Sunday, September 4, 2016

निश्चित ही, भीतर अज्ञान हो तो हम जो भी करेंगे वह ठीक नहीं हो सकता।

🌹❤ पूछा है: यदि अज्ञान से घिरा हुआ व्यक्ति जो भी करेगा वह गलत होगा, तो ध्यान, जागरण, इसकी जो चेष्टा है वह भी उसकी गलत होगी। फिर तो कोई द्वार नहीं रहा, फिर तो कोई मार्ग नहीं रहा। ❤🌹

निश्चित ही, भीतर अज्ञान हो तो हम जो भी करेंगे वह ठीक नहीं हो सकता। सामान्यतया सोचा जाता है कि कर्म ठीक होते हैं या गलत होते हैं। एक आदमी मंदिर जाता है तो हम कहते हैं ठीक है; एक आदमी वेश्यागृह में जाता है तो हम कहते हैं गलत है।

एक आदमी चोरी करता है तो हम कहते हैं बुरा है, पाप है; एक आदमी दान देता है तो हम कहते हैं शुभ है, पुण्य है। हम कर्मों को देखते और विचार करते हैं। मेरे देखे यह आमूलतः गलत है। कर्म न तो अच्छे हो सकते हैं और न बुरे; चेतना अच्छी होती है या बुरी। और चेतना यदि गलत हो तो चाहे कर्म ऊपर से कितना ही ठीक दिखाई पड़े, बुनियाद में, आधार में गलत होगा।

जैसे, एक आदमी जिसने जीवन भर शोषण किया हो,शोषण से धन इकट्ठा किया हो, मंदिर बनाए, तो मंदिर बनाना कृत्य अच्छा नहीं हो सकता। मंदिर बनाना दिख रहा है कि बहुत अच्छा, लेकिन उसके प्रयोजन अच्छे नहीं हो सकते हैं। हो सकता है वह अपने नाम को छोड़ जाने के लिए मंदिर बनाता हो, अपने अहंकार की पुष्टि के लिए मंदिर बनाता हो। और सच तो यही है कि अब तक जो मंदिर बनाए गए हैं उनमें परमात्मा की कोई स्थापना नहीं हुई, उनमें तो अपने-अपने बनाने वालों का अहंकार ही प्रतिष्ठित हुआ है। इसीलिए तो जो मंदिर बनाता है उसकी चिंता इसकी बहुत कम होती है कि उसके भीतर क्या होता है, उसकी चिंता यही ज्यादा होती है कि उसके बाहर किसका नाम है। नाम की चिंता प्रमुख है,परमात्मा की और प्रार्थना की कोई चिंता नहीं है।

जो व्यक्ति, भीतर से जिसकी चेतना शुभ नहीं हुई है,जाग्रत नहीं है, कुछ भी करेगा--वह दान भी देगा तो भी दान में जिसे उसने दान दिया उसके प्रति प्रेम नहीं होगा। हो सकता है दान में भी अहंकार की ही पूजा हो। उसमें भी वह यह अनुभव करना चाहता हो कि मैं बड़ा दानी हूं। उसमें भी वह मजा लेना चाहता हो। उसमें भी उसका रस हो। होगा! उसका रस यह नहीं होगा कि किसी की दरिद्रता मिट जाए। क्योंकि अगर दानी का यही रस होता कि किसी की दरिद्रता मिट जाए तो उसके पास धन इकट्ठा कैसे होता? अगर दरिद्रता मिटाना ही उसके चित्त की स्थिति होती, दुख मिटाना ही उसके चित्त की स्थिति होती, तो धन इकट्ठा कैसे होता? दरिद्रता पैदा कैसे होती?

आश्चर्यजनक है कि दुनिया में दानी भी हैं और दरिद्रता भी है! और हो सकता है ये दानी ही दरिद्रता के लाने में भी कारण हों। क्योंकि यह धन कहां से आता है?

जब कोई धन इकट्ठा करता है तो दूसरी तरफ दरिद्रता पैदा होती है। जब एक तरफ धन के ढेर लगने लगते हैं तो दूसरी तरफ धन का अभाव पड़ जाता है। जिसके पास ढेर बहुत बढ़ जाते हैं वह उनके दान भी करने लगता है। लेकिन उस चित्त में दरिद्र के प्रति प्रेम नहीं है। और यह दान जो वह कर रहा है इसमें भी और नये इनवेस्टमेंट हैं, मोक्ष तक केइनवेस्टमेंट हैं। वह दान इसलिए कर रहा है, यहां उसने इकट्ठा किया, यहां उसने सुख भोगा--जिसको उसने सुख समझा, वह सुख हो या न हो--यहां उसने बहुत धन इकट्ठा किया, बड़े मकान बनाए, अब वह इस बात के लिए भी चिंतित है कि स्वर्ग में उसकी हवेली छोटी न हो, वहां भी बड़ी होनी चाहिए। वहां भी पुण्य का खाता वह खोल लेना चाहता है, वहां भी जाकर वह दावेदार होगा, वहां भी जाकर वह अपना इंतजाम कर लेना चाहता है, इसलिए सारी व्यवस्था कर रहा है। दरिद्र से उसे प्रेम नहीं है। अपने अमीर होने से पश्चात्ताप नहीं है। धन के प्रति उसका मोह कम नहीं हुआ है, लोभ उसका कम नहीं हुआ है,बल्कि और बढ़ गया है। इस संसार को छोड़ कर परलोक तक उसके लोभ की व्यापकता हो गई है, वह दूर तक सोचने लगा है। यहां उसका बैंक है, यहां उसका एकाउंट है। वहां परमात्मा के जगत में भी अगर कोई एकाउंट हो सकता है, उसकी भी व्यवस्था है, वह कर रहा है। वह वहां दर्ज करवा रहा है कि स्मरण रहे, मैं यहां भी दरिद्र नहीं था, मैं वहां भी दरिद्र नहीं रहना चाहता हूं। और तब उससे दान निकल रहा है। तब वह बांट रहा है गरीबों को।

यह सब झूठा होगा, यह मिथ्या होगा। यह शुभ नहीं है। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि आप क्या करते हैं, महत्वपूर्ण यह है कि आप क्या हैं! आपका होना महत्वपूर्ण है, आपकी बीइंग। आपका एक्शन और आपकी डूइंग नहीं। आप क्या करते हैं,यह महत्वपूर्ण नहीं है। आप क्या हैं? क्योंकि उसी होने से तो आपका कृत्य निकलेगा, उसी होने से आपका कर्म निकलेगा।

कर्म हो सकता है अच्छा दिखाई पड़े। और अच्छा क्यों दिखाई पड़ता है? समाज को जिसमें सुविधा होती है वह अच्छा दिखाई पड़ने लगता है कर्म, जिसमें समाज को असुविधा होती है वह बुरा दिखाई पड़ने लगता है। लेकिन धर्म के और आत्मा के जगत में वैल्यूज अलग हैं, मूल्य अलग हैं। समाज मूल्य नहीं है। कौन सी स्थिति मुझे अधिक जागरण,अधिक आनंद, अधिक सत्य के करीब ले जाती है, वह शुभ है। कौन सी स्थिति मेरे भीतर दुख को लाती है, चिंता को लाती है,अंधेरे को लाती है, अज्ञान को बढ़ाती है, वह अशुभ है।

सवाल बिलकुल भीतर है। और इस भीतर को हम आचरण से नहीं तौल सकते हैं। क्योंकि भीतर दूसरा आदमी हो सकता है, आचरण में दूसरा आदमी हो सकता है। भीतर बहुत क्रोधी आदमी हो सकता है, ऊपर क्षमा की बातें कर सकता है। और अक्सर ऐसा होता है, जो भीतर बहुत क्रोधी होता है वह बाहर क्षमा को ओढ़ लेता है। जो बहुत कुरूप अपने को अनुभव करता है वह सुंदर वस्त्र पहनता है ताकि कुरूपता छिप जाए। जो जितना कुरूप खयाल करता है अपने को उतने आभूषण लाद लेता है ताकि कुरूपता छिप जाए। सौंदर्य को ओढ़ता है ताकि कुरूपता दिखाई न पड़े। जहां जितना क्रोध है वहां उतनी क्षमा को ओढ़ने की चेष्टा चलती है। जहां भीतर जितनी हिंसा है वहां ऊपर अहिंसा को ओढ़ने की तरकीबें चलती हैं। भीतर कुछ और है, बाहर कुछ और है,क्योंकि बाहर हम वह नहीं दिखना चाहते हैं जो हम भीतर हैं। इसलिए हम अहिंसा ओढ़ सकते हैं, सस्ती अहिंसा ओढ़ सकते हैं और उसके ओढ़ने के भीतर अपनी हिंसा को छिपा सकते हैं।

यह जो स्थिति है, यह जो हमारी स्थिति है भेद की--भीतर हम कुछ और हैं, बाहर हम कुछ और हैं। इसलिए केवल कृत्य से नहीं सोचा जा सकता कि क्या हो रहा है। कृत्य से नहीं सोचा जा सकता। वही आदमी चर्च को बनाने के लिए पैसा देता है, वही आदमी वार-फंड में भी पैसा देता है। वही आदमी है! वही मंदिर भी बनाता है, वही युद्ध के लिए भी पैसा दान करता है। यह इस आदमी की चेतना कैसी है? क्योंकि जिस आदमी ने परमात्मा के मंदिर के लिए दान दिया, उसके लिए युद्ध के लिए दान देने का अब कोई उपाय नहीं रह गया।

लेकिन वही आदमी दे रहा है! उसके पास पैसा है, वह युद्ध में भी देता है। वह उस चर्च को भी देता है जहां प्रेम की शिक्षा दी जाती है और वह युद्ध को भी देता है जहां आदमी की हत्या की जाती है। वही गीता भी छपवा कर बंटवाता है,वही युद्ध के लिए भी सहायता करता है।

यह जो आदमी है इसके भीतर चेतना सोई हुई है, यह जो भी कर रहा है वह गलत है। गलत चेतना से ठीक कर्म असंभव है। एक ऐसे कुएं से जिसमें जहर भरा हो, ऐसा पानी निकालना असंभव है जिसमें जहर ऊपर न आ जाए। आएगा ही! जो भीतर है वही बाहर आता है। इसलिए मैंने कहा कि अज्ञान की स्थिति में जो भी हम करेंगे वह गलत होगा, वह शुभ नहीं हो सकता।                                             
                                        

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