Sunday, August 21, 2016

तुम्हारी निर्भर होने की इच्छा के कारण ही तुम गुलाम हो गए हो।

तुम चाहो भी निर्भर होना तो मैं तुम्हें होने नहीं दूंगा। तुम्हारी निर्भर होने की इच्छा के कारण ही तुमने संगठित धर्म पैदा किए हैं। तुम्हारी निर्भर होने की इच्छा के कारण ही तुम सब तरह के चर्चों, संप्रदायों और पंथों के गुलाम हो गए हो। मनोविश्लेष्कों के अनुसार यह फादर-फिक्सेशन है, पिता से बंध जाना है क्योंकि बच्चा अपने माता-पिता पर बहुत ज्यादा निर्भर होता है।
यदि वह लड़का है तो वह मां से बंध जाता है, और वह बहुत बड़ी समस्या है। यदि वह लड़की है तो वह पिता से बंध जाती है। हर लड़की उसके पूरे जीवन अपने पति में पिता जैसा व्यक्ति ढूंढती रहेगी-और यह असंभव है। कुछ भी दोहराया नहीं जाता। तुम अपने पिता को पति की तरह नहीं ढूंढ सकते। इसीलिए हर स्त्री हताश है, कोई पति सही नहीं लगता। हर पुरुष निराश है-क्योंकि कोई भी स्त्री तुम्हारी मां नहीं होगी।
अब, यह बड़ी अजीब समस्या है। पति अपनी पत्नी में मां को ढूंढने का प्रयास कर रहा है, पत्नी अपने पति में पिता को ढूंढने का प्रयास कर रही है। वहां सतत संघर्ष है। शादी नरक की आग है। चूंकि वे पति की तरह, पत्नी की तरह दुखी हैं, उन्हें कहीं सांत्वना ढूंढनी होगी-किसी परमात्मा में, किसी पंडित में।
तुम परमात्मा को पिता क्यों कहते हो? और फिर देवियों को मां कहते हैं...ये बचपन के बंधन हैं। तुम उन पर निर्भर थे। कब तक तुम अपने माता-पिता के साथ चिपके रहोगे? पिता और मां चाहते हैं कि तुम आत्मनिर्भर होओ लेकिन उन्हें होश नहीं है कि उन्होंने एक ही बात सिखाई है: निर्भर होओ।
अब तुम दुनिया में जाते हो। तुम्हारा पूरा मनोविज्ञान मांगता है कि कोई तुम्हें बचाने वाला हो। तुम भेड़ बनने को तैयार हो, जरूरत है तो किसी चरवाहे की, कोई जो तुम्हें सांत्वना दे, "डरो मत। सिर्फ मुझ पर भरोसा करो और मैं तुम्हें बचा लूंगा। मैं तुम्हारा ध्यान रखूंगा।'
किसी परमात्मा की जरूरत होती है जो सर्व शक्तिमान हो; उसे होना ही होगा, वर्ना वह कैसे अरबों लोगों का ध्यान रखेगा? उसे सर्व शक्तिमान होना ही होगा, संपूर्ण शक्तिशाली; सर्वज्ञ, सब कुछ जानने वाला; सर्वत्र उपस्थित, सब जगह उपलब्ध। यह तुम्हारी इच्छा है। और इस निर्भरता के कारण पुजारी निश्चित ही मानवता का शोषण करता है। कार्ल मार्क्स सही है, जब वह कहता है कि धर्म लोगों के लिए अफीम का नशा है। तथाकथित संगठित धर्म निश्चित ही लोगों के लिए अफीम का नशा है।
मैं नहीं कहूंगा कि धार्मिकता लोगों के लिए अफीम का नशा है। यह पूरी दूसरी ही बात है। परमात्मा नहीं, पिता नहीं, पुजारी नहीं, रबाई नहीं-तुम अपने स्वयं के पैरों पर खड़े हो। तुम्हारी श्रद्धा अस्तित्व में है, किसी बिचोलिए पर नहीं।
मेरा सारा प्रयास यह है कि तुम्हें मेरे ऊपर निर्भर नहीं होना चाहिए, भले ही तुम बुद्ध हो या न हो। यदि तुम बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हो तो इसकी अधिक जरूरत है-कोई निर्भरता नहीं-क्योंकि निर्भर व्यक्ति आध्यात्मिक गुलाम होता है, और गुलाम को बुद्धत्व को उपलब्ध होने का कोई अधिकार नहीं है। जब तुम बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हो तब भी तुम्हें अपनी आत्मनिर्भरता की घोषणा करनी है, तुम्हारी स्वतंत्रता की घोषणा करनी है क्योंकि यह आत्मनिर्भरता तुम्हारे बुद्धत्व के मार्ग को निर्मित करेगा।
निश्चित ही बुद्धत्व के बाद किसी तरह की निर्भरता की जरूरत नहीं होती। क्योंकि वहां किसी तरह की निर्भरता की जरूरत नहीं होती, तुम अनुगृहीत हो सकते हो, तुम करुणावान हो सकते हो, और तुम गुरु की करुणा को समझ सकते हो। तुम्हारे अंधेरे में, अचेतन में गुरु की करुणा और प्रेम को समझना कठिन है।
लेेकिन इस क्षण में इससे तुम्हें कुछ लेना-देना नहीं होना चाहिए। इस क्षण में, तुम्हारा सारी चिंता ध्यान की होनी चाहिए। ध्यान में गहरे जाओ और वहां तुम करुणा पाओगे और तुम करुणा की समझ पाओगे। तुम स्वतंत्रता पाओगे, और तुम पाओगे कि स्वतंत्रता का मतलब अकृतज्ञता नहीं है, धन्यवाद हीनता नहीं है।
इसको प्रकट करने की जरूरत नहीं है; तुम्हारा हृदय इसके साथ धड़केगा, तुम्हारा हृदय सतत घंटियां बजाएगा आनंद की, आशीष की और गुरु के प्रति परम अनुग"ह की। लेकिन यह निर्भरता नहीं है।
कोई भी गुरु जो प्रामाणिक है वह तुम्हारे से समर्पण की, तुम्हारी प्रतिबद्धता की मांग नहीं करेगा। ये धोखेबाज हैं जो तुम्हारे समर्पण की मांग करते हैं, जो तुम्हारी प्रतिबद्धता की बात करते हैं। यह कोई संप्रदाय नहीं है, यह पूरी तरह से वैयक्तिक लोगों का समूह है। यह कोई समाज नहीं है, न ही क्लब, न चर्च। यह संगठन नहीं है।
मुझे बांटने में आनंद आता है, और तुम प्यासे हो, और मेरे पास तुम्हारे साथ बांटने के लिए पर्याप्त पानी है। क्योंकि मैं रहस्य जानता हूं: जितना मैं बांटूगा उतना ही अधिक मेरे पास होगा, इसलिए मैं खोने वाला नहीं हूं........

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