महाकवि सुमित्रानंदन पंत ने मुझसे एक बार पूछा कि भारत के धर्माकाश में वे कौन बारह लोग हैं-मेरी दृष्टि में-जो सबसे चमकते हुए सितारे हैं? मैंने उन्हें यह सूची दी: कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर, नागार्जुन, शंकर, गोरख, कबीर, नानक, मीरा, रामकृष्ण, कृष्णमूर्ति। सुमित्रानंदन पंत ने आंखें बंद कर लीं, सोच में पड़ गये...।
उन्होंने फिर मुझसे पूछा: तो फिर ऐसा करें, सात नाम मुझे दें। अब बात और कठिन हो गयी थी। मैंने उन्हें सात नाम दिये: कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर, शंकर, गोरख, कबीर। उन्होंने कहा: आपने जो पांच छोड़े, अब किस आधार पर छोड़े हैं? मैंने कहा: नागार्जुन बुद्ध में समाहित हैं। जो बुद्ध में बीज-रूप था, उसी को नागार्जुन ने प्रगट किया है। नागार्जुन छोड़े जा सकते हैं। और जब बचाने की बात हो तो वृक्ष छोड़े जा सकते हैं, बीज नहीं छोड़े जा सकते। क्योंकि बीजों से फिर वृक्ष हो जायेंगे, नये वृक्ष हो जायेंगे। जहां बुद्ध पैदा होंगे वहां सैकड़ों नागार्जुन पैदा हो जायेंगे, लेकिन कोई नागार्जुन बुद्ध को पैदा नहीं कर सकता। बुद्ध तो गंगोत्री हैं, नागार्जुन तो फिर गंगा के रास्ते पर आये हुए एक तीर्थस्थल हैं-प्यारे! मगर अगर छोड़ना हो तो तीर्थस्थल छोड़े जा सकते हैं, गंगोत्री नहीं छोड़ी जा सकती।
ऐसे ही कृष्णमूर्ति भी बुद्ध में समा जाते हैं। कृष्णमूर्ति बुद्ध का नवीनतम संस्करण हैं-नूतनतम; आज की भाषा में। पर भाषा का ही भेद है। बुद्ध का जो परम सूत्र था-अप्प दीपो भव-कृष्णमूर्ति बस उसकी ही व्याख्या है। एक सूत्र की व्याख्या-गहन, गंभीर, अति विस्तीर्ण, अति महत्वपूर्ण! पर अपने दीपक स्वयं बनो, अप्प दीपो भव-इसकी ही व्याख्या है। यह बुद्ध का अंतिम वचन था इस पृथ्वी पर। शरीर छोड़ने के पहले यह उन्होंने सार-सूत्र कहा था। जैसे सारे जीवन की संपदा को, सारे जीवन के अनुभव को इस एक छोटे-से सूत्र में समाहित कर दिया था। रामकृष्ण, कृष्ण में सरलता से लीन हो जाते हैं। मीरा, नानक, कबीर, में लीन हो जाते हैं; जैसे कबीर की ही शाखायें हैं। जैसे कबीर में जो इकट्ठा था, वह आधा नानक में प्रगट हुआ है और आधा मीरा में। नानक में कबीर का पुरुष-रूप प्रगट हुआ है। इसलिए सिक्ख धर्म अगर क्षत्रिय का धर्म हो गया, योद्धा का, तो आश्चर्य नहीं है। मीरा में कबीर का स्त्रैण रूप प्रगट हुआ है-इसलिए सारा माधुर्य, सारी सुगंध, सारा सुवास, सारा संगीत, मीरा के पैरों की घुंघरू बनकर बजा है। मीरा के इकतारे पर कबीर की नारी गाई है; नानक में कबीर का पुरुष बोला है। दोनों कबीर में समाहित हो जाते हैं। इस तरह, मैंने कहा: मैंने यह सात की सूची बनाई। अब उनकी उत्सुकता बहुत बढ़ गयी थी। उन्होंने कहा: और अगर पांच की सूची बनानी पड़े? तो मैंने कहा: काम मेरे लिए कठिन होता जायेगा।
मैंने यह सूची उन्हें दी: कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर, गोरख।... क्योंकि कबीर को गोरख में लीन किया जा सकता है। गोरख मूल हैं। गोरख को नहीं छोड़ा जा सकता। और शंकर तो कृष्ण में सरलता से लीन हो जाते हैं। कृष्ण के ही एक अंग की व्याख्या है, कृष्ण के ही एक अंग का दार्शनिक विवेचन है।
तब तो वे बोले: बस, एक बार और..। अगर चार ही रखने हों?
तो मैंने उन्हें सूची दी: कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध गोरख।...
क्योंकि महावीर बुद्ध से बहुत भिन्न नहीं हैं, थोड़े ही भिन्न हैं। जरा-सा ही भेद है; वह भी अभिव्यक्ति का भेद है। बुद्ध की महिमा में महावीर की महिमा लीन हो सकती है।
वे कहने लगे: बस एक बार और..। आप तीन व्यक्ति चुनें।
मैंने कहा: अब असंभव है। अब इन चार में से मैं किसी को भी छोड़ न सकूंगा। फिर मैंने उन्हें कहा: जैसे चार दिशाएं हैं, ऐसे ये चार व्यक्तित्व हैं। जैसे काल और क्षेत्र के चार आयाम हैं, ऐसे ये चार आयाम हैं। जैसे परमात्मा की हमने चार भुजाएं सोची हैं, ऐसी ये चार भुजाएं हैं। ऐसे तो एक ही हैं, लेकिन उस एक की चार भुजाएं हैं। अब इनमें से कुछ छोड़ना तो हाथ काटने जैसा होगा। यह मैं न कर सकूंगा। अभी तक मैं आपकी बात मानकर चलता रहा, संख्या कम करता चला गया। क्योंकि अभी तक जो अलग करना पड़ा, वह वस्त्र था; अब अंग तोड़ने पड़ेंगे। अंग-भंग मैं न कर सकूंगा। ऐसी हिंसा आप न करवायें।
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