मन मांगता रहता है संसार को , वासनाएँ दौडती रहती हैं वस्तुओं की तरफ , शरीर आतुर होता है शरीरों के लिए , आकांक्षाएं विक्षिप्त रहती हैं पूर्ति के लिए | हमारा जीवन आग की लपट है | वासनाएं जलती हैं उन लपटों में , आकांक्षाएं ,इच्छाएं जलती हैं | गीला ईंधन जलता है इच्छा का , और सब धुआं - धुआं हो जाता है |
इन लपटों में जलते हुए कभी - कभी मन थकता भी है , बेचैन भी होता है , निराश भी , हताश भी होता है | हताशा में , बेचैनी में कभी - कभी प्रभु की तरफ भी मुड़ता है |
दौड़ते - दौड़ते इच्छओं के साथ कभी - कभी प्रार्थना करने का मन भी हो आता है |
दौड़ते - दौड़ते वासनाओं के साथ कभी - कभी प्रभु की सन्निधि में आंख बंद कर ध्यान में डूब जाने की कामना भी जन्म लेती है |
बाजार की भीड़ - भाड़ से हट कर कभी मंदिर के एकांत , मस्जिद के एकांत कोने में डूब जाने का ख्याल भी उठता है |
लेकिन वासनाओं से थका हुआ आदमी मंदिर में बैठ कर पुनः वासनाओं की मांग शुरू कर देता है | बाजार से थका आदमी मंदिर में बैठ कर पुनः बाजार का विचार शुरू कर देता है | क्योंकि बाजार से वह थका है , जागा नहीं , केवल इच्छाओं से विश्राम के लिए मंदिर चला आया |
उस विश्राम में इच्छाएं ताजी हो जाती हैं | प्रार्थना में जुड़े हुए हाथ भी संसार की ही मांग करते हैं | यज्ञ की वेदी के आस - पास घूमता हुआ साधक या याचक भी पत्नी मांगता है , पुत्र मांगता है , गौएं मांगता है , धन मांगता है , यश , राज्य , साम्राज्य मांगता है |
असल में जिसके चित में संसार है उसकी प्रार्थना में संसार ही होगा | जिसके चित में वासनाओं का जाल है उसके प्रार्थना के स्वर भी उन्हीं वासनाओं के धुएं को पकड़ कर कुरूप हो जाते हैं |
यहीं यह बात समझ लेनी जरूरी है कि सांसारिक मांग तो सांसारिक होती है , मांग मात्र सांसारिक होती है | वासनाएं सांसारिक हैं ठीक है , लेकिन वासना मात्र सांसारिक है , यह भी स्मरण रख लें !
शांति की कोई मांग नहीं होती , अशांति से मुक्ति होती है और शांति परिणाम होती है | शांति को मांगा नहीं जा सकता ,
सिर्फ अशांति को छोड़ा जा सकता है और शांति मिलती है | और जो शांति को मांगता है वह कभी शांत नही होता है , क्योंकि उसकी शांति की मांग सिर्फ एक और अशांति का जन्म होता है |
हम परमात्मा को चाह नहीं सकते , क्योंकि चाह ही तो परमात्मा और हमारे बीच बाधा है |
चाह ही तनाव है , चाह ही असंतोष है| चाह का नाम ही संसार है |
वासना ही संसार है , सांसारिक वासना कहना ठीक नहीं |
भूलें भाषा में हैं , क्योंकि अज्ञानी भाषा निर्मित करता है | और ज्ञानी की अब तक कोई भाषा नहीं है |
ज्ञान मौन है ; मुखर नहीं , मूक है ! इसलिए अज्ञानी की भाषा ही ज्ञानी को उपयोग करनी पडती है | फिर भूलें होती हैं |
जैसे यह भूल निरंतर हो जाती है | हम कहते है , संसार की चीजों को मत चाहो |
कहना चाहिए , चाहो ही मत | क्योंकि चाह का नाम ही संसार है |
हम कहते हैं , मन को शांत करो | ठीक नहीं है यह कहना | क्योंकि शांत मन जैसी कोई चीज नहीं | अशांति का नाम ही मन है |
जब तक अशांति है तब तक मन है ; नहीं तो मन भी नहीं | जहां शांति हुई वहां मन तिरोहित हुआ |
शांत मन का अर्थ , मन मर गया , अब मन नहीं है | चाह के छूटने का अर्थ , संसार गया , अब नहीं है |
" जहां चाह नहीं ------ वहां परमात्मा है |
जहां चाह है ----------- वहां संसार है | "
इसलिए परमात्मा की चाह नहीं हो सकती
और अनचाहा संसार नहीं हो सकता | ये दो बातें नहीं हो सकतीं |
अज्ञान से ऊबे , थके , घबड़ाए हुए लोग विश्राम के लिए , विराम के लिए :-- धर्म , पूजा , प्रार्थना , ध्यान , उपासना में आते हैं |
लेकिन मांगे उनकी साथ चली आती हैं | चित उनका साथ चला आता है |
एक आदमी दुकान से उठा और मंदिर में गया , जुते बाहर छोड़ देता है , मन भीतर ले जाता है | भीतर मन परमात्मा को देखने के लिए नहीं उठता | वहां फिर वस्तुओं की कामना और वासना लौट आती है |
हाथ जुड़ते परमात्मा से कुछ मांगने के लिए ! और जब भी हाथ कुछ मांगने के लिए जुड़ते हैं तभी प्रार्थना का अंत हो जाता है |
मांग और प्रार्थना का कोई मेल नहीं |
फिर प्रार्थना क्या है ?
प्रार्थना सिर्फ धन्यवाद है | मांग नहीं , डिमांड नहीं , थैंक्स गिविंग , सिर्फ धन्यवाद |
जो मिला मिला है वह इतना काफी है कि उसके लिए मंदिर धन्यवाद देने जाना चाहिए |
धार्मिक आदमी वही है जो मंदिर धन्यवाद देने जाता है | अधार्मिक वह नहीं जो मंदिर नहीं जाता है | आधर्मिक असली वह है जो मंदिर मांगने जाता है |
छोड़ें वासनाओं को , छोड़ें भविष्य को , छोड़े सपनों को , छोड़ें अंततः अपने को |
ऐसे जीएं जैसे प्रभु ही आपके भीतर से जीता है |
ऐसे जीएं जैसे चारों ओर प्रभु ही जीता है |
ऐसे करें कृत्य जैसे प्रभु ही करवाता है ,
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