मैंने संन्यास भी दिया,शिष्य भी मैंने बनाए, मगर कब तक गधों को और गणेशों को,और कब तक आम को और इमली को--कब तक खींचना?अब संन्यास प्रौढ़ हुआ है। अब औपचारिकताओं की कोई खास बात नहीं है। अब तुम्हारा प्रेम है तो शिष्य हो जाओ। कहने की भी बात नहीं, किसी को बताने की भी जरूरत नहीं। अब तुम्हारा भाव है तो संन्यस्त हो जाओ। अब सारा दायित्व तुम्हारा है। यही तो प्रौढ़ता का लक्षण होता है। अब तुम्हारा हाथ पकड़कर कब तक मैं चलूंगा?
इसके पहले कि मेरे हाथ छूट जाए, मैंने खुद तुम्हारा हाथ छोड़ दिया है। ताकि तुम खुद अपने पैर, अपने हाथ,अपने दायित्व पर खड़े हो सको और चल सको।
नहीं तुम्हें सतशिष्य होने से रुकने की कोई जरूरत नहीं है। न संन्यासी होने से कोई तुम्हें रोक सकता है। लेकिन अब यह सिर्फ तुम्हारा निर्णय है, और तुम्हारे भीतर की प्यास और तुम्हारे भीतर की पुकार है। मैं तुम्हारे साथ हूं। मेरा आशीष तुम्हारे हाथ है।
लेकिन अब तुम्हें समझाऊंगा नहीं, कि तुम संन्यासी हो जाओ; और समझाऊंगा नहीं, कि ध्यान करो। अब समझाऊंगा नहीं।
अब तो इतना ही समझाऊंगा कि ध्यान क्या है। अगर उसे ही तुम्हारे भीतर प्यास पैदा हो जाए, तो कर लेना ध्यान। अब आज्ञा न दूंगा कि प्रेम करो। अब तो सिर्फ प्रेम की व्याख्या कर लूंगा, और सब तुम पर छोड़ दूंगा। अगर प्रेम की अनूठी,रहस्यमय बात को सुनकर भी तुम्हारे हृदय की धड़कनों में कोई गीत नहीं उठता, तो आदेश देने से भी कुछ न होगा। और अगर गीत उठता है, तो यह कोई लेने-देने की बात नहीं है।
तुम शिष्य हो सकते हो, तुम ध्यान कर सकते हो, तुम संन्यस्त हो सकते हो। तुम समाधिस्थ हो सकते हो। तुम इस जीवन की उस परम निधि को पा सकते हो, जिसे हमने मोक्ष कहा है। लेकिन यह सब अब तुम्हें करना है। अब कोई और तुम्हें धक्का दे पीछे से, वे दिन बीत गए। अब तुम बिलकुल स्वतंत्र हो। तुम्हारी मर्जी और तुम्हारी मौज और तुम्हारी मस्ती ही निर्णायक है।
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