Thursday, September 17, 2015

अप्रसन्नता

यदि तुम अप्रसन्न हो तो इसका सरल सा अर्थ यहहै कि तुम अप्रसन्न होने की तरकीब सीख गए हो। और कुछ नहीं! अप्रसन्नता तुम्हारे मन के सोचने के ढंग पर निर्भर करतीहै। यहां ऐसे लोग हैं जो हर स्थिति में अप्रसन्न होते हैं। उनके मन में एक तरह का कार्यक"महै जिससे वे हर चीज को अप्रसन्नता में बदल देते हैं। यदि तुम उन्हें गुलाब की सुंदरता के बारे में कहो, वे तत्काल कांटों की गिनती शुरू कर देंगे। यदि उन्हें तुम कहो, "कितनी सुंदर सुबहहै, कितना उजला दिनहै!' वे कहेंगे, "दो अंधेरी रातों के बीच एक दिन, तो इतनी बड़ी बात क्यों बना रहे हो?'ली इसी बात को विधायक ढंग से भी देखा जा सकताहै; तब अचानक हर रात दो दिनों से घिर जातीहै। और अचानक चमत्कार होताहै कि गुलाब संभव होताहै। इतने सारे कांटों के बीच इतना नाजुक फूल संभव हुआ!

सब इस बात पर निर्भर करताहै कि किस तरह के मन का ढांचा तुम लिए हुए हो। लाखों लोग सूली लिए घूम रहे हैं। स्वाभाविक ही, निश्चित रूप से, वे बोझ से दबे हैं; उनका जीवन बस घिसटना मात्रहै। उनका ढांचा ऐसाहै कि हर चीज तत्काल नकारात्मक की तरफ चली जातीहै। यह नकारात्मक को बहुत बड़ा कर देताहै। जीवन के प्रति यह रुग्ण, विक्षिप्त, रवैयाहै। लेकिन वे सोचते चले जाते हैं कि "हम क्या कर सकते हैं? दुनिया ऐसी हीहै।'

नहीं, दुनिया ऐसी नहींहै! दुनिया पूरी तरह से तटस्थहै। इसमें कांटे हैं, इसमें गुलाब के फूल हैंै, इसमें रातें हैं, इसमें दिन भी हैं। दुनिया पूरी तरह से तटस्थहै, संतुलित--इसमें सब कुछहै। अब यह तुम्हारे ऊपर निर्भर करताहै कि तुम क्या चुनते हो। इसी तरह से लोग इसी पृथ्वी पर नर्क और स्वर्ग दोनों ही पैदा करते हैं।

संकल्पों से ऊर्जा


              बहुत छोटे छोटे संकल्पों का प्रयोग करना चाहिए और छोटे  छोटे संकल्पों से ऊर्जा इकट्ठी करनी चाहिए। और हमें जिंदगी में बहुत मौके हैं। आप कार में बैठे जा रहे हैं। आप इतना ही संकल्प कर ले सकते हैं कि आज मैं रास्ते के किनारे लगे बोर्ड नहीं पढूंगा। इसमें किसी का कोई हर्जा नहीं हुआ जा रहा है। इससे किसी का कोई नुकसान फायदा कुछ भी नहीं हो रहा है। लेकिन आपके संकल्प के लिए मौका मिल जाएगा और किसी को कहने की भी कोई जरूरत नहीं। यह आपकी भीतरी यात्रा है कि आप कहते हैं कि मैं यह नहीं पढूंगा आज, जो किनारे पर बोर्ड लगे हैं। और आप पाएंगे कि आधा घंटा कार में बैठना व्यर्थ नहीं गया। जितने आप कार में बैठे थे, उससे कुछ ज्यादा होकर कार के बाहर उतरे हैं। आपने कुछ उपलब्ध किया, जब कि आप ऐसे बैठकर कुछ भी खोते। यह सवाल बड़ा नहीं है कि आप कहां प्रयोग करते हैं। मैं उदाहरण के लिए कह रहा हूं। कुछ भी प्रयोग कर सकते हैं। जिस प्रयोग से भी आपके संकल्प को ठहरने की सामर्थ्य बढ़ती हो, उसे आप कर सकते हैं। ऐसे छोटे छोटे प्रयोग करते रहें।

      अब एक आदमी को हम कहते हैं कि ध्यान में चालीस मिनट’ आंख ही बंद रखो। तीन दफे वह आंख खोलकर देख लेता है बीच में। अब यह आदमी संकल्पहीन है, आत्महीन है। आंख बंद करने का बड़ा फायदा और नुकसान नहीं है। लेकिन चालीस मिनट तय किया तो यह आदमी चालीस मिनट आंख भी नहीं बंद रख सकता, तो और इससे बहुत आशा रखना कठिन है। इस आदमी से हम कह रहे हैं कि दस मिनट गहरी श्वास लो। वह दो मिनट के बाद ही धीमी श्वास लेने लगता है। फिर उससे कहो गहरी श्वास लो, फिर एकाध  दो गहरी श्वास लेता है, फिर धीमी लेने लगता है। वह आत्मवान नहीं है। दस मिनट गहरी श्वास लेना कोई बड़ी कठिन बात नहीं है। और सवाल यह नहीं है कि दस मिनट गहरी श्वास लेने से क्या मिलेगा कि नहीं मिलेगा। एक बात तय है कि दस मिनट गहरी श्वास के संकल्प करने से यह आदमी आत्मवान हो जाएगा। इसके भीतर कुछ सघन हो जाएगा। यह किसी चीज को जीतेगा, किसी रेसिस्टेंस को तोड़ेगा। और वह जो वैगरेंट माइंड है, वह जो आवारा मन है, वह आवारा मन कमजोर होगा। क्योंकि उस मन को पता चलेगा कि इस आदमी के साथ नहीं चल सकता। इस आदमी के साथ जीना है, तो इस आदमी की माननी पड़ेगी।

मैं दुनिया के दुख देखकर बहुत रोता हं। क्या ये दुख रोके नहीं जा सकते?


प्रश्न से तुम्हारे ऐसा लगता है कि कम से कम तुम दुखी नहीं हो। दुनिया के दुख देखकर रोने का हक उसको है जो दुखी न हो। नहीं तो तुम्हारे रोने से और दुख बढ़ेगा, घटेगा थोड़े ही। और तुम्हारे रोने से किसी का दुख कटनेवाला है? दुनिया सदा से दुखी है। इस सत्य को, चाहे यह सत्य कितना ही कडुवा क्यों न हो, स्वीकार करना दया होगा। दुनिया सदा दुखी रही है। दुनिया के दुख कभी समाप्त नहीं होंगे। व्यक्तियों के दुखसमाप्त हुए हैं। व्यक्तियों के ही दुख समाप्त हो सकते हैं। हां, तुम चाहो तो तुम्हारा दुख समाप्त हो सकता है। तुम दूसरे का दुख कैसे समाप्त करोगे?

और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि लोगों को रोटी नहीं दी जा सकती, मकान नहीं दिये जा सकते। दिये जा सकते हैं, दिये जा रहे हैं दिये गये हैं। लेकिन दुख फिर भी मिटते नहीं। सच तो यह है, दुख और बढ़ गये हैं। जहां लोगों को मकान मिल गये हैं रोटी रोजी मिल गई है, काम मिल गया है, धन मिल गया है वहां दुख और बढ़ गये हैं, घटे नहीं है।

आज अमरीका जितना दुखी है उतना इस पृथ्वी पर कोई देश दुखी नहीं है। हां, दुखी ने नया रूप ले लिया। शरीर के दुख नहीं रहे, अब मन के दुख हैं। और मन के दुख निश्चित ही शरीर के दुख से ज्यादा गहरे होते हैं। शरीर को गहराई ही क्या! गहराई तो मन की होती है। अमरीका में जितने लोग पागल होते हैं उतने दुनिया के किसी देश में नहीं होते। और अमरीका में जितने लोग आत्महत्या करते हैं उतनी आत्महत्या दुनिया में कहीं नहीं की जाती। अमरीका में जितने विवाह टूटते हैं उतने विवाह कहीं नहीं टूटते। अमरीका के मन पर जितना बोझ और चिंता है उतनी किसी के मन पर नहीं है। और अमरीका भौतिक अर्थों में सबसे ज्यादा सुखी है। पृथ्वी पर पहली बार पूरे अब तक के इतिहास में एक देश समृद्ध हुआ है। मगर समृद्धि के साथ साथ दुख की भी बाढ़ आ गई।

मेरे लेखे जब तक आदमी जागृत न हो तब तक वह क़ुछ भी करे, दुखी रहेगा। भूखा हो तो भूख से दुखी रहेगा और भरा पेट हो तो भरे पेट के कारण दुखी रहेगा। जीसस के जीवन में एक कहानी है। ईसाइयों ने बाइबल में नहीं रखी है। कहानी जरा खतरनाक है लेकिन सूफी फकीरों ने बचा ली है। कहानी है कि जीसस एक गांव मे प्रवेश करते हैं और उन्हेंने देखा, एक आदमी शराब पिये नाली में पड़ा हुआ गंदी गालियां बक रहा है। समझाने वे झुके, उसके चेहरे से भयंकर बदबू उठ रही है। चेहरा पहचाना हुआ मालूम पड़ा। याद उन्हें आयी। उन्होंने उस आदमो को हिलाया आर कहा, मेरे भाई! जरा आंख खोल और मुझे देख। क्या तू मुझे भूल गया? क्‍या तुझे बिलकुल याद नहीं है कि मैं कोन हूं?

उस आदमी ने गौर से देखा और कहा, हां याद है। और तुम्हारे ही कारण मैं दुःख भोग रहा हूं। क्योंकि मैं बीमार था, बिस्तर से लगा था, तुमने मुझे स्वस्थ किया। तुमने छुआ और मैं स्वस्थ हो गया। अब मैं तुमसे पूछता हूं इस स्वास्थ का क्या करू? शराब न पीऊं तो और क्या करूं? बीमार था तो बिस्तर पर लगा था। शराब का ख्याल ही नहीं उठता था। जबसे स्वस्थ हुआ हूं तबसे यह झंझटट्रै सिर पर पड़ी। तुम्हीं जिम्मेवार हो।
जीसस तो बहुत चौंके। ऐसा शायद उन्होंने पहले कभी सोचा भी न होगा। उदास थोड़े आगे बड़े बढ़े। उन्होंने एक और आदमी को एक वेश्या के पीछे भागते देखा। उसको रोका और कहा, मेरे भाई, परमात्मा ने आंखें इसलिए नहीं दी हैं। उस आदमी ने जीसस को देखा और कहा कि परमात्मा ने तो दी ही नहीं थीं। तुम्हीं हो जिम्मेवार। मैं अंधा था, तुमने मेरी आंखें छुई और मुझे आंखें मिल गई। अब मैं इन आंखों का क्या करूं, तुम्हीं बताओ। तुमने आंखें क्या दीं, तबसे मैं स्त्रियों के पीछे भाग रहा हूं। जीसस तो बहुत हैरान हो गये। वे तो फिर गांव में गये नहीं और आगे, उदास लौट आये। लौटते थे तो गांव के बाहर देखा, एक आदमी एक वृक्ष में रस्सी बांधकर फांसी लगाने का आयोजन कर रहा था। भागे, उसे रोका; कहा, यह तू क्या कर रहा है?इतना अमूल्‍य जीवन.! उस आदमी ने कहा, अब मेरे पास मत आना। मैं तो मर गया था, तुमने ही। मुझे जिंदा किया। अब इस जिंदगी का मैं क्या करूं? जिंदगी बड़ी बोझ है। मुझे मर जाने दो। कृपा करके और चमत्कार मत दिखाओ। तुम्हारे चमत्कार दिखाने की वजह से हम मुसीबत में पड़ रहे हैं। तुम्हें चमत्कार दिखाना हो तो कहीं और दिखाओ। तुम मुझे बक्शों, मुझे क्षमा कर दो।

इस कहानी की अर्थवत्ता देखो। तुम्हारे पास आंखें हैं, करोगे क्या? तुम्हारे पास स्वास्थ्य है, करोगे क्या? तुम्हारे पास जीवन है, करोगे क्या? जब तक जागरण न हो तब तक आंखें होते हुए भी अंधे होओगे। और आंखें तुम्हें गड्ढों की तरफ ले जायेंगी। और जब तक जागरण न हो, स्वस्थ हुए तो पाप के अतिरिक्त: कुछ करने को दिखाई नहीं पड़ेगा। स्वास्थ्य तुम्हें पाप में ले जायेगा। और जब तक जाग्रत न होओ तब तक जीवन भी व्यर्थ है; बोझ हो जायेगा। आत्मघात का तुम विचार करने लगोगे।

"राजनीति"



तुम जरा
धनियों की
आंखों में तो
झांककर देखो,
निर्धनता पाओगे वहां!

तुम बड़े-बड़े पदों पर बैठे लोगों के भीतर तो झांको,
वहां बड़ी हीनता पाओगे।

मनोवैज्ञानिक तो कहते ही हैं,
सिर्फ हीनता की ग्रंथि से पीड़ित लोग ही पदाकांक्षी होते हैं,
महत्वाकांक्षी होते हैं।
हीनता की ग्रंथि से जो पीड़ित हैं,
वे ही राजनीति में प्रवेश करते हैं।

राजनीति में प्रतिभाशाली लोग नहीं जाते।
संयोगवशात कभी कोई प्रतिभाशाली आदमी राजनीति में मिल जाए,
बात और।
अपवाद स्वरूप।

लेकिन सामान्यता राजनीति में जाता ही है रुग्णचित्त व्यक्ति,
जो इनफीरिअरिटी कांप्लेक्स,
हीनता की गहन ग्रंथि से भरा हुआ है।

जो जानता है कि मैं कुछ नहीं हूं
और बताना चाहता है कि मैं कुछ हूं,

और एक ही उपाय दिखायी पड़ता है कि हाथ में शक्ति हो,
पद हो, सत्ता हो।
फिर अगर सत्ता सेवा करने से मिलती हो तो सेवा भी करता है।
मगर लक्ष्य सत्ता का है।
किसी तरह पद पर बैठ जाए!

लेकिन जरा पद जिनके पास हैं, उनके भीतर झांकना।
वहां न विश्राम है,
न आनंद है,
न प्रेम है।
हो ही नहीं सकता।
क्योंकि प्रेम ही होता तो पद के लिए जो संघर्ष करना पड़ता है वह करना मुश्किल हो जाता।

उसमें तो कई गर्दनें काटनी पड़ती हैं। कई लोगों को सीढ़ियां बनाना पड़ता है, उनकी लाशों पर पैर रखकर चढ़ना पड़ता है।

दिल्ली कोई ऐसे ही नहीं पहुंच जाता!
पीछे बड़ा मरघट छोड़ जाना पड़ता है,
तब कोई दिल्ली पहुंच पाता है।
न मालूम कितने लोगों को दुखी और पीड़ित करना होता है,
तब कोई दिल्ली पहुंच पाता है।

अगर प्रेम होता तो यह संभव ही नहीं था।
और इतने लोगों को दुखी और पीड़ित और
पराजित करके जो पहुंच जाएगा पद पर,
वह चैन से कैसे रह सकता है?

क्योंकि वे सब लोग बदला लेने को आतुर रहेंगे।
और जो पद पर पहुंच जाएगा--कोई अकेला ही तो पदाकांक्षी नहीं है,
सारा मनुष्यों का जगत तो पदाकांक्षी है,
सारी पृथ्वी तो रोग से भरी है महत्वाकांक्षा के,

हर बच्चे में तो हमने जहर घोल दिया है महत्वाकांक्षा--तो तुम अकेले ही पद पर थोड़े ही पहुंचते हो,
सारे लोग पहुंच रहे हैं उसी पद पर,
तो बड़ी धक्का-धुक्की है,
बड़ी मारामारी है।

चैन कहां? विश्राम कहां?
कितना ही पा लो इस जगत में,
कुछ मिलता नहीं।
लेकिन इतने बुद्धिमान कम लोग होते हैं,
जितनी याज्ञवल्क्य की पत्नी थी,
जिसने कहा कि जब आपको कुछ नहीं मिला,
तो मुझे दे जाते हैं?
मुझे भी वही मार्ग दिखाए।

तुम जरा गौर से अपने चारों तरफ देखो,
अगर तुम में जरा भी बुद्धि है तो
एक बात समझ में आ जाएगी
कि संसार में पाने योग्य कुछ भी नहीं है।
और इस बोध की घड़ी का नाम ही संन्यास है।

परमात्मा कहाँ है ?

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परमात्मा तुम्हारे चारो और है,
लेकीन तुम शास्रों से,
थोथे ज्ञान से और अपने ही
अहंकार से इतने अधिक
भरे हुए हो कि वहां अंदर कोई
खाली स्थान बचा ही नही...!

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पढाई-लिखाई - नानक का जनेउ

इस दुनिया में हम जो पढ़ रहे है, वह एक-दूसरे पर सवारी करते के उपाय है ! यहां पढना तुम्हारे संघर्ष का आयोजन है ! तुम ठीक से लड़ सकोगे अगर तुम्हारे पास डिग्रियां है ! तुम दूसरो के कंधो पर सवार हो सकोगे अगर तुम्हारे पास डिग्रियां है ! ये विधालय तुम्हारे हिंसा के फैलाव है ! इनके कारण तुम ज्यादा कुशलता से शोषण कर सकोगे ! दूसरो को व्यवस्था से सता सकोगे ! कानून से जुर्म कर सकोगे ! नियम से, विधि से वह सब कर सकोगे जो कि नही करना चाहिए ! सारी पढाई-लिखाई बेईमानी का प्रशिक्षण है ! तुम लोगो पर सवार हो सकोगे ! इससे कभी कोई ज्ञानी तो नही हुआ ! इससे ही तो लोग अज्ञानी होते चले जाते है ! हमारे विधालय अविधालय है ! वहां ज्ञान तो कभी घटता नही !
नानक को उनके स्कूल का अध्यापक पंडित छोड़ गया घर, यह अपने बस के बाहर है !

नानक का जनेउ हो रहा था , तो सारा समारंभ हो गया था ! सब लोग आ गए थे ! बैंड-बाजे बज चुके थे, पंडित सूत्र पढ़ चुका था ! फिर वह गले में जनेउ डालने लगा तो जनेउ डालने लगा तो नानक ने कहा, रुको ! इस जनेउ के डालने से क्या होगा ? उस पंडित ने कहा कि इस जनेउ के डालने से तुम द्विज हो जाओगे ! नानक ने पूछा कि द्विज का क्या अर्थ है ? द्विज का अर्थ है कि दुबारा जन्म ! क्या इस सूत के धागे को डाल लेने से मेरा दुबारा जन्म हो जाएगा ? क्या मैं नया हो जाऊंगा ? क्या पुराना मर जाएगा और नए का जन्म हो जाएगा ? अगर यह होता हो तो मैं तैयार हूं ! 

पंडित भी डरा ! क्योंकि माला गले में डाल लेने से जनेउ की क्या होने को है ? फिर नानक ने पूछा कि यह जनेउ अगर टूट गया तो ? उसने कहा कि बाज़ार में और मिलते है ! इसको फेंक देना , दूसरा ले लेना ! तो नानक ने कहा कि फिर यह रहने ही दो जो खुद टूट जाता है , जो बाज़ार में बिकता है, जो दो पैसे में मिल जाता है, उससे उस परमात्मा की क्या खोज होगी ? जिसको आदमी बनाता है , उससे परमात्मा की क्या खोज होगी ! आदमी का कृत्य छोटा है !

तुम सत्य चाहते नहीं, तुम सांत्वना चाहते हो

परमात्मा ऐसा थोड़े ही है कि कल मिलेगा। आख खोलो तो अभी मिल जाए। आख खोलो तो अभी है। तुम कहते हो : नहीं, अभी नहीं। अभी तो मुझे और हजार काम हैं। अभी परमात्मा मिल गया तो मैं और अपने हजार काम कैसे करूंगा? नहीं, अभी नहीं। इतना ही आशीर्वाद दें कि जब मुझे जरूरत हो तब मिल जाए।

तुम पहले तो धर्म लेते हो अतीत से उधार और परमात्मा को सरकाते हो भविष्य में। तुम्हारे मन की तरकीब को ठीक से समझ लेना। धर्म तुम्हारा होता है अतीत का और परमात्मा सदा भविष्य में। और वर्तमान को तुम बचा लेते हो संसार के लिए। इसलिए धर्म तुम लेते हो बुद्ध से, महावीर से, कृष्ण से, क्राइस्ट से। जब कृष्ण और बुद्ध जिंदा थे, तब तुमने उनसे धर्म नहीं लिया, क्योंकि तब वे वर्तमान थे। तब तुम धर्म ले रहे थे वेद से, उपनिषद से। और जब वेदों के ऋषि जिंदा थे तब तुम उनसे धर्म नहीं ले रहे थे। तुम्हारा बड़ा मजा है। तुम हमेशा मुर्दा गुरु से धर्म लेते हो, क्योंकि मुर्दा गुरु का धर्म तुम्हें जरा भी अड़चन नहीं देता। कांटे नहीं चुभते उससे, फूलों की सेज मिल जाती है। सांत्वना मिलती है, सत्य नहीं मिलता।

और तुम सत्य चाहते नहीं, तुम सांत्वना चाहते हो।