"बर्ट्रेंड रसेल पहली बार एक आदिवासी समाज में गया।
पूरे चांद की रात...
और जब आदिवासी नाचने लगे
और ढोल बजे और मंजीरे बजे
तो रसेल के मन में उठा
कि सभ्य आदमी ने कितना खो दिया है!
सभ्यता के नाम पर हमारे पास है क्या?
न ढोल बजते हैं, न मंजीरा बजता है,
न कोई नाचने की क्षमता रह गयी है;
पैर ही नाचना भूल गये हैं।
रसेल ने लिखा है
कि उस रात पूरे चांद के नीचे,
वृक्षों के नीचे नाचते हुए
नंगे आदिवासियों को देखकर
मेरे मन में यह सवाल उठा
कि हमने पाया क्या है प्रगति के नाम पर?
और उसने यह भी लिखा
कि अगर लंदन में लौटकर मैं ट्रेफिलगर क्मायर में खड़े होकर नाचने लगा तो तत्क्षण पकड़ लिया जाऊंगा।
लोग समझेंगे पागल हो गये।
लोग दुख को तो समझते हैं स्वास्थ्य और आनंद को समझते हैं विक्षिप्तता।
हालतें इतनी बिगड़ गयी
हैं कि इस दुनिया में केवल पागल ही हंसते हैं,
बाकी समझदारों को तो हंसने की फुर्सत कहां है?
समझदारों के हृदय तो सूख गये हैं।
समझदार रुपये गिनने में उलझे हैं।
समझदार महत्वाकांक्षा की सीढ़ियां चढ़ रहे हैं।
समझदार तो कहते हैं दिल्ली चलो।
फुर्सत कहा है हंसने की,
दो गीत गाने की,
इकतारा बजाने की,
तारों के नीचे वृक्षों की छाया में नाचने की,
सूरज को देखने की,
फूलों से बात करने की,
वृक्षों को गले भेंटने की,
फुर्सत किसे है?
ये तो आखिर की बातें हैं,
जब सब पूरा हो जायेगा—
धन होगा, पद होगा, प्रतिष्ठा होगी, तब बैठ लेंगे वृक्षों के नीचे।
लेकिन यह दिन कभी आता नहीं
न कभी आया है, न कभी आयेगा।
ऐसे जिंदगी तुम गुजार देते हो रोते—रोते, झींकते—झीकते।
ऐसे ही आते हो ऐसे ही चले जाते हो—खाली हाथ आये,खाली हाथ गये।
तो अगर तुम्हें कभी भीतर का रस जन्मने लगे
और भीतर स्वाद आने लगे..
और देर नहीं लगती आने में,
जरा भीतर मुड़ो
कि वह सब मौजूद है..."
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