तुम जरा
धनियों की
आंखों में तो
झांककर देखो,
निर्धनता पाओगे वहां!
तुम बड़े-बड़े पदों पर बैठे लोगों के भीतर तो झांको,
वहां बड़ी हीनता पाओगे।
मनोवैज्ञानिक तो कहते ही हैं,
सिर्फ हीनता की ग्रंथि से पीड़ित लोग ही पदाकांक्षी होते हैं,
महत्वाकांक्षी होते हैं।
हीनता की ग्रंथि से जो पीड़ित हैं,
वे ही राजनीति में प्रवेश करते हैं।
राजनीति में प्रतिभाशाली लोग नहीं जाते।
संयोगवशात कभी कोई प्रतिभाशाली आदमी राजनीति में मिल जाए,
बात और।
अपवाद स्वरूप।
लेकिन सामान्यता राजनीति में जाता ही है रुग्णचित्त व्यक्ति,
जो इनफीरिअरिटी कांप्लेक्स,
हीनता की गहन ग्रंथि से भरा हुआ है।
जो जानता है कि मैं कुछ नहीं हूं
और बताना चाहता है कि मैं कुछ हूं,
और एक ही उपाय दिखायी पड़ता है कि हाथ में शक्ति हो,
पद हो, सत्ता हो।
फिर अगर सत्ता सेवा करने से मिलती हो तो सेवा भी करता है।
मगर लक्ष्य सत्ता का है।
किसी तरह पद पर बैठ जाए!
लेकिन जरा पद जिनके पास हैं, उनके भीतर झांकना।
वहां न विश्राम है,
न आनंद है,
न प्रेम है।
हो ही नहीं सकता।
क्योंकि प्रेम ही होता तो पद के लिए जो संघर्ष करना पड़ता है वह करना मुश्किल हो जाता।
उसमें तो कई गर्दनें काटनी पड़ती हैं। कई लोगों को सीढ़ियां बनाना पड़ता है, उनकी लाशों पर पैर रखकर चढ़ना पड़ता है।
दिल्ली कोई ऐसे ही नहीं पहुंच जाता!
पीछे बड़ा मरघट छोड़ जाना पड़ता है,
तब कोई दिल्ली पहुंच पाता है।
न मालूम कितने लोगों को दुखी और पीड़ित करना होता है,
तब कोई दिल्ली पहुंच पाता है।
अगर प्रेम होता तो यह संभव ही नहीं था।
और इतने लोगों को दुखी और पीड़ित और
पराजित करके जो पहुंच जाएगा पद पर,
वह चैन से कैसे रह सकता है?
क्योंकि वे सब लोग बदला लेने को आतुर रहेंगे।
और जो पद पर पहुंच जाएगा--कोई अकेला ही तो पदाकांक्षी नहीं है,
सारा मनुष्यों का जगत तो पदाकांक्षी है,
सारी पृथ्वी तो रोग से भरी है महत्वाकांक्षा के,
हर बच्चे में तो हमने जहर घोल दिया है महत्वाकांक्षा--तो तुम अकेले ही पद पर थोड़े ही पहुंचते हो,
सारे लोग पहुंच रहे हैं उसी पद पर,
तो बड़ी धक्का-धुक्की है,
बड़ी मारामारी है।
चैन कहां? विश्राम कहां?
कितना ही पा लो इस जगत में,
कुछ मिलता नहीं।
लेकिन इतने बुद्धिमान कम लोग होते हैं,
जितनी याज्ञवल्क्य की पत्नी थी,
जिसने कहा कि जब आपको कुछ नहीं मिला,
तो मुझे दे जाते हैं?
मुझे भी वही मार्ग दिखाए।
तुम जरा गौर से अपने चारों तरफ देखो,
अगर तुम में जरा भी बुद्धि है तो
एक बात समझ में आ जाएगी
कि संसार में पाने योग्य कुछ भी नहीं है।
और इस बोध की घड़ी का नाम ही संन्यास है।
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