Monday, July 6, 2015

अगर आखिर में आराम ही करना है, आओ, लेट जाओ

जिस दिन दुनिया में मीराएं बढ़ जाएं उस दिन दुनिया में बड़ी शांति होगी, हनुमान बढ़ जाएं तो बड़ा उपद्रव होगा। गांव-गांव अखाड़े खुल जाएंगे और जगह-जगह उपद्रव होने लगेगा। तो एकाध हनुमान चल सकते हैं एकाध गांव में, ज्यादा नहीं चल सकते। मीरा, मीरा का तारतम्य, मीरा का संबंध जीवन के बहुत गहरे तलों से है। हनुमान बेचारे काम करने वाले एक सेवक हैं, एक "वालंटियर' हैं। "वालंटियर' को जैसा होना चाहिए, वैसे वे हैं। वे किसी के लिए जी रहे हैं--काम में लगे हैं, धुन के पक्के हैं, सेवक हैं, वह सब ठीक है। लेकिन, मीरा के आनंद की धुन "बीइंग' की धुन है, "डूइंग' की नहीं। वह कुछ करने का मजा नहीं है, होने के क्षण का मजा है। होना ही आनंदपूर्ण है। और अगर गीत वह गा रही है तो गीत गाना काम नहीं है, उसके होने के आनंद से निकली हुई अभिव्यक्ति है। वह इतने आनंद में है कि उससे गीत ही निकल सकता है।
तो मैं चाहूंगा कि जगत धीरे-धीरे संगीत से भरे, गीत से भरे, नृत्य से भरे, उत्सव से भरे। और जिसको हम बाहर का जगत कहते हैं, काम की जो दुनिया है, इस काम की दुनिया का इतना ही उपयोग है कि हम इसमें इतने दूर तक हों जितने दूर तक भीतर जाने के लिए जरूरी हो। इससे ज्यादा होने की जरूरत नहीं है। और रोटी कमानी पड़ेगी, लेकिन रोटी कमाना जिंदगी नहीं है। रोटी कमानी ही इसलिए पड़ती है कि कमा लिया और फिर जिएं। लेकिन कुछ लोग रोटी पर रोटी का ढेर लगाते चले जाते हैं। वे खाना भूल जाते हैं। जब तक रोटियां इकट्ठी हो पाती हैं तब तक भूख भी मर चुकी होती है, क्योंकि इतने दिन खाया नहीं। तब वे अचानक खड़े रह जाते हैं कि क्या करें?
सिकंदर हिंदुस्तान आता था तो वह डायोजनीज से मिला था। डायोजनीज ने उससे पूछा था कि तुम कहां जा रहे हो? यह क्या कर रहे हो? सिकंदर ने कहा कि पहले मुझे एशिया माइनर जीतना है। डायोजनीज ने कहा कि समझा। फिर क्या इरादा है? उसने कहा, हिंदुस्तान जीतना है। फिर? उसने कहा, सारी दुनिया जीतना है। डायोजनीज ने पूछा, फिर?...वह ऐसा रेत पर लेटा था, सुबह धूप निकली थी, नग्न रेत पर पड़ा था...उसने कहा, फिर? सिकंदर ने कहा कि फिर तो विश्राम का इरादा है। डायोजनीज खूब खिलखिलाकर हंसने लगा, और पीछे मांद में उसका कुत्ता, जो इसका साथी था उसे आवाज दी कि सुन, इधर आ। यह पागल सिकंदर को देख। हम अभी आराम कर रहे हैं, यह इतना उपद्रव करके आराम करेंगे। और सिकंदर से डायोजनीज ने कहा, अगर आखिर में आराम ही करना है, आओ, लेट जाओ, नदी के तट पर। जगह यहां काफी है। हम दोनों समा जाएंगे। और मैं आराम कर ही रहा हूं, सिकंदर। इतना करके आराम ही करने का इरादा है न? तो आराम तो अभी किया जा सकता है। सिकंदर ने कहा, बात तो तुम्हारी जंचती है, लेकिन अभी नहीं कर सकता हूं, पहले सब जीत लूं। तो डायोजनीज ने कहा, जीत से और विश्राम का क्या संबंध है? क्योंकि हम बिना जीते कर रहे हैं। सिकंदर ने कहा, बात तो जंचती है, लेकिन अब तो मैं निकल चुका यात्रा पर। आधा नहीं लौट सकता हूं। तो डायोजनीज ने कहा, आधे ही लौटोगे, किसकी यात्रा कब पूरी होती है। और यह हुआ, हिंदुस्तान से लौटकर सिकंदर वापस यूनान नहीं पहुंच पाया, बीच में ही मर गया।
सब सिकंदर मर जाते हैं। आधी यात्रा पर मर जाते हैं। रोटियां इकट्ठी हो जाती हैं, खाने का वक्त नहीं आता। साज-सामान इकट्ठा हो जाता है, बजाने का वक्त नहीं आता।  साज ठोंक-पीटकर ठीक कर लिया जाता है। लेकिन जब तक ठोंक-पीट पूरी होती है तब तक हाथ शून्य हो चुके होते हैं, फिर कुछ करने को नहीं बचता।
नहीं, जीवन को तो लेना पड़ेगा उत्सव से ही, वही जीवन की धुनें हैं। आपसे कोई पूछे--गहरे में आप ही अपने से पूछें--कि आप जो कर रहे हैं, वह जीने के लिए कर रहे हैं कि करने के लिए जी रहे हैं? तो आपको उत्तर साफ हो सकेगा। और तब आपको कृष्ण बहुत निकट मालूम पड़ेंगे। आप जीने के लिए कर रहे हैं सब कुछ, करने के लिए नहीं जी रहे हैं। और अगर जीने के लिए कर रहे हैं सब कुछ, तो फिर ठीक है, इतना ही करना काफी है जितने से जिया जा सके। ज्यादा क्यों करना? उसका कोई अर्थ नहीं है।
स्वभावतः, अगर यह वृत्ति फैल जाए तो बहुत से उपद्रव बंद हो जाएंगे। क्योंकि बहुत से उपद्रव हमारे अत्यधिक करने से पैदा हो रहे हैं। दुनिया ज्यादा शांत, ज्यादा आनंदमय, ज्यादा प्रफुल्लित, ज्यादा प्रमुदित होगी। निश्चित ही कुछ बातें चली जाएंगी--चिंताएं चली जाएंगी, तनाव चले जाएंगे, पागलखाने चले जाएंगे, हजारों मानसिक बीमारियां चली जाएंगी, यह जरूर नुकसान होगा। इतनी चीजें चली जाएंगी।
इसलिए मैं तो कहूंगा कि मैं कृष्ण के उत्सववादी चित्त के साथ राजी हूं।

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