Wednesday, October 28, 2015

लड़ना ही हो तो संतों से लड़ना......

एक बहुत पुरानी चीन में कहावत है कि बुरे आदमी से कभी दुश्मनी मत बनाना। क्योंकि बुरे आदमी से तुम दुश्मनी बनाओगे, धीरे-धीरे तुम बुरे हो जाओगे। क्योंकि बुरे आदमी के साथ उसी की भाषा में बोलना पड़ेगा, बुरे आदमी के साथ उसी के ढंग से लड़ना पड़ेगा, बुरे आदमी के साथ वही व्यवहार करना पड़ेगा जो वह समझ सकता है। धीरे-धीरे तुम पाओगे कि तुम बुरे आदमी हो गए।

अगर लड़ाई भी लेनी हो तो किसी अच्छे आदमी से लेना। अगर लड़ना ही हो तो संतों से लड़ना। तो तुम संतों जैसे हो जाओगे। क्योंकि जिससे हमें लड़ना हो उसी के जैसे होना पड़ता है। और कोई उपाय नहीं है। चोर से लड़ोगे, चोर हो जाओगे। बेईमान से लड़ोगे, बेईमान हो जाओगे। क्योंकि बेईमानी का पूरा शास्त्र तुम्हें भी सीखना पड़ेगा। नहीं तो जीत न सकोगे।

शिक्षा में क्रांति

शिक्षक के माध्यम से मनुष्य के चित्त को परतंत्रताओं की अत्यंत सूक्ष्म जंजीरों में बांधा जाता रहा है। यह सूक्ष्म शोषण बहुत पुराना है। शोषण के अनेक कारण हैं-धर्म हैं, धार्मिक गुरु हैं, राजतंत्र हैं, समाज के न्यस्त स्वार्थ हैं, धनपति हैं, सत्ताधिकारी हैं।

सत्ताधिकारी ने कभी भी नहीं चाहा है कि मनुष्य में विचार हो, क्योंकि जहां विचार है, वहां विद्रोह का बीज है। विचार मूलतः विद्रोह है। क्योंकि विचार अंधा नहीं है, विचार के पास अपनी आंखें हैं। उसे हर कहीं नहीं ले जाया जा सकता। उसे हर कुछ करने और मानने को राजी नहीं किया जा सकता है। उसे अंधानुयायी नहीं बनाया जा सकता है। इसलिए सत्ताधिकारी विचार के पक्ष में नहीं हैं, वे विश्वास के पक्ष में हैं। क्योंकि विश्वास अंधा है। और मनुष्य अंधा हो तो ही उसका शोषण हो सकता है। और मनुष्य अंधा हो तो ही उसे स्वयं उसके ही अमंगल में संलग्न किया जा सकता है।

मनुष्य का अंधापन उसे सब भांति के शोषण की भूमि बना देता है। इसलिए विश्वास सिखाया जाता है, आस्था सिखाई जाती है, श्रद्धा सिखाई जाती है। धर्मों ने यही किया है। राजनीतिज्ञों ने यही किया है। विचार से सभी भांति के सत्ताधिकारियों को भय है। विचार जाग'त होगा तो न तो वर्ण हो सकते हैं, न वर्ग हो सकते हैं। धन का शोषण भी नहीं हो सकता है। और शोषण को पिछले जन्मों के पाप-पुण्यों के आधार पर भी नहीं समझाया और बचाया जा सकता है।

विचार के साथ आएगी क्रांति-सब तलों पर और सब संबंधों में-राजनीतिज्ञ भी उसमें नहीं बचेंगे और राष्ट्रों की सीमाएं भी नहीं बचेंगी। मनुष्य को मनुष्य से तोड़ने वाली कोई दीवाल नहीं बच सकती है। इससे विचार से भय है, पूंजीवादी राजनीतिज्ञों को भी, साम्यवादी राजनीतिज्ञों को भी। और इस भय से सुरक्षा के लिए शिक्षा के ढांचे की ईजाद हुई है। यह तथाकथित शिक्षा सैकड़ों वर्षों से चल रहे एक बड़े षडयंत्र का हिस्सा है। धर्म पुरोहित पहले इस पर हावी थे, अब राज्य हावी है।

विचार के अभाव में व्यक्ति निर्मित ही नहीं हो पाता है। क्योंकि व्यक्तित्व की मूल आधारशिला ही उसमें अनुपस्थित होती है। व्यक्तित्व की मूल आधारशिला क्या है? क्या विचार की स्वतंत्र क्षमता ही नहीं? लेकिन स्वतंत्र विचार की तो जन्म के पूर्व ही हत्या कर दी जाती है। गीता सिखाई जाती है, कुरान और बाइबिल सिखाए जाते हैं, कैपिटल और कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो सिखाए जाते हैं-उनके आधार पर, उनके ढांचे में विचार करना भी सिखाया जाता है! ऐसे विचार से ज्यादा मिथ्या और क्या हो सकता है? ऐसे अंधी पुनरुक्ति सिखाई जाती है और उसे ही विचार करना कहा जाता है!

देववाणी मैडिटेशन

    हर रात को सोने के पहले तुम एक छोटा सा प्रयोग कर सकते हो जो बहुत ही सहायक होगा। प्रकाश बुझा लो, सोने के लिए तैयार हो कर अपने बिस्तर पर बैठ जाओ--पंद्रह मिनट के लिए। आंखें बंद कर लो और फिर कोई निरर्थक एकसुरी आवाज निकालना शुरू करो। उदाहरण के लिए ल ल ल ल--और प्रतीक्षा करो कि मन तुम्हें नई ध्वनियां देता जाए। एक ही बात याद रखनी है कि वे आवाजें या शब्द उस किसी भाषा के न हों जो तुम जानते हो। यदि तुम अंग्रेजी, जर्मन और इटालियन भाषा जानते हो तो उच्चारित शब्द इन भाषाओं के न हों। कोई भी भाषा जो तुम नहीं जानते हो--जैसे मान लो तिब्बती, चीनी, जापानी--उनकी ध्वनियां तुम उच्चारित कर सकते हो। लेकिन यदि तुम जापानी भाषा जानते हो, तो उसका उपयोग तुम नहीं कर सकते; तब इटालियन भाषा अच्छी होगी। वह कोई भाषा बोलो जिससे तुम अपरिचित हो। पहले दिन कुछ क्षणों के लिए तुम अड़चन में पड़ोगे, क्योंकि वह भाषा तुम कैसे बोल सकते हो जो तुम जानते ही नहीं? एक बार प्रारंभ भर हो जाए, फिर वह बोली जा सकती है। कोई भी आवाज, अर्थहीन शब्द--ताकि सतही चेतन मन को शिथिल करके, अचेतन मन को बोलने दिया जा सके। जब मन का अचेतन हिस्सा बोलता है, तो वह तो कोई भाषा नहीं जानता।... यह एक बहुत ही प्राचीन विधि है। यह ओल्ड टेस्टामेंट में, पुरानी बाइबिल में उल्लिखित है। उन दिनों इस विधि को ‘ग्लोसोलालिया’ कहा जाता था और अमेरिका के कुछ चर्च अभी भी इसका उपयोग करते हैं। वे इसे ‘जीभ की बोली’ कहते हैं। और यह एक अद्भभुत विधि है--अचेतन का भेदन करने वाली गहनतम विधियों में से यह एक विधि है। तुम ‘ल, ल, ल,’ के उच्चार से शुरू कर सकते हो, फिर बाद में जो कुछ ध्वनि आए उसके साथ बहो। केवल पहले दिन तुम थोड़ी कठिनाई अनुभव करोगे। एक बार यह चल पड़े फिर तुम इसका राज़, इसका गुर जान गए। फिर पंद्रह मिनट तक तुममें उतर रही इस अज्ञात भाषा का उपयोग करो; और इसका उपयोग एक बोलचाल की भाषा की तरह ही करो; वास्तव में तुम इस भाषा में बातचीत ही कर रहे हो। इस विधि का पंद्रह मिनट का अयास तुम्हारे चेतन मन को गहरा विश्राम दे देगा और तब तुम बस लेट जाओ और निद्रा में डूब जाओ। तुम्हारी नींद गहरी हो जाएगी। कुछ ही सप्ताह में तुम अपनी नींद में एक गहराई का अनुभव करोगे और सुबह तुम बिलकुल ताजा अनुभव करोगे।

निर्देश: देववाणी का अर्थ है परमात्मा की वाणी। इसमें साधक को माध्यम बनाकर दिव्यता ही गति करती है और बोलती है; साधक एक रिक्त पात्र और ऊर्जा प्रवाह के लिए एक मार्ग बन जाता है। यह ध्यान जीभ का लातिहान है। यह विधि चेतन मन को इतनी अधिक गहराई से शिथिल करती है कि जब इसका प्रयोग रात सोने के पहले किया जाए, तो निश्चित ही इसके बाद गहन निद्रा आने वाली है। इस विधि में पंद्रह-पंद्रह मिनट के चार चरण हैं। सभी चरणों में आंखें बंद रखो।

पहला चरण: पंद्रह मिनट

शांत बैठ जाओ कोमल संगीत को सुनो।

दूसरा चरण: पंद्रह मिनट

निरर्थक आवाजें निकालना शुरू करो, उदाहरण के लिए ‘ल, ल, ल’ से प्रारंभ करो और इसे उस समय तक जारी रखो जब तक कि एक अज्ञात भाषा-प्रवाह जैसे लगने वाले शब्द न आने लगें। ये आवाजें मस्तिष्क के उस अपरिचित हिस्से से आनी चाहिए जिसका उपयोग बचपने में शब्द सीखने के पहले तुम करते थे। बातचीत की शैली में कोमल ध्वनि वाले शब्द-प्रवाह को आने दो। न रोओ, न हंसो, न चीखो, न चिल्लाओ।

तीसरा चरण: पंद्रह मिनट

खड़े हो जाओ और अनजानी भाषा में बोलना जारी रखो और अब उच्चारित शब्दों के साथ एक लयबद्धता में शरीर को धीरे-धीरे गति करने दो, मुद्राएं बनाने दो। यदि तुम्हारा शरीर शिथिल है तो सूक्ष्म ऊर्जाएं तुम्हारे भीतर एक लातिहान नामक मुद्राएं और गतियां पैदा करेंगी, जो तुम्हारे कुछ भी किये बिना ही जारी रहेंगी।

चौथा चरण: पंद्रह मिनट

लेट जाओ, शांत और निष्क्रिय बने रहो।

झेन कहानि

एक झेन फकीर के घर रात चोर घुसे। घर में कुछ भी न था। सिर्फ
एक कंबल था, जो फकीर ओढ़े लेटा हुआ था। सर्द रात, पूर्णिमा
की रात। फकीर रोने लगा, क्योंकि घर में चोर आएं और चुराने
को कुछ नहीं है, इस पीड़ा से रोने लगा। उसकी सिसकियां सुन
कर चोरों ने पूछा कि भई क्यों रोते हो? न रहा गया उनसे। तो
उस फकीर ने कहा कि आए थे— कभी तो आए, जीवन में पहली
दफा तो आए! यह सौभाग्य तुमने दिया! मुझ फकीर को भी यह
मौका दिया! लोग फकीरों के यहां चोरी करने नहीं जाते,
सम्राटों के यहां जाते हैं। तुम चोरी करने क्या आए, तुमने मुझे
सम्राट बना दिया! क्षण भर को मुझे भी लगा कि अपने घर भी
चोर आ सकते हैं! ऐसा सौभाग्य! लेकिन फिर मेरी आंखें आंसुओ से
भर गई हैं, मैं रोका बहुत कि कहीं तुम्हारे काम में बाधा न पड़े,
लेकिन न रुक पाया, सिसकियां निकल गईं, क्योंकि घर में कुछ है
नहीं। तुम अगर जरा दो दिन पहले खबर कर देते तो मैं इंतजाम कर
रखता। दुबारा जब आओ तो सूचना तो दे देना। मैं गरीब आदमी
हूं। दो—चार दिन का समय होता तो कुछ न कुछ मांग—तूंग कर
इकट्ठा कर लेता। अभी तो यह कंबल भर है मेरे पास, यह तुम ले
जाओ। और देखो इनकार मत करना। इनकार करोगे तो मेरे हृदय
को बड़ी चोट पहुंचेगी।
चोर तो घबड़ा गए, उनकी कुछ समझ में ही नहीं आया। ऐसा
आदमी उन्हें कभी मिला न था।
चोरी तो जिंदगी भर से की थी, मगर आदमी से पहली बार
मिलना हुआ था। भीड़— भाड़ बहुत है, आदमी कहां! शक्लें हैं
आदमी की, आदमी कहां! पहली बार उनकी आंखों में शर्म आई,
हया उठी। और पहली बार किसी के सामने नतमस्तक हुए, मना
नहीं कर सके। मना करके इसे क्या दुख देना, कंबल तो ले लिया।
लेना भी मुश्किल! इस पर कुछ और नहीं है! कंबल छूटा तो पता
चला कि फकीर नंगा है। कंबल ही ओढ़े हुए था, वही एकमात्र
वस्त्र था— वही ओढ़नी, वही बिछौना। लेकिन फकीर ने कहा.
तुम मेरी फिकर मत करो, मुझे नंगे रहने की आदत है। और तुम तीन
मील चल कर गांव से आए, सर्द रात, कौन घर से निकलता है। कुत्ते
भी दुबके पड़े हैं। तुम चुपचाप ले जाओ और दुबारा जब आओ मुझे
खबर कर देना।
चोर तो ऐसे घबड़ा गए कि एकदम निकल कर बाहर हो गए। जब
बाहर हो रहे थे तब फकीर चिल्लाया कि सुनो, कम से कम
दरवाजा बंद करो और मुझे धन्यवाद दो!
आदमी अजीब है, चोरों ने सोचा। और ऐसी कड़कदार उसकी
आवाज थी कि उन्होंने उसे धन्यवाद दिया, दरवाजा बंद किया
और भागे। फिर फकीर खिड़की पर खड़े होकर दूर जाते उन चोरों
को देखता रहा और उसने एक गीत लिखा— जिस गीत का अर्थ
है कि मैं बहुत गरीब हूं मेरा वश चलता तो आज पूर्णिमा का चांद
भी आकाश से उतार कर उनको भेंट कर देता! कौन कब किसके
द्वार आता है आधी रात!
यह आस्तिक है। इसे ईश्वर में भरोसा नहीं है, लेकिन इसे प्रत्येक
व्यक्ति के ईश्वरत्व में भरोसा है। कोई व्यक्ति नहीं है ईश्वर
जैसा, लेकिन सभी व्यक्तियों के भीतर जो धड़क रहा है, जो
प्राणों का मंदिर बनाए हुए विराजमान है, जो श्वासें ले रहा है,
उस फैले हुए ईश्वरत्व के सागर में इसकी आस्था है।
फिर चोर पकड़े गए। अदालत में मुकदमा चला, वह कंबल भी पकड़ा
गया। और वह कंबल तो जाना—माना कंबल था। वह उस प्रसिद्ध
फकीर का कंबल था। मजिस्ट्रेट तत्क्षण पहचान गया कि यह उस
फकीर का कंबल है— तो तुम उस गरीब फकीर के यहां से भी
चोरी किए हो! फकीर को बुलाया गया। और मजिस्ट्रेट ने कहा
कि अगर फकीर ने कह दिया कि यह कंबल मेरा है और तुमने चुराया
है, तो फिर हमें और किसी प्रमाण की जरूरत नहीं है। उस आदमी
का एक वक्तव्य, हजार आदमियों के वक्तव्यों से बड़ा है। फिर
जितनी सख्त सजा मैं तुम्हें दे सकता हूं दूंगा। फिर बाकी
तुम्हारी चोरियां सिद्ध हों या न हों, मुझे फिकर नहीं है। उस
एक आदमी ने अगर कह दिया…।
चोर तो घबड़ा रहे थे, कंप रहे थे, पसीना—पसीना हुए जा रहे थे—
जब फकीर अदालत में आया। और फकीर ने आकर मजिस्ट्रेट से
कहा कि नहीं, ये लोग चोर नहीं हैं, ये बड़े भले लोग हैं। मैंने कंबल
भेंट किया था और इन्होंने मुझे धन्यवाद दिया था। और जब
धन्यवाद दे दिया, बात खत्म हो गई। मैंने कंबल दिया, इन्होंने
धन्यवाद दिया। इतना ही नहीं, ये इतने भले लोग हैं कि जब बाहर
निकले तो दरवाजा भी बंद कर गए थे।
यह आस्तिकता है। मजिस्ट्रेट ने तो चोरों को छोड़ दिया,
क्योंकि फकीर ने कहा. इन्हें मत सताओ, ये प्यारे लोग हैं, अच्छे
लोग हैं, भले लोग हैं। फकीर के पैरों पर गिर पड़े चोर और उन्होंने
कहा हमें दीक्षित करो। वे संन्यस्त हुए। और फकीर बाद में खूब
हंसा। और उसने कहा कि तुम संन्यास में प्रवेश कर सको इसलिए
तो कंबल भेंट दिया था। इसे तुम पचा थोड़े ही सकते थे। इस कंबल
में मेरी सारी प्रार्थनाएं बुनी थीं। इस कंबल में मेरे सारे सिब्दों
की कथा थी। यह कंबल नहीं था। जैसे कबीर कहते हैं न—झीनी—
झीनी बीनी रे चदरिया! ऐसे उस फकीर ने कहा प्रार्थनाओं से
बुना था इसे! इसी को ओढ़ कर ध्यान किया था। इसमें मेरी
समाधि का रंग था, गंध थी। तुम इससे बच नहीं सकते थे। यह मुझे
पक्का भरोसा था, कंबल ले आएगा तुमको भी। और तुम आखिर
आ गए। उस दिन रात आए थे, आज दिन आए। उस दिन चोर की तरह
आए थे, आज शिष्य की तरह आए। मुझे भरोसा था। क्योंकि बुरा
कोई आदमी है ही नहीं।
बुरे से बुरे आदमी में भी जिसे भरोसा है, वह आस्तिक। चोर में जो
अचोर को देख ले, वह आस्तिक। बेईमान में जो ईमानदार को देख
ले, वह आस्तिक। असाधु में भी जो साधुता को खोज ले—
हालांकि ढेर है असाधुता का, लेकिन कहीं न कहीं साधुता का
हीरा भी दबा पड़ा होगा— वह आस्तिक। और इससे उलटा
नास्तिक है। नास्तिक वह है जो गुलाब की झाड़ी के पास जाए
तो गुलाब के फूल तो उसे दिखाई ही न पड़े, कांटों की गिनती
कर ले। और कांटों को गिनोगे तो कांटे चुभेंगे भी, हाथ लहूलुहान
भी हो जाएंगे, क्रोध भी जगेगा।

महावीर और गौतम

Iमहावीर की मृत्यु का दिन आया। महावीर का सबसे प्रमुख शिष्य गौतम पास के ही गांव में उपदेश देने गया था। महावीर ने जान कर ही भेजा था।

महावीर अस्वस्थ थे—छह महीने से अस्वस्थ थे। दिया टिमटिमाता—टिमटिमाता सा था। कब ज्योति उड़ जाएगी, कोई कह नहीं सकता था। सारे शिष्य इकट्ठे हो गए थे, दूर—दूर से आ गए थे, सैकड़ों मील की यात्रा करके महावीर के अंतिम दर्शन को उपस्थित हो गए थे।

और गौतम, जो कि जीवन भर साथ रहा; जो छाया की तरह साथ रहा; जिसने महावीर की वैसी अथक सेवा की, जैसी शायद ही कभी किसी ने किसी की होगी—एक ही दिन पहले महावीर ने उससे कहा गौतम, तू पास के गांव में जा। भिक्षा भी मांग लाना और गांव के लोगों को उपदेश भी दे आना। महावीर ने जान कर ही गौतम को भेजा।

सोच—समझ कर भेजा। एक उपाय की भांति भेजा।

गौतम तो दूसरे गांव गया और महावीर ने देह छोड़ दी। जब गौतम वापस आ रहा था तो रास्ते पर राहगीरों ने गौतम से कहा कि अब कहां जा रहे हो, अब किसके लिए जा रहे हो? दीया तो बुझ गया! पिंजड़ा पड़ा है, पक्षी तो उड़ गया। फूल तो धूल में गिर गया, सुवास आकाश में समा गई। अब कहां जा रहे हो?

गौतम तेजी से चला जा रहा था। महावीर बीमार हैं। भेजा था तो आज्ञा पूरी करनी थी, लेकिन जल्दी भिक्षा मांग, जल्दी उपदेश दे, भाग रहा था कि वापस पहुंच जाए। वहीं बैठ कर रोने लगा।

और उसने उन यात्रियों से पूछा कि एक बात भर मुझे पूछनी है अंतिम समय में उन्होंने मुझे स्मरण किया था या नहीं? और यदि स्मरण किया था तो मेरे लिए कोई संदेश छोड़ गए हैं या नहीं?

उन यात्रियों ने कहा हां, अंतिम संदेश तुम्हारे लिए ही छोड़ गए हैं। कहा कि गौतम को मैंने दूर भेजा है, क्योंकि पास रहते—रहते वह भूल ही गया था कि एक होना है। इतने पास था कि उसे विस्मरण हो गया था कि एक होना है। उसे दूरी की याद दिलाने के लिए, कि पास भी एक दूरी है, मैंने दूर भेजा है।

और यह मेरा सूत्र है, गौतम को कह देना, कि हे गौतम, तू पूरी नदी तो तैर गया, अब किनारे पर आकर क्यों रुक गया है? पूरी नदी तो तैर चुका, अब किनारे को भी छोड़! अब किनारे से भी उठ आ!

जैसे कोई आदमी नदी पार कर जाए और फिर किनारे को पकड़ कर भी नदी में ही बना रहे — इस आशा में कि अब तो किनारा मिल गया, अब क्या करना है! मगर है वह नदी में ही, किनारे को पकड़े है।

महावीर के संदेश का अर्थ था गौतम, तूने सब छोड़ दिया— घर—द्वार, परिवार—सब छोड़ कर तू मेरे साथ हो लिया। लेकिन अब तूने मुझे पकड़ लिया है। अब तू सोचता है कि अब मुझे क्या करना है!

अब सदगुरु मिल गए, अब उनकी सेवा करता हूं। मेरा काम पूरा हो गया। अब तू किनारे को पकड़ कर रुक गया है। मुझे भी छोड़ दे!

क्योंकि बाहर कुछ भी पकड़ो तो बंधन है। अंतत: सदगुरु भी बंधन बन जाता है। सदगुरु और सारे बंधनों से छुड़ा देता है और अंत में स्वयं से भी छुड़ा देता है। वही सदगुरु है।

इस वचन को सुनते ही गौतम समाधि को उपलब्ध हो गया। जो समाधि जीवन भर छलती रही, वह एक क्षण में उपलब्ध हो गई। चोट गहरी थी। आघात ऐसा था कि पहुंच गया होगा प्राणों के अंतरतम तक।

सरल ध्यान विधि


‘अ, से अंत होने वाले किसी शब्द का
उच्चार चुपचाप करो।’
बाहर जाने वाली श्वास पर जोर दो।
और तुम इस विधि का उपयोग मन में
अनेक परिवर्तन लाने के लिए कर सकते हो।
अगर तुम कब्जियत से पीड़ित हो
तो श्वास लेना भूल जाओ,
सिर्फ श्वास को बाहर फेंको।
श्वास भीतर ले जाने का काम
शरीर को करने दो,
तुम छोड़ने भर का काम करो।
तुम श्वास को बाहर निकाल दो
और भीतर ले जाने की फिक्र ही मत करो।
शरीर वह काम अपने आप ही कर लेगा,
तुम्हें उसकी चिंता नहीं लेनी है।
उससे तुम मर नहीं जाओगे।
शरीर ही श्वास को भीतर ले जाएगा।
तुम छोड़ने भर का काम करो,
शेष शरीर कर लेगा।
और तुम्हारी कब्जियत जाती रहेगी।
अगर तुम हृदय—रोग से पीड़ित हो
तो श्वास को बाहर छोड़ो,
लेने की फिक्र मत करो।
फिर हृदय—रोग तुम्हें कभी नहीं होगा।
अगर सीढ़ियां चढ़ते हुए या
कहीं जाते हुए तुम्हें थकावट महसूस हो,
तुम्हारा दम घुटने लगे तो तुम इतना ही करो :
श्वास को बाहर छोड़ो,
लो नहीं।
और तब तुम कितनी ही सीढ़ियां चढ़ जाओगे
और नहीं थकोगे।
क्या होता है?
जब तुम श्वास छोड़ने पर जोर देते हो
तो उसका मतलब है
कि तुम अपने को छोड़ने को,
अपने को खोने को राजी हो,
तब तुम मरने को राजी हो।
तब तुम मृत्यु से भयभीत नहीं हो।
और यही चीज तुम्हें खोलती है,
अन्यथा तुम बंद रहते हो।
भय बंद करता है।
जब तुम श्वास छोड़ते हो
तो पूरी व्यवस्था बदल जाती है
और वह मृत्यु को स्वीकार कर लेती है।
भय जाता रहता है
और तुम मृत्यु के लिए राजी हो जाते हो।
और वही व्यक्ति जीता है
जो मरने के लिए तैयार है।
सच तो यह है कि वही जीता है
जो मृत्यु से राजी है।
केवल वही व्यक्ति जीवन के योग्य है,
क्योंकि वह भयभीत नहीं है।
जो व्यक्ति मृत्यु को स्वीकार करता है,
मृत्यु का स्वागत करता है,
मेहमान मानकर उसकी
आवभगत करता है,
उसके साथ रहता है,
वही व्यक्ति जीवन में
गहरे उतर सकता है।
श्वास बाहर छोड़ो,
लेने की फिक्र मत करो
और तुम्हारा समस्त चित्त
रूपांतरित हो जाएगा।
इन सरल विधियों के कारण ही
तंत्र प्रभावी नहीं हुआ।
क्योंकि हम सोचते हैं कि
हमारा मन तो इतना जटिल है,
वह इन सरल विधियों से कैसे बदलेगा।
मन जटिल नहीं है,
मन मूढ़ भर है।
और मूढ़ बड़े जटिल होते हैं।
बुद्धिमान व्यक्ति सरल होता है।
तुम्हारे चित्त में कुछ भी जटिल नहीं है,
वह एक बहुत सरल यंत्र है।
अगर तुम उसे समझोगे तो
बहुत आसानी से उसे बदल सकते हो।
जब एक कुत्ता मरता है
तो दूसरे कुत्तों को कभी यह
आभास नहीं होता
कि हमारी मृत्यु भी होगी।
जब भी मरता है,
कोई दूसरा मरता है,
तो कोई कुत्ता कैसे कल्पना करे
कि मैं भी मरने वाला हूं।
उसने कभी अपने को मरते नहीं देखा,
सदा किसी दूसरे को ही मरते देखा है।
वह कैसे कल्पना करे,
कैसे निष्पत्ति निकाले कि मैं भी मरूंगा?
पशु को मृत्यु का बोध नहीं है,
इसी लिए कोई पशु
संसार का त्याग नहीं करता।
कोई पशु संन्यासी नहीं हो सकता।
केवल एक बहुत ऊंची कोटि की चेतना ही
तुम्हें संन्यास की तरफ ले जा सकती है।
मृत्यु के प्रति जागने से ही
संन्यास घटित होता है।
और अगर आदमी होकर भी तुम
मृत्यु के प्रति जागरूक नहीं हो
तो तुम अभी पशु ही हो,
मनुष्य नहीं हुए हो।
मनुष्य तो तुम तभी बनते हो
जब मृत्यु का साक्षात्कार करते हो।
अन्यथा तुममें और पशु में कोई फर्क नहीं है।
पशु और मनुष्य में सब कुछ समान है,
सिर्फ मृत्यु फर्क लाती है।
मृत्यु का साक्षात्कार कर लेने के बाद
तुम पशु नहीं रहे।
तुम्हें कुछ घटित हुआ है
जो कभी किसी पशु को घटित नहीं होता है।
अब तुम एक भिन्न चेतना हो..
जब श्वास बाहर जा रही है,
जब तुम जीवन से सर्वथा रिक्त हो,
तब तुम मृत्यु को छूते हो,
तब तुम उसके बहुत करीब पहुंच जाते हो।
तब तुम्हारे भीतर सब कुछ मौन
और शांत हो जाता है।
इसे मंत्र की तरह उपयोग करो।
जब भी तुम्हें थकावट महसूस हो,
तनाव महसूस हो तो
अ: से अंत होने वाले किसी शब्द का उच्चार करो।
अल्लाह से भी काम चलेगा—
कोई भी शब्द जो तुम्हारी श्वास को समग्रत:
बाहर ले आए,
जो तुम्हें श्वास से बिलकुल खाली कर दे।
जिस क्षण तुम श्वास से रिक्त होते हो
उसी क्षण तुम जीवन से भी
रिक्त हो जाते हो।
और तुम्हारी सभी समस्याएं
जीवन की समस्याएं हैं,
मृत्यु की कोई समस्या ही नहीं है।
तुम्हारी चिंताएं,
तुम्हारे दुख—संताप,
तुम्हारा क्रोध,
सब जीवन की समस्याएं हैं।
मृत्यु तो समस्याहीन है,
मृत्यु असमस्या है।
मृत्यु कभी किसी को समस्या नहीं देती है।
तुम भला सोचते हो कि मैं मृत्यु से डरता हूं
कि मृत्यु समस्या पैदा करती है,
लेकिन हकीकत यह है कि मृत्यु नहीं,
जीवन के प्रति तुम्हारा आग्रह,
जीवन के प्रति तुम्हारा लगाव
समस्या पैदा करता है।
जीवन ही समस्या खड़ी करता है,
मृत्यु तो सब समस्याओं का
विसर्जन कर देती है।
तो जब श्वास बिलकुल बाहर निकल जाए—
अ:ऽऽ—तुम जीवन से रिक्त हो गए।
उस क्षण अपने भीतर देखो,
जब श्वास बिलकुल बाहर निकल जाए।
दूसरी श्वास लेने के पहले
उस अंतराल में गहरे उतरो जो रिक्त है
और उसके आंतरिक
मौन और शांति के प्रति सजग होओ।
उस क्षण तुम बुद्ध हो।

भक्ति

भक्ति जब भोजन में प्रवेश करती है,
भोजन " प्रसाद "बन जाता है.।

भक्ति जब भूख में प्रवेश करती है,
भूख " व्रत " बन  जाती है.।

भक्ति जब पानी में प्रवेश करती है,
पानी " चरणामृत " बन जाता है.।

भक्ति जब सफर में प्रवेश करती है,
सफर " तीर्थयात्रा " बन जाता है.।

भक्ति जब संगीत में प्रवेश करती है,
संगीत " कीर्तन " बन जाता है.।

भक्ति जब घर में प्रवेश करती है,
घर " मन्दिर " बन जाता है.।

भक्ति जब कार्य में प्रवेश करती है,
कार्य " कर्म " बन जाता है.।

भक्ति जब क्रिया में प्रवेश करती है,
क्रिया "सेवा " बन जाती है.।
और...
भक्ति जब व्यक्ति में प्रवेश करती है,
व्यक्ति " मानव " बन जाता है..।