धर्म का रास्ता अकेले का है। वह खोज तनहाई की है। और व्यक्ति ही वहां तक पहुंचता है, समाज नहीं। अब तक तुमने कभी किसी समाज को बुद्ध होते देखा? किसी भीड़ को तुमने समाधिस्थ होते देखा? व्यक्ति—व्यक्ति पहुंचते हैं, अकेले—अकेले पहुंचते हैं। परमात्मा से तुम डेपुटेशन लेकर न मिल सकोगे, अकेला ही साक्षात्कार करना होगा।
संगठित धर्म—धर्म नहीं रहा, समाज का हिस्सा हो गया;रीति—रिवाज हो गया, क्रांति नहीं। जीवंत धर्म समाज का हिस्सा नहीं है; व्यक्ति के भीतर की आग है। इसलिए जो दिल वाले हैं, जिगर वाले हैं, बस उनकी ही बात है।
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