जैसा मुझे दिखाई पड़ता है, अज्ञान के बोध के बिना कोई व्यक्ति सत्य के अनुभव में प्रवेश न कभी किया है और न कर सकता है। इसके पहले कि अज्ञान छोड़ा जा सके, ज्ञान को छोड़ देना आवश्यक है। इसके पहले कि भीतर से अज्ञान का अंधकार मिटे, यह जो ज्ञान का झूठा प्रकाश है, इसे बुझा देना जरूरी है। क्योंकि इस झूठे प्रकाश की वजह से, जो वास्तविक प्रकाश है, उसे पाने की न तो आकांक्षा पैदा होती है,न उसकी तरफ दृष्टि जाती है। एक छोटी सी घटना इस संबंध में कहूंगा और फिर आज की चर्चा शुरू करूंगा।
एक पूर्णिमा की रात्रि में, एक बहुत विलक्षण कवि एक नौका पर बजरे में यात्रा कर रहा था। छोटा सा झोपड़ा था बजरे का, नौका थी, पूर्णिमा की रात थी। वह भीतर बैठ कर,मोमबत्ती को जला कर, उसके प्रकाश में किसी ग्रंथ को पढ़ता रहा। फिर जब आधी रात हो गई और वह थक गया तो उसने मोमबत्ती को बुझाया, सोने की तैयारी की।
लेकिन मोमबत्ती को बुझाते ही उसे एक अदभुत अनुभव हुआ जिसकी उसे कल्पना भी न थी। जैसे ही मोमबत्ती बुझी कि बजरे के रंध्र-रंध्र से, खिड़की से, द्वार से चांद की रोशनी भीतर आ गई। उसने बजरे को आकर भर दिया। वह हैरान हो गया! वह मोमबत्ती का छोटा सा टिमटिमाता प्रकाश चांद के प्रकाश को बाहर रोके हुए था! उसके बुझते ही चांद भीतर प्रवेश कर गया! उसे खयाल भी भूल गया था--उस टिमटिमाती मोमबत्ती के प्रकाश में उसे खयाल भी भूल गया था--कि बाहर चांद भी है। तब वह उठ कर खिड़की पर गया और उसने कहा, मैं कैसा अभागा हूं! आधी रात मैंने व्यर्थ ही खो दी। चांद की अनुपम ज्योत्स्ना मिल सकती थी, वह चांद का शीतल प्रकाश मिल सकता था, तब मैं धुआं देती एक छोटी सी मोमबत्ती की टिमटिमाती पीली रोशनी में बैठा रहा। आधी रात का उसे दुख हुआ।
लेकिन बहुत कम लोग हैं जो पूरे जीवन में से आधा जीवन भी सच्चे प्रकाश को पाने के लिए जिनके जीवन में संभावना बन पाती हो। अधिक लोग तो जीवन गंवा देते हैं टिमटिमाती रोशनियों में। मोमबत्ती जलाए रखते हैं और इसलिए सत्य का प्रकाश उपलब्ध नहीं हो पाता।
यह हमारा जो ज्ञान है झूठा और उधार, यह मोमबत्ती की तरह धुआं देता हुआ प्रकाश है। इसे बुझा देना जरूरी है,तो ही सत्य के, प्रकाश के आगमन की संभावना प्रारंभ होती है।
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