हमें दैरो—हरम के तफरकों से काम ही क्या है
मंदिर और मस्जिद के झगड़ों से मतलब क्या है? संप्रदायों के ऊहापोह से प्रयोजन क्या है? सिद्धांतों की रस्साकशी में पड़ने की जरूरत क्या है?
हमें दैरो—हरम के तफरकों से काम ही क्या है
सिखाया है किसी ने अजनबी बनकर गुजर जाना
मंदिर और मस्जिद से अपने दामन को बचाकर गुजर जाना; कहीं उलझ मत बैठना काटो में। जहां भी तुम्हें लगे कि मुर्दा है, लाश है, वह कितने ही प्यारे आदमी की हो, इससे क्या फर्क पड़ता है। अपनी मां मर जाती है तो उसको भी दफना आते हैं; प्यारी थी, दफनाने की बात ही नहीं जंचती, बात ही कठोर लगती है; इधर मरी नहीं, वहां अर्थी सजने लगती है,चले मरघट! रोते जाते हैं, लेकिन जाना तो पड़ता है मरघट। आंसू बहाते हैं, लेकिन आग तो लगानी पड़ती है चिता में।
ऐसी ही समझ और ऐसी ही हिम्मत मुर्दा धर्मों के साथ भी होनी चाहिए। जो मर गए, अब उनसे कुछ होता नहीं। कभी उनसे हुआ था—मैं यह नहीं कहता—कभी उनसे बड़ी क्रांति घटी थी, अन्यथा वे इतने दिन जिंदा कैसे रह जाते? मरकर भी इतने दिन तक जिंदा कैसे रहते? लाश को भी कोई बचाता क्यों? लाश बड़ी प्यारी रही होगी कभी, लाश चलती रही होगी। कभी इस लाश में भी जीवन रहा होगा। इन आंखों में भी दीए जलते होंगे कभी। कभी इन हृदयों में भी धड़कन रही होगी। कभी इन ने भी लोगों को छुआ होगा, बदला होगा। कभी इनके कारण लाखों लोग नए जीवन को उपलब्ध हुए होंगे—सच,माना।
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