Thursday, September 15, 2016

जहाँ मन नहीं है, वहीं सत्य है ।

[{ॐ}]~"ओशो पत्र-पुष्पम्"~[{ॐ}]
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मेरे प्रिय,

     प्रेम ।  अनंत के चिन्तन में कुछ भी
सार नहीं है ।

     क्योंकि, अनंत का चिन्तन नहीं हो
सकता है ।

     चिन्तन सदा ही सीमा है और सीमा
में है ।

     चिन्तन को विदा करो, तो ही असीम
आमंत्रित होता है ।

     सोचो नहीं---जागो ।

     सोचना भी स्वप्न है और निद्रा है ।

     शब्दों की अपनी मूर्छा है और विचारों
का अपना सम्मोहन है ।

     शब्द से नि:शब्द में सरको ।

     पार करो विचारों को और निर्विचार
में उतरो ।

     मन  है  परिभाषा  और  सत्य  है
अपरिभाष्य ।

     इसलिए, मन का और सत्य का कहीं
भी मिलन नहीं है ।

     जहाँ  तक  मन  है,  वहाँ  तक  सत्य
नहीं  है ।

     और, जहाँ मन नहीं है, वहीं सत्य है ।

                         {______________}
                          रजनीश के प्रणाम
                              १२-३-१९७१

[प्रति: श्रीकान्त नारायण लग्गड़, संगमनेर]

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