मदद मिलती है। अगर कोई और
इसकी नकल करे, तो उसे बाधा भी पड़
सकती है। प्रत्येक
को अपनी व्यवस्था खोजनी है।
व्यवस्था सिर्फ इतना करती है कि एक सुखद
स्थिति निर्मित होती है। और जब हम सुखद स्थिति में
प्रतीक्षा करते हैं, तो कुछ घटता है। जैसे
नींद उतरती है, ऐसे
ही परमात्मा उतरता है। जैसे प्रेम घटता है, ऐसे
ही ध्यान घटता है। 

हम इसे प्रयास से नहीं ला सकते, 
हम इसे जबरदस्ती नहीं पा सकते। 

ध्यान ही एक मात्र ऐसा धर्म हैं,
जो हमारे जन्म से पहेले हम से 
जुडा हुआ हैं, जो हमें हमारी 
आत्मा के प्रत्येक्ष खड़ा करता है... 
बाकि सब धर्म थोपे गए हैं.. 

Saturday, December 5, 2015

पूरे सौ!



     आस्था किसी की भी नहीं है। प्रार्थना पूरी हो जाए, तो आस्था जमती है। प्रार्थना न पूरी हो, तो आस्था उखड़ जाती है।

   मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन रोज सुबह प्रार्थना करता था काफी जोर से। परमात्मा सुनता था कि नहीं, पड़ोस के लोग सुन लेते थे कि सौ रुपए से कम न लूंगा; निन्यानबे भी देगा, नहीं लूंगा। जब भी दे, सौ पूरे देना। आखिर पड़ोसी सुनते सुनते परेशान हो गए। एक पड़ोसी ने तय किया कि इसको एक दफा निन्यानबे रुपए देकर देखें भी तो सही। वह कहता है कि निन्यानबे कभी न लूंगा, सौ ही लूंगा। उसने एक दिन सुबह जैसे ही मुल्ला प्रार्थना कर रहा था, एक निन्यानबे की थैली उसके झोपड़े के आँगन में फेंक दी।

  मुल्ला ने पहला काम रुपए गिनने का किया। वह आधी प्रार्थना आधी रह गई; वह पूरी नहीं कर पाया, नमाज पूरी नहीं हो सकी। उसने जल्दी से पहले गिनती की। निन्यानबे पाकर उसने कहा, वाह रे परमात्मा, एक रुपया थैली का तूने काट लिया! 

 उसने निन्यानबे स्वीकार कर लिए।

   हमारी बनाई हुई प्रार्थना; हमारी प्रार्थना; और हम हिसाब लगा रहे हैं। वहां कोई है या नहीं, इससे बहुत प्रयोजन नहीं है। इसलिए अगर आपको पक्का हो जाए कि परमात्मा नहीं है, तो आपकी प्रार्थना टूट’ जाएगी, यह मैं जानता हूं। इसलिए प्रश्न सार्थक है। लेकिन जो प्रार्थना परमात्मा के न होने से टूट जाती है, वह प्रार्थना थी ही नहीं। प्रार्थना का कोई भी संबंध परमात्मा को बदलने से नहीं है, प्रार्थना आपको बदलने की कीमिया है। जब आप प्रार्थना करते हैं, तो वहां आकाश में बैठा हुआ परमात्मा नहीं रूपांतरित होता। जब आप प्रार्थना करते हैं, तो उस प्रार्थना करने में आप बदलते हैं। 

  तो प्रार्थना एक प्रयोग है, जिस प्रयोग से आप अपने अहंकार को तोड़ते हैं, अपने को झुकाते हैं। वहां कोई नहीं बैठा है, जिसके आगे आप अपने को झुकाते हैं। झुकने की घटना का परिणाम है। आप झुकते हैं। आपको कठिन है बिना परमात्मा के, इसलिए कोई हर्जा नहीं। आप मानते रहें कि परमात्मा है, लेकिन असली जो घटना घटती है, वह आपके झुकने से घटती है।

  आप झुकना सीखते हैं, किसी के सामने समर्पित होना सीखते हैं। कहीं आपका माथा झुकता है, जो सदा अकड़ा हुआ है, वह कहीं जाकर झुकता है। कहीं आप घुटने के बल छोटे बच्चे की तरह हो जाते हैं; कहीं आप रोने लगते हैं, आंखों से आंसू बहने लगते हैं, हलके हो जाते हैं। और मैं कर सकता हूं यह धारणा प्रार्थना से टूटती है। तू करेगा! तू करेगा सवाल नहीं है; मैं कर सकता हूं, यह धारणा टूटती है। मैं नहीं कर सकूंगा, तभी हम प्रार्थना करते हैं। मुझसे नहीं हो सकेगा।

   अगर इसके गहरे अर्थ को समझें, तो इसका अर्थ है, जहां भी आपको समझ में आ जाता है कि कर्ता मैं नहीं हूं वहीं प्रार्थना शुरू हो जाती है। यह कर्तृत्व को खोने की तरकीब है। वह जो कर्तृत्व है कि मैं करता हूं, वह जो अहंकार है, वह जो मेरी अस्मिता है कि करने वाला मैं हूं उसके टूटने का नाम प्रार्थना है।

मैं तुम्हारे शास्त्र छीन लेना चाहता हूं, तुम्हारा ज्ञान छीन लेना चाहता हूं।

मैं तुम्हारे शास्त्र छीन लेना चाहता हूं, तुम्हारा ज्ञान छीन लेना चाहता हूं। 

तुम्हें निर्दोष छोटे बच्चे की भांति हो जाने की जरूरत है कि फिर अवाक और आश्चर्यचकित तुम तितलियों के पीछे दौड़ सको, कि फूल बटोर सको, कि सागरत्तट पर सीपियां इकट्ठी कर सको। 

छोटे बच्चों की भांति हो जाना है, कि घास की पत्ती पर सरकती हुई ओस की बूंद तुम्हें फिर मोती मालूम होने लगे! कि तुम्हारा मन यह न कहे, ज्ञानी मन यह न कहे कि यह क्या है, पानी की बूंद है। 

कि उड़ती तितली तुम्हारे चित्त को ऐसा आकर्षित कर ले, जैसे कोहिनूर! और तुम्हारा तथाकथित ज्ञान यह न कहे, इसमें क्या रखा है, तितली है। 

तुम्हें इस जीवन के रंगों में परमात्मा की पिचकारी का अनुभव होने लगे! यह होली खेली जा रही है! ये इतने रंग वृक्षों के, ये फूलों के, ये तितलियों के, इंद्रधनुषों के, यह सुबह—सांझ की भिन्न—भिन्न भाव—भंगिमाएं, यह एक उत्सव चल रहा है। 

इस उत्सव को तुम आश्चर्यचकित, विस्मय—विमुग्ध फिर से देख पाओ, तो सब हो जाए। ज्ञान जाने दो।

● स्‍त्रियां अश्‍लील नहीं होती है, केवल पुरूष होते है...


कामवासना अंश है प्रेम का, अधिक बड़ी संपूर्णता का। प्रेम उसे सौंदर्य देता है। अन्यथा तो यह सबसे अधिक असुंदर क्रियाओं में से एक है। इसलिए लोग अंधकार में कामवासना की और बढ़ते है। वे स्वयं भी इस क्रिया का प्रकाश में संपन्न किया जाना पसंद नहीं करते है। तुम देखते हो कि मनुष्य के अतिरिक्त सभी पशु संभोग करते है दिन में। कोई पशु रात में कष्ट नहीं उठाता; रात विश्राम के लिए होती है। सभी पशु दिन में संभोग करते है; केवल आदमी संभोग करता है रात्रि में। एक तरह का भय होता है कि संभोग की क्रिया थोड़ी असुंदर है। और कोई स्त्री अपनी खुली आंखों सहित कभी संभोग नहीं करती है। क्योंकि उनमें पुरूष की अपेक्षा ज्यादा सुरुचि-संवेदना होती है। वे हमेशा मूंदी आंखों सहित संभोग करती है। जिससे कि कोई चीज दिखाई नहीं देती। स्त्रियां अश्लील नहीं होती है, केवल पुरूष होते है ऐसे।

इसीलिए स्त्रियों के इतने ज्यादा नग्न चित्र विद्यमान रहते है। केवल पुरूषों का रस है देह देखने में; स्त्रियों की रूचि नहीं होती इसमें। उनके पास ज्यादा सुरुचि संवेदना होती है। क्योंकि देह पशु की है। जब तक कि वह दिव्य नहीं होती, उसमें देखने को कुछ है नहीं। प्रेम सेक्स को एक नयी आत्मा दे सकता है। तब सेक्स रूपांतरित हो जाता है वह सुंदर बन जाता है। वह अब कामवासना का भाव न रहा,उसमें कहीं पार का कुछ होता है। वह सेतु बन जाता है।

तुम किसी व्यक्ति को प्रेम कर सकते हो। इसलिए क्योंकि वह तुम्हारी कामवासना की तृप्ति करता है। यह प्रेम नहीं, मात्र एक सौदा है। तुम किसी व्यक्ति के साथ कामवासना की पूर्ति कर सकते हो इसलिए क्योंकि तुम प्रेम करते हो। तब काम भाव अनुसरण करता है छाया की भांति, प्रेम के अंश की भांति। तब वह सुंदर होता है; तब वह पशु-संसार का नहीं रहता। तब पार की कोई चीज पहले से ही प्रविष्ट हो चुकी होती है। और यदि तुम किसी व्यक्ति से बहुत गहराई से प्रेम किए चले जाते हो, तो धीरे-धीरे कामवासना तिरोहित हो जाती है। आत्मीयता इतनी संपूर्ण हो जाती है कि कामवासना की कोई आवश्यकता नहीं रहती। प्रेम स्वयं में पर्याप्त होता है। जब वह घड़ी आती है तब प्रार्थना की संभावना तुम पर उतरती है।

ऐसा नहीं है कि उसे गिरा दिया गया होता है। ऐसा नहीं है कि उसका दमन किया गया, नहीं। वह तो बस तिरोहित हो जाती है। जब दो प्रेमी इतने गहने प्रेम में होते है कि प्रेम पर्याप्त होता है। और कामवासना बिलकुल गिर जाती है। तब दो प्रेमी समग्र एकत्व में होते है। क्योंकि कामवासना, विभक्त करती है। अंग्रेजी का शब्द ‘सेक्स’ तो आता ही उस मूल से है जिसका अर्थ होता है, विभेद। प्रेम जोड़ता है; कामवासना भेद बनाती है। कामवासना विभेद का मूल कारण है।

जब तुम किसी व्यक्ति के साथ कामवासना की पूर्ति करते हो, स्त्री या पुरूष के साथ, तो तुम सोचते हो कि सेक्स तुम्हें जोड़ता है। क्षण भर को तुम्हें भ्रम होता है एकत्व का, और फिर एक विशाल विभेद अचानक बन आता है। इसीलिए प्रत्येक काम क्रिया के पश्चात एक हताशा, एक निराशा आ घेरती है। व्यक्ति अनुभव करता है कि वह प्रिय से बहुत दुर है। कामवासना भेद बना देती है। और जब प्रेम ज्यादा और ज्यादा गहरे में उतर जाता है तो और ज्यादा जोड़ देता है तो कामवासना की आवश्यकता नहीं रहती। तुम इतने एकत्व में रहते हो कि तुम्हारी आंतरिक ऊर्जाऐं बिना कामवासना के मिल सकती है।

जब दो प्रेमियों की कामवासना तिरोहित हो जाती है तो जो आभा उतरती है तुम देख सकते हो उसे। वह दो शरीरों की भांति एक आत्मा में रहते है। आत्मा उन्हें घेरे रहती है। वह उनके शरीर के चारों और एक प्रदीप्ति बन जाती है। लेकिन ऐसा बहुत कम घटता है।

लोग कामवासना पर समाप्त हो जाते है। ज्यादा से ज्यादा जब इकट्ठे रहते है; तो वे एक दूसरे के प्रति स्नेहपूर्ण होने लगते है ज्यादा से ज्यादा यही होता है। लेकिन प्रेम कोई स्नेह का भाव नहीं है, वह आत्माओं की एकमायता है दो ऊर्जाऐं मिलती है। और संपूर्ण इकाई हो जाती है। जब ऐसा घटता है। केवल तभी प्रार्थना। संभव होती है। तब दोनों प्रेमी अपनी एकमायता में बहुत परितृप्त अनुभव करते है। बहुत संपूर्ण कि एक अनुग्रह का भाव उदित होता है। वे गुनगुनाना शुरू कर देते है प्रार्थना को।

प्रेम इस संपूर्ण अस्तित्व की सबसे बड़ी चीज है। वास्तवमें, हर चीज हर दूसरी चीज के प्रेम में होती है। जब तुम पहुंचते हो शिखर पर, तुम देख पाओगे कि हर चीज हर दूसरी चीज को प्रेम करती है। जब कि तुम प्रेम की तरह की भी कोई चीज नहीं देख पाते। जब तुम धृणा अनुभव करते हो धृणा का अर्थ ही इतना होता है कि प्रेम गलत पड़ गया है। और कुछ नहीं। जब तुम उदासीनता अनुभव करते हो, इसका केवल यही अर्थ होता है कि प्रेम प्रस्फुटित होने के लिए पर्याप्त रूप से साहसी नहीं रहा है। जब तुम्हें किसी बंद व्यक्ति का अनुभव होता है,उसका केवल इतना अर्थ होता है कि वह बहुत ज्यादा भय अनुभव करता है। बहुत ज्यादा असुरक्षा—वह पहला कदम नहीं उठा पाया। लेकिन प्रत्येक चीज प्रेम है।

सारा अस्तित्व प्रेममय है। वृक्ष प्रेम करते है पृथ्वी को। वरना कैसे वे साथ-साथ अस्तित्व रख सकते थे। कौन सी चीज उन्हें साथ-साथ पकड़े हुए होगी? कोई तो एक जुड़ाव होना चाहिए। केवल जड़ों की ही बात नहीं है, क्योंकि यदि पृथ्वी वृक्ष के साथ गहरे प्रेम में न पड़ी हो तो जड़ें भी मदद न देंगी। एक गहन अदृष्य प्रेम अस्तित्व रखता है। संपूर्ण अस्तित्व, संपूर्ण ब्रह्मांड घूमता है प्रेम के चारों और। प्रेम ऋतम्भरा है। इस लिए कल कहा था मैंने सत्य और प्रेम का जोड़ है ऋतम्भरा। अकेला सत्य बहुत रूखा-रूखा होता है।

केवल एक प्रेमपूर्ण आलिंगन में पहली बार देह एक आकार लेती है। प्रेमी का तुम्हें तुम्हारी देह का आकार देती है। वह तुम्हें एक रूप देती है। वह तुम्हें एक आकार देती है। वह चारों और तुम्हें घेरे रहती है। तुम्हें तुम्हारी देह की पहचान देती है। प्रेमिका के बगैर तुम नहीं जानते तुम्हारा शरीर किस प्रकार का है। तुम्हारे शरीर के मरुस्थल में मरू धान कहां है, फूल कहां है? कहां तुम्हारी देह सबसे अधिक जीवंत है, और कहां मृत है? तुम नहीं जानते। तुम अपरिचित बने रहते हो। कौन देगा तुम्हें वह परिचय? वास्तव में जब तुम प्रेम में पड़ते हो और कोई तुम्हारे शरीर से प्रेम करता है तो पहली बार तुम सजग होते हो। अपनी देह के प्रति कि तुम्हारे पास देह है।

प्रेमी एक दूसरे की मदद करते है अपने शरीरों को जानने में। काम तुम्हारी मदद करता है दूसरे की देह को समझने में और दूसरे के द्वारा तुम्हारे अपने शरीर की पहचान और अनुभूति पाने में। कामवासना तुम्हें देहधारी बनाती है। शरीर में बद्धमूल करती है। और फिर प्रेम तुम्हें स्वयं का, आत्मा का स्वय का अनुभव देता है वह है दूसरा वर्तुल। और फिर प्रार्थना तुम्हारी मदद करती है अनात्म को अनुभव करने में,या ब्रह्म को, या परमात्मा को अनुभव करने में।

ये तीन चरण है: कामवासना से प्रेम तक, प्रेम से प्रार्थना तक। और प्रेम के कई आयाम होते है। क्योंकि यदि सारी ऊर्जा प्रेम है तो फिर प्रेम के कई आयाम होने ही चाहिए। जब तुम किसी स्त्री से या किसी पुरूष से प्रेम करते हो तो तुम परिचित हो जाते हो अपनी देह के साथ। जब तुम प्रेम करते हो गुरु से, तब तुम परिचित हो जाते हो अपने साथ। अपनी सत्ता के साथ और उस परिचित द्वारा, अकस्मात तुम संपूर्ण के प्रेम में पड़ जाते हो।

स्त्री द्वार बन जाती है गुरु का, गुरु द्वार बन जाता है परमात्मा का अकस्मात तुम संपूर्ण में जा पहुंचते हो, और तुम जाते हो अस्तित्व के अंतरतम मर्म में।