Master says:
"प्रेम में ईर्ष्या हो तो प्रेम ही नहीं है; फिर प्रेम के नाम से कुछ और ही रोग चल रहा है। ईर्ष्या सूचक है प्रेम के अभाव की। यह तो ऐसा ही हुआ, जैसा दीया जले और अँधेरा हो। दीया जले तो अँधेरा होना नहीं चाहिए। अँधेरे का न हो जाना ही दीए के जलने के जलने का प्रमाण है। ईर्ष्या का मिट जाना ही प्रेम का प्रमाण है। ईर्ष्या अँधेरे जैसी है; प्रेम प्रकाश जैसा है। इसको कसौटी समझना।
जब तक ईर्ष्या रहे तब तक समझना कि प्रेम प्रेम नहीं। तब तक प्रेम के नाम से कोई और ही खेल चल रहा है; अहंकार कोई नई यात्रा कर रहा है- प्रेम के नाम से दूसरे पर मालकियत करने का मजा, प्रेम के नाम से दूसरे का शोषण, दूसरे व्यक्ति का साधन की भांति उपयोग। और दूसरे व्यक्ति का साधन की भाँति उपयोग जगत में सबसे बड़ी अनीति है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति साध्य है, साधन नहीं।
तो भूल कर भी किसी का उपयोग मत करना। किसी के काम आ सको तो ठीक, लेकिन किसी को अपने काम में मत ले आना। इससे बड़ा कोई अपमान नहीं है कि तुम किसी को अपने काम में ले आओ। इसका अर्थ हुआ कि परमात्मा को सेवक बना लिया। सेवक बन सको तो बन जाना, लेकिन सेवक बनाना मत।
असली प्रेम उसी दिन उदय होता है जिस दिन तुम इस सत्य को समझ पाते हो कि सब तरफ परमात्मा विराजमान है। तब सेवा के अतिरिक्त कुछ बचता नहीं। प्रेम तो सेवा है, ईर्ष्या नहीं। प्रेम तो समर्पण है, मालकियत नहीं।"
प्रेम मुक्तिदायी है! लेकिन जिसे हम प्रेम कहते है वह तो बंधन बन जाता है! वह तो जंजीरे ढलता है! जिसे हम प्रेम कहते है वह तो कारागृह है; उसमें दो व्यक्ति निरंतर संघर्ष में लगे रहते है कि कौन जीते, कौन हारे! जिसे हम प्रेम कहते है वे तो एक सतत कलह है! संवाद भी नहीं है, बस विवाद है!
प्रेम के नाम से जगत में कुछ और ही चल रहा है! कुछ झूठ, कुछ कृत्रिम! और कारण उसका है कि हम बचपन से ही प्रेम को झूठ करने का आयोजन करते है! छोटे -छोटे बच्चो से हम कहते है! प्रेम करो, मैं तुम्हारी मां हूं! प्रेम करो, मैं तुम्हारा पिता हूं! प्रेम करो, यह तुम्हारा भाई है! प्रेम करो, यह तुम्हारी बहन है! जैसे प्रेम भी किया जा सकता है! जैसे प्रेम भी किसी के हाथ में है!
तो बच्चा क्या करें? अगर हम उससे आग्रह करते है---और हम बलशाली है; बच्चे का जीवन हमारे हाथ में है; बच्चे को बचना है तो हमारे साथ चलना होगा-तो बच्चा क्या करे? कहां से प्रेम लाए? घर में जो नया-नया बच्चा पैदा हुआ है उससे घृणा पैदा होती है बड़े बच्चे को, प्रेम नहीं! वह शत्रु की तरह मालूम पड़ता है, मित्र की तरह नही! क्योंकि वह मां का ध्यान आकर्षित करेगा! अब तक जो बच्चा मां के ध्यान का केंद्र था वह परिधि पर हट जाएगा, नया बच्चा केंद्र पर होगा! वह नये बच्चे की ज्यादा देखभाल करेगी, सेवा-शत्रुता करेगी, चिंता करेगी!
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