Friday, June 19, 2015

योग

Master says...
योग न तो आस्तिक है और न नास्तिक। योग एक सीधा विज्ञान है। पतंजलि सचमुच अपूर्व हैं, एक चमत्कार है। वे ईश्वर के विषय में कभी बोलते ही नहीं। और यदि उन्होंने एक बार ईश्वर का उल्लेख किया भी है, तब भी वे इतना ही कहते हैं कि ईश्वर परम सत्य तक पहुंचने की विधियों में से एक विधि ही है। और ईश्वर है नहीं। ईश्वर में विश्वास करना पतंजलि के लिए केवल एक उपाय है। क्योंकि ईश्वर में विश्वास करने से प्रार्थना संभव होती है, ईश्वर में विश्वास करने से समर्पण संभव होता है। महत्व समर्पण और प्रार्थना का है, ईश्वर का नहीं।
पतंजलि सचमुच अद्भुत हैं। उन्होंने कहा कि ईश्वर, ईश्वर में किया गया विश्वास, ईश्वर की धारणा— अनेक विधियों में से एक विधि है सत्य तक पहुंचने की। ईश्वर—प्रणिधान—ईश्वर में विश्वास करना तो केवल एक मार्ग है। लेकिन यह अपरिहार्य नहीं है। तुम कुछ और चुन सकते हो। बुद्ध परम यथार्थ तक पहुंच जाते है ईश्वर में विश्वास किये बगैर। वे भिन्न मार्ग चुनते हैं, जहां ईश्वर की आवश्यकता नहीं है।
यह ऐसे है जैसे तुम मेरे घर आये हो और एक निश्चित गली से गुजरे हो। लेकिन वह गली साध्य नहीं थी, वह साधन मात्र थी। तुम उसी घर में किसी दूसरे रास्ते से भी पहुंच सकते थे और कई लोग दूसरे रास्तों से भी पहुंचे हैं। तुम्हारे रास्ते पर हो सकता है हरे वृक्ष हों, विशाल वृक्ष हों और दूसरे रास्तों पर न हों। अत: ईश्वर केवल एक मार्ग है, फर्क को जरा ध्यान में रखना। ईश्वर लक्ष्य नहीं है, ईश्वर बहुत से मार्गों में से मात्र एक मार्ग है।
पतंजलि कभी इनकार नहीं करते, वे कभी अनुमान नहीं लगाते। वे पूर्णतया वैज्ञानिक हैं। ईसाई लोगों के लिए कठिन है यह समझना कि बुद्ध कैसे परम सत्य को उपलब्ध हो सके! क्योंकि उन्होंने कभी ईश्वर में विश्वास नहीं किया। और हिंदुओं के लिए यह विश्वास करना कठिन है कि महावीर मोक्ष उपलब्ध कर सके क्योंकि महावीर ने ईश्वर में कभी विश्वास नहीं किया।
पूर्वी धर्मों के प्रति सचेत होने से पहले, पश्चिमी विचारकों ने धर्म को हमेशा ईश्वर—केंद्रित स्‍वप्‍न में परिभाषित किया। जब वे पूर्वी विचारधारा के संपर्क में आये तो उन्हें शात हुआ कि सत्य तक पहुंचने के लिए एक परंपरागत मार्ग भी रहा है, जो कि ईश्वरविहीन मार्ग है। वे तो घबड़ा गये। उनके लिए यह असंभव था।
एच. जी. वेल्स ने बुद्ध के विषय में लिखा है कि बुद्ध सबसे अधिक ईश्वरविहीन व्यक्ति हैं और फिर भी वे सबसे अधिक ईश्वरीय हैं। उन्होंने कभी विश्वास नहीं किया और वे कभी किसी से कहेंगे भी नहीं किसी ईश्वर में विश्वास करने के लिए, फिर भी वे स्वयं सबसे उत्कृष्ट घटना है दिव्य सत्ता के घटित होने की। और महावीर भी उस मार्ग की यात्रा करते है जहां ईश्वर की आवश्यकता नहीं है।
पतंजलि पूर्णतया वैज्ञानिक हैं। पतंजलि कहते हैं, हम साधनों से नहीं बंधे हुए हैं, साधन हजारों हैं। सत्य ही लक्ष्य है। उसे कइयों ने ईश्वर के द्वारा उपलब्ध किया, तो वही ठीक। तो ईश्वर में विश्वास करो और लक्ष्य प्राप्त करो, क्योंकि जब लक्ष्य उपलब्ध हो जाता है, तुम अपने विश्वास को फेंक दोगे। इसलिए विश्वास तो बस उपकरण है। यदि तुम विश्वास नहीं करते, वह भी ठीक है। मत करो विश्वास। अविश्वास के मार्ग की यात्रा करो और लक्ष्य तक पहुंचो।
पतंजलि न तो आस्तिक हैं और न ही नास्तिक। वे किसी धर्म का निर्माण नहीं कर रहे हैं। वे तो बस, तुम्हें सारे मार्ग दिखा रहे हैं जो कि संभव हैं। और दिखा रहे हैं सारे नियम, जो तुम्हारे रूपांतरण के लिए कार्य करते है। ईश्वर उन्हीं मार्गों में से एक है लेकिन वह जरूरी नहीं है। यदि तुम ईश्वररहित हो तो अधार्मिक होना जरूरी नहीं है। पतंजलि कहते हैं कि तुम भी पहुंच सकते हो। इसलिए बने रहो ईश्वररहित। ईश्वर की चिंता ही मत करो। ये नियम हैं और ये प्रयोग हैं और यह ध्यान है। गुजरो इसमें से।
वे किसी धारणा पर जोर नहीं देते। ऐसा करना बहुत कठिन है। इसीलिए पतंजलि के 'योगसूत्र' विरले हैं, बेजोड़ है। ऐसी पुस्तक पहले कभी हुई ही नहीं, और आगे कभी होगी ऐसी संभावना नहीं। क्योंकि जो कुछ भी योग के विषय में लिखा जा सकता है, उन्होंने लिख दिया है। उन्होंने कुछ भी बाकी नहीं छोड़ा है। इसमें कोई कुछ नहीं जोड़ सकता। पतंजलि के योगसूत्र जैसे अन्य किसी शास्त्र की रचना होने की भविष्य में कोई संभावना नहीं। उन्होंने कार्य संपूर्ण स्‍वप्‍न से समाप्त कर दिया है। और वे इतनी समग्रता से ऐसा कर सके क्योंकि वे एकांगी नहीं थे। यदि वे एकांगी होते तो वे इतनी समग्रता से इसे संपन्न न कर सकते थे।
बुद्ध एकांगी हैं, महावीर एकांगी हैं, जीसस एकांगी हैं, मोहम्मद फनी हैं। इनमें से हर एक का एक निश्चित मार्ग है। लेकिन उनकी यह आंशिकता तुम्हारी वजह से हो सकती है। यह तुम्हारे प्रति गहरी दिलचस्पी, गहरी करुणा के कारण हो सकती है। वे एक निश्चित मार्ग पर जोर देते हैं। जिंदगी भर वे उसी पर जोर देते रहे। वे कहते रहे, 'दूसरी हर बात गलत है और यही है ठीक मार्ग।’ वे ऐसा कहते केवल तुममें आस्था निर्मित करने के लिए। तुम इतने आस्थाहीन हो, तुम इतनी शंकाओं से भरे हो कि यदि वे कहते कि यह मार्ग ले जाता है लेकिन दूसरे मार्ग भी ले जाते हैं तो तुम किसी मार्ग पर चलोगे नहीं। इसलिए वे जोर देते है कि केवल 'यह' मार्ग ले जाता
यह सच नहीं है। यह तो तुम्हारे लिए निर्मित एक उपाय मात्र ही है। क्योंकि तुम उनमें कोई अनिश्चयात्मकता अनुभव करते, अगर वे कहते, 'यह भी ले जाता है, वह भी ले जाता है; यह भी सच है, वह भी सच है; ' तो तुम अनिश्चयी बन जाओगे। तुम पहले से अनिश्चयी हो, इसलिए तुम्हें कोई ऐसा चाहिए जो कि बिलकुल निश्चित हो। तुम्हें निश्चित देखने के लिए ही वे आंशिक होने का बहाना करते है।
लेकिन यदि तुम आंशिक हो, तो तुम सारे आयाम नहीं समेट सकते। पतंजलि आंशिक नहीं हैं। वे तुमसे कम संबंधित हैं और मार्ग के पूर्ण रूपांकन से अधिक संबंधित है। वे झूठ का प्रयोग नहीं करेंगे। वे युक्ति का प्रयोग नहीं करेंगे। वे तुम्हारे साथ समझौता नहीं करेंगे। कोई वैज्ञानिक समझौता नहीं कर सकता।
बुद्ध समझौता कर सकते हैं, वे करुणामय हैं। वे वैज्ञानिक तौर से तुम्हारा उपचार नहीं कर रहे। तुम्हारे लिए उनमें इतनी गहरी मानवीय भावना है कि वे झूठ तक कह सकते हैं तुम्हारी सहायता के लिए। और तुम सत्य को समझ नहीं सकते, इसलिए वे तुम्हारे साथ समझौता करते है। लेकिन पतंजलि तुम्हारे साथ समझौता नहीं करेंगे। जो कुछ भी है तथ्य वे उसी तथ्य के विषय में बोलेंगे। वे एक कदम भी नीचे नहीं उतरेंगे तुमसे मिलने के लिए। वे नितांत असमझौतावादी हैं। वितान को ऐसा होना ही होता है। विज्ञान समझौता नहीं कर सकता, वरना वह —स्वयं तथाकथित धर्म बन जायेगा।
पतंजलि न तो नास्तिक हैं और न ही आस्तिक। वे न तो हिंदू है न मुसलमान, न ईसाई हैं न जैन और न ही बौद्ध। वे एक बिलकुल वैज्ञानिक खोजी हैं। बस उद्घाटित कर रहे हैं—जैसी भी बात है; उद्घाटित कर रहे हैं बिना किसी पौराणिकता के। वे एक भी दृष्टांतमयी कथा का प्रयोग नहीं करेंगे। जीसस कथाओं द्वारा बोलते जायेंगे क्योंकि तुम बच्चे हो और तुम केवल कहानियां समझ सकते हो। वे कथाओं के सहारे बात कहेंगे। और बुद्ध इतनी सारी कहानियों का उपयोग करते हैं केवल एक हलकी—सी झलक पाने में तुम्हारी मदद करने के लिए।

Friday, June 12, 2015

मैंने कहा: अब असंभव है

महाकवि सुमित्रानंदन पंत ने मुझसे एक बार पूछा कि भारत के धर्माकाश में वे कौन बारह लोग हैं-मेरी दृष्टि में-जो सबसे चमकते हुए सितारे हैं? मैंने उन्हें यह सूची दी: कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर, नागार्जुन, शंकर, गोरख, कबीर, नानक, मीरा, रामकृष्ण, कृष्णमूर्ति। सुमित्रानंदन पंत ने आंखें बंद कर लीं, सोच में पड़ गये...।

उन्होंने फिर मुझसे पूछा: तो फिर ऐसा करें, सात नाम मुझे दें। अब बात और कठिन हो गयी थी। मैंने उन्हें सात नाम दिये: कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर, शंकर, गोरख, कबीर। उन्होंने कहा: आपने जो पांच छोड़े, अब किस आधार पर छोड़े हैं? मैंने कहा: नागार्जुन बुद्ध में समाहित हैं। जो बुद्ध में बीज-रूप था, उसी को नागार्जुन ने प्रगट किया है। नागार्जुन छोड़े जा सकते हैं। और जब बचाने की बात हो तो वृक्ष छोड़े जा सकते हैं, बीज नहीं छोड़े जा सकते। क्योंकि बीजों से फिर वृक्ष हो जायेंगे, नये वृक्ष हो जायेंगे। जहां बुद्ध पैदा होंगे वहां सैकड़ों नागार्जुन पैदा हो जायेंगे, लेकिन कोई नागार्जुन बुद्ध को पैदा नहीं कर सकता। बुद्ध तो गंगोत्री हैं, नागार्जुन तो फिर गंगा के रास्ते पर आये हुए एक तीर्थस्थल हैं-प्यारे! मगर अगर छोड़ना हो तो तीर्थस्थल छोड़े जा सकते हैं, गंगोत्री नहीं छोड़ी जा सकती।

ऐसे ही कृष्णमूर्ति भी बुद्ध में समा जाते हैं। कृष्णमूर्ति बुद्ध का नवीनतम संस्करण हैं-नूतनतम; आज की भाषा में। पर भाषा का ही भेद है। बुद्ध का जो परम सूत्र था-अप्प दीपो भव-कृष्णमूर्ति बस उसकी ही व्याख्या है। एक सूत्र की व्याख्या-गहन, गंभीर, अति विस्तीर्ण, अति महत्वपूर्ण! पर अपने दीपक स्वयं बनो, अप्प दीपो भव-इसकी ही व्याख्या है। यह बुद्ध का अंतिम वचन था इस पृथ्वी पर। शरीर छोड़ने के पहले यह उन्होंने सार-सूत्र कहा था। जैसे सारे जीवन की संपदा को, सारे जीवन के अनुभव को इस एक छोटे-से सूत्र में समाहित कर दिया था। रामकृष्ण, कृष्ण में सरलता से लीन हो जाते हैं। मीरा, नानक, कबीर, में लीन हो जाते हैं; जैसे कबीर की ही शाखायें हैं। जैसे कबीर में जो इकट्ठा था, वह आधा नानक में प्रगट हुआ है और आधा मीरा में। नानक में कबीर का पुरुष-रूप प्रगट हुआ है। इसलिए सिक्ख धर्म अगर क्षत्रिय का धर्म हो गया, योद्धा का, तो आश्चर्य नहीं है। मीरा में कबीर का स्त्रैण रूप प्रगट हुआ है-इसलिए सारा माधुर्य, सारी सुगंध, सारा सुवास, सारा संगीत, मीरा के पैरों की घुंघरू बनकर बजा है। मीरा के इकतारे पर कबीर की नारी गाई है; नानक में कबीर का पुरुष बोला है। दोनों कबीर में समाहित हो जाते हैं। इस तरह, मैंने कहा: मैंने यह सात की सूची बनाई। अब उनकी उत्सुकता बहुत बढ़ गयी थी। उन्होंने कहा: और अगर पांच की सूची बनानी पड़े? तो मैंने कहा: काम मेरे लिए कठिन होता जायेगा।

मैंने यह सूची उन्हें दी: कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर, गोरख।... क्योंकि कबीर को गोरख में लीन किया जा सकता है। गोरख मूल हैं। गोरख को नहीं छोड़ा जा सकता। और शंकर तो कृष्ण में सरलता से लीन हो जाते हैं। कृष्ण के ही एक अंग की व्याख्या है, कृष्ण के ही एक अंग का दार्शनिक विवेचन है।

तब तो वे बोले: बस, एक बार और..। अगर चार ही रखने हों?

तो मैंने उन्हें सूची दी: कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध गोरख।...

क्योंकि महावीर बुद्ध से बहुत भिन्न नहीं हैं, थोड़े ही भिन्न हैं। जरा-सा ही भेद है; वह भी अभिव्यक्ति का भेद है। बुद्ध की महिमा में महावीर की महिमा लीन हो सकती है।

वे कहने लगे: बस एक बार और..। आप तीन व्यक्ति चुनें।

मैंने कहा: अब असंभव है। अब इन चार में से मैं किसी को भी छोड़ न सकूंगा। फिर मैंने उन्हें कहा: जैसे चार दिशाएं हैं, ऐसे ये चार व्यक्तित्व हैं। जैसे काल और क्षेत्र के चार आयाम हैं, ऐसे ये चार आयाम हैं। जैसे परमात्मा की हमने चार भुजाएं सोची हैं, ऐसी ये चार भुजाएं हैं। ऐसे तो एक ही हैं, लेकिन उस एक की चार भुजाएं हैं। अब इनमें से कुछ छोड़ना तो हाथ काटने जैसा होगा। यह मैं न कर सकूंगा। अभी तक मैं आपकी बात मानकर चलता रहा, संख्या कम करता चला गया। क्योंकि अभी तक जो अलग करना पड़ा, वह वस्त्र था; अब अंग तोड़ने पड़ेंगे। अंग-भंग मैं न कर सकूंगा। ऐसी हिंसा आप न करवायें।