[{ॐ}]~"ओशो पत्र-पुष्पम्"~[{ॐ}]
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मेरे प्रिय,
प्रेम । अनंत के चिन्तन में कुछ भी
सार नहीं है ।
क्योंकि, अनंत का चिन्तन नहीं हो
सकता है ।
चिन्तन सदा ही सीमा है और सीमा
में है ।
चिन्तन को विदा करो, तो ही असीम
आमंत्रित होता है ।
सोचो नहीं---जागो ।
सोचना भी स्वप्न है और निद्रा है ।
शब्दों की अपनी मूर्छा है और विचारों
का अपना सम्मोहन है ।
शब्द से नि:शब्द में सरको ।
पार करो विचारों को और निर्विचार
में उतरो ।
मन है परिभाषा और सत्य है
अपरिभाष्य ।
इसलिए, मन का और सत्य का कहीं
भी मिलन नहीं है ।
जहाँ तक मन है, वहाँ तक सत्य
नहीं है ।
और, जहाँ मन नहीं है, वहीं सत्य है ।
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रजनीश के प्रणाम
१२-३-१९७१
[प्रति: श्रीकान्त नारायण लग्गड़, संगमनेर]
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